यायावर मन अकुलाया-21 (यात्रा संस्‍मरण)-तुलसी देवी तिवारी

यायावर मन अकुलाया (द्वारिकाधीश की यात्रा)

भाग-20 गोपी तालाब और बेट द्वारिका दर्शन

यायावर मन अकुलाया एक वृहद यात्रा संस्‍मरण है । यह यात्रा बिलासपुर छत्‍तीसगढ़ से प्रारंभ होकर । विभिन्‍न तीर्थ स्‍थलों से होते हुए द्वारिका पुरी में संपन्‍न होता है । आज के इस कड़ी में द्वारिका के गोपी तालाब और भेंट द्वारिका का चित्रण किया गया है ।

गोपी तालाब और बेट द्वारिका दर्शन

गोपी तालाब

अब हम गोपी तालाब की ओर जा रहे थे, जो यहाँ से कुछ ही किलोमीटर दूर है। पौराणिक कथा है कि श्री कृष्ण जब यदुवंशियों की सारी व्यवस्था द्वारिका में कर चुके, तब उन्हें अपने बचपन की सखी गोपियों की याद आने लगी। उन्हे लगा कि अनन्य भक्तिमति गोपियों की कोई खोज खबर न ले कर उन्होंने अच्छा नहीं किया। उन्होंने अपनी भूल का सुधार करने के लिए अपने प्रिय सखा उद्धव जी को गोपियों को ज्ञान की शिक्षा देने के लिए गोकुल भेजा ।

उद्धव ने ज्ञान मार्ग की व्याख्या करके गोपियों को समझाने की कोशिश की कि-’’परमात्मा का अंश सभी जीवों में विद्यमान है इसलिए कृष्ण के आने की बात भूल कर उन्हें अपने आप में ही अनुभव करो !’’गोपियों ने प्रेमाभक्ति का ऐसा निरूपण किया कि उद्धव को कोई उत्तर देते नहीं बन पड़ा । वे सभी जिद्द करके उनके साथ द्वारिका चल पड़ीं। लम्बी यात्रा से श्रमित गोपियों को उद्धव जी ने द्वारिका के बाहर एक सुंदर से तालाब के पास ठहराया और श्रीकृष्ण को गोपियों के आने की सूचना दी।

यदुपुरी के निकट पहुँच जाने पर गोपियाँ अपने प्यारे मोहन से मिलने के लिए आकुल हो गईं । श्री कृष्ण उनसे मिलने के लिए वहाँ आये। मन मोहन को सम्मुख पाकर सभी अपने हृदय की वेदना कहने लगीं, प्रेम की अधिकता के कारण वे भावविह्वल हो गईं। उन्होंने उन्हें सान्त्वना देकर शोक न करने के लिए कहा। उन्होंन उन्हें बताया कि वे हरदम उनके हृदय में निवास करते हैं, इसलिए विरह जन्य दुःख का त्याग कर दें। श्री कृष्ण के वचन सुन कर गोपियों के सारे बंधन टूट गये, फिर भी मोह का बंधन शेष रह गया।

गोपियाँ कृष्ण का स्पर्श आलिंगन, आदि कर के पहले की तरह अपना प्रेम प्रकट करना चाहतीं थीं जो उस समय के कृष्ण के लिए असंभव था, अब वे छोटे से बालक तो रहे नहीं, पूरे आर्यावर्त के साथ ही विदेशों की राजनीति के निर्णायक, पांडव सखा, सोलह हजार एक सौ आठ पटरानियों के अकेले पति, पुत्र- पौत्रों से भरे-पूरे यदुवंश के मुखिया द्वारिकाधीश बन गये थे। श्री कृष्ण ने उन्हें वहाँ स्थित तालाब में नहा कर थकावट उतारने की सलाह दी। माया तालाब में स्नान करते ही उनके मन से माया का अंधकार मिट गया। उन्हें भगवान् से मिलने का एहसास हो गया। उनके हृदय की विरह जन्य ज्वाला शांत हो गई।

श्रीकृष्ण ने कहा — हे गोपियों तुम सब मेरी परम प्रिय हो इस लिए तुमहारे भले के लिए अवश्य कुछ करुंगा, जो मेरी भक्ति करते हैं मैं भी उनकी भक्ति करता हूँ। ’’ ऐसा कह कर भगवान् ने माया तालाब के पास ही गोपियों के लिए एक तालाब बनवाया। और उसका नाम गोपी तालाब रखा क्योंकि गो से प्रारंभ होने वाले नाम उन्हें परम प्रिय हैं। जीवन के अंतिम समय में गोपियों ने यहाँ रह कर कृष्ण भक्ति की। और यहीं अंतिम साँस ली। भगवान् ने गोपियों के साथ यहाँ स्नान किया। उन्हें देह के मोह से मुक्त किया। उनकी प्रेमा भक्ति के बदले में मुक्ति दी जिसे पाने के लिए योगी जन जनम- जनम तक यत्न करते हैं।

सडक के किनारे ही गोपी तालाब तीर्थ का बड़ा भव्य प्रवेश द्वार दिखाई दे रहा है, हम सब अपने वाहन से उतरे। सामने ही रुक्मिणी माता का मंदिर है। एक पटरानी की गरिमा के साथ माता अपने मंदिर में विराज रहीं हैं। हम लोगों ने दर्शन करके अपने नेत्रों को धन्य किया। रुक्मिणी माता के मंदिर कें बाजू में ही एक पानी से भरी हुई टंकी है जिसमें राम-नाम का पत्थर तैर रहा है। लोग चंदन-बंदन से उसकी पूजा कर रहे थे, उसकी सुरक्षा के लिए जाली लगी हुई है जिसमें से अंगूली घुसा कर उसे छुआ जा सकता है। पंडित जी पूजा कराने के लिए खड़े थे, ऐसा तैरता पत्थर मैंने रामेश्वरम् और अपने छत्तीसगढ़ के शिवरी नारायण में भी देखा है। यह छिद्र युक्त हल्का पत्थर होता है कहते हैं इसी प्रकार के पत्थरों से श्री राम ने रामसेतु बनाया था, सेना सहित लंका जाने के लिए।

यहाँ का मुख्य मंदिर गोपीनाथ जी का है, काले संगमरमर की सुंदर मूर्ति है श्री कृष्ण जी की, वे द्वारिकाधीश जैसी साज-सज्जा में विराज रहे हैं। यह मंदिर सफेदरंग मे पुता है और बीच- बीच में लाल रंग की धारियाँ बहुत सुंदर नजर आ रहीं हैं। आगे गोपी मंदिर, राधा- कृष्ण मंदिर, सनक, सनंदन, सनातन और सनत् कुमार के मंदिर हैं। श्री कृष्ण और गोपियों की रास लीला की झाँकियाँ सजाई गईं हैं। पुजारी मंदिरों को अति प्राचीन और मूर्तियों को असली बता रहे हैं।

यहाँ बड़ी सुंदर दुकाने सजी हुई हैं। जिनमें पूजन सामग्री,कलात्मक बैग,खाने पीने की चीजें, गोपी चंदन, आदि बिक रहे हैं । गोपी तालाब की मिट्टी चिकनी और पीले रंग की है। गोल- गोल बना कर सुखाया हुआ गोपी चंदन यहाँ की खास वस्तु है। सबसे ज्यादा इसी की बिक्री हो रही है ।श्री कृष्ण ने स्वयं तथा गोपियों के स्नान के बाद इस तालाब को आशीर्वाद दिया था कि यहाँ की मिट्टी चंदन होगी, सब इसे अपने माथे पर धारण करेंगे। हम लोग अन्य दर्शनार्थियों के पीछे-पीछे तालाब की ओर चले । कुछ कच्ची ईंटों से बनी दीवारें हैं, उन्हे पार कर हम वहाँ आये जहाँ से गोपी तालाब दिखाई दे रहा था। देश के अन्य जल स्रोतों के समान ही गोपी तालाब भी जल के अभाव में नाम मात्र को गोपी तालाब रह गया है, यहाँ के लोग कह रहे हैंं कि विगत वर्ष पानी कम गिरने के कारण पानी सूख गया है ।

उसकी परिधि मटिखनवा जैसी दिख रही है। पीली मिट्टी चमक रही है। कई लोग तालाब के पेट में भाग- दौड़ कर के मौज मना रहे हैं, यहाँ गोल आकार की चक्र के चिन्ह वाली मिट्टी भी निकलती है, लोग अपने आप भी मिट्टी निकाल रहे थे। मेरे मन में हूक सी उठी, क्या गति हो गई है गोपी तालाब की, जो कभी जल से भरा रहता होगा, आज एक सूखा गड्ढा मात्र रह गया है। उस तरफ भी एक मंदिर है, वहाँ से पूजन अर्चान करते हुए हम लोग बाहर आ गये। यहाँ हम लागों ने भी गोपी चंदन खरीदा और ईंट जड़ कर पक्की बनाई गई चौड़ी सी सड़क पार करते हम लोग अपने ऑटो में आ बैठे।

बेट द्वारिका

सड़क के दोनो किनारों पर उगी वनस्पति को देखते आपस में कुछ चर्चा करते हम ओख बंदरगाह पहुँच गये। जहाँ से हमें बेट द्वारिका जाना था। जहाँ श्री कृष्ण अपने परिवार के साथ निवास करते थे और जहाँ अपने बाल सखा सुदामा से मिले थे। ऑटो बंदरगाह से बहुत पहले ही रुक गया। हम लोग अरब सागर के किनारे बने बंदरगाह के कार्यालय पहुँच कर कुर्सियों पर बैठे, गोमती द्वारिका से ओख लगभग 30 किलोमीटर है।

यहाँ से पाँच किलोमीटर का जल मार्ग तय कर के हम लोग बेंट द्वारिका जाने वाले हैं। अथाह नीले समुद्र में लाइन से बहुत सारी बड़ी- बड़ी नावें लंगर डाले खड़ी हैं, लेकिन वे मछली मारने वाली है, यात्रियों को लाने ले जाने का काम दो नावें ही कर रहीं हैं। एक नाव यात्रियों को लेकर अभी- अभी छूट चुकी है, उधर से आने वाली नाव उधर से छुटी है, जो इस किनारे आ रही हैं। हम लोग उसी पर बैठ कर उस पार जायेंग, ऐसी उम्मीद है। यहाँ इस समय समुद्र शांत है, जेटी पर साधारण भीड़ है।

कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर प्लेट फार्म तक पहुँचने की व्यवस्था है। किनारे से लेकर समुद्र में तीस-चालीस फुट के कई प्लेटफार्म बने हुऐ हैं जिनकें बगल में नावें ,खड़ी दिखाई दे रहीं थीं। क्योंकि कम पानी में बड़ी नावे नहीं चल सकतीं । जैसे ही एक नाव प्लेटफार्म के पास आई लोग एक दूसरे के पीछे लगे उतरने लगे। कुछ लोग चढ़ने के लिए आगे बढ़ने लगे और कुछ लोग बगल वाले प्लेटफार्म से नाव पर चढ़ने के के लिए चल पड़े, हम लोग भी उन्हीं में थे।

नाव जब तक खाली हुई जाने वाले बहुत सारे लोग चढ़ कर जगह बना चुके थे। हममें से अधिक फुर्ती वाले तिवारी , शर्मा जी आदि चढ़ चुके थ, बाकी नाव खाली होने के इंतजार में पिछड़ गये। हमारे यहाँ के बस कंडक्टर की तरह नाव का खलासी सब को बुला- बुला कर नाव पर चढ़ा रहा था। हम लोग डगमगाती नाव पर चढ़े। नाव में पतली-पतली पटिया लगी हुई है यात्रियों के बैठने के लिए। जहाँ उसने बैठाया हम लोग बैठ गये । मुझें एकदम किनारे जगह मिली, देवकी दीदी बीच में थीं। जगह न मिलती देख कर माया को मैने अपने पास ले लिया।

नाव के बाहर जब एक भी यात्री न रह गया तब खलासी ने नाव का लंगर उठा कर नाव में रखा और नाव का इंजन चालू हो गया। मन जरा स्थिर हुआ तब मैंने निगाहें उठाकर समुद्र की लहरों को देखा जो सूर्य की किरणों के साथ आँख मिचौली खेल रहीं थीं। समुद्र के सीने पर कई नावें आती- जातीं दिखाई दे रहीं थीं। अब तक लगभग दस बज चुके थे, घूप थोड़ी तेज हो गई थी, लेकिन जल की निकटता के कारण सब कुछ बहुत अच्छा लग रहा था। सबसे अच्छे तो वे पक्षी लग रहे थे जो हमारी नाव को घेरे हुए कभी उड़ तो कभी तैर रहे थे।

पता चला कि ये विदेशी पाहुने हैं जो जाड़े के प्रारंभ में हजारों किलोमीटर की यात्रा करके हमारे देश आते हैं, यहाँ वे बच्चे देते हैं और गर्मी के प्रारंभ में अपने परिवार के साथ लौट जाते हैं अपने देशं, उनका यह प्रवास न जाने कब से चला आ रहा है और न जाने कौन सी वे वजहें हैं जिनके कारण ये जान जोखि़म में डाल कर ये लंबी- लंबी यात्राएं करते हैं । नाव पर ही पक्षियों का चारा बिक रहा था जिसे खरीद- खरीद कर लोग सुद्र में डाल रहे थे। दाने जल में विलीन हो या लहरों के साथ पहुँच से बाहर जायं उसके पहले ही ये सफेद या सलेटी रंग के खुबसूरत पक्षी लपक ले रहे थे। दाने पानी में डाल कर मैंने भी उन्हें पास बुलाकर उनसे कुछ बातें की। समुद्र का नीला जल ऐसा लग रहा था जैसे ह्वेल उछल रही हो।

नाव पर देश विदेश के लोग विविध वर्णी वेशभूषा में कचबच- कचबच कर रहे थे। हमारे साथ बहुत सारे बच्चे और बुजूर्ग भी थे जो श्री कृष्ण की नगरी देखने जा रहे थे, सभी अपनी – अपनी बोलियों में बातें कर रहे थे, आलम यह था कि कानों पड़ी बात समझमें नहीं आ रही थी। मेरा मन अपने आप ही प्रसन्नता के आवेग में खोया जा रहा था। मुझे दूर से ही वह प्लेट फार्म दिखाई दे रहा था जिस पर भरी हुई नाव अब छूटने की तैयारी में थी। संभवत उसी पर हमारी नाव लगने वाली थी। मैं सोचने लगी , आज तो इतनी सुविधा है श्रीकृष्ण के जमाने में जब सुदामा अपने मित्र से मिलने के लिए आये होंगे तो कितनी परेशानी हुई होगी उन्हें?उनके पास तो तीन मुट्ठी चावल के सिवा कुछ भी नहीं था। नाव वालों से कितनी विनय करनी पड़ी होगी उन्हें ? जो अपनी गरीबी लेकर अपने मित्र के घर जाने में संकोच करते थे उन्हे मल्लाहों के सामने निवेदन करना पड़ा होगा।

उधर से ओख जाने वाली नाव छुटी और हमारी नाव से समानान्तर दूरी रखते हुए आगे निकल गई। अब तट अधिक दूर नहीं था, हमारी नाव की गति धीमी होने लगी थी। प्लेटफार्म के पास पहुँच कर नाव का लंगर डाल दिया गया और यात्री उतरने के लिए हड़बड़ी मचाने लगे। चलने पर नाव डगमगा रही थी इसलिए बड़ी सावधानी से उतरते हुए हम लोग प्लेट फार्म पर उतरे , मैंने अपने सभी साथियों पर एक सरसरी नजर डाली सभी आस-पास ही खडे़ थे।

कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर वहींं से बेट द्वारिका जाने के लिए लंबा-चौड़ा पुल बना हुआ है जिसके दो भाग हैं एक आने वालों के लिए दूसरा जाने वालों के लिए। इसे सब लोग पैदल ही पार कर रहे थे। हमने भी कियां । पुल से थोड़ा सा आगे ऑटो वाले ,तांगे वाले खड़े थे, कुछ ई. रिक्शे वाले भी थे हम लोगों ने दो ऑटो किया और मंदिर की ओर बढ़ चलें वहाँ एक छोटा सा बाजार दिखाई दिया जिसमें वह सब कुछ बिक रहा था जो आज-कल शहरों की आम जरूरत है, जैसे चाय , बिस्कुट, कोल्ड ड्रिंक, मोबाइल चार्ज आदि। वहाँ से आगे बढ़ने पर सडक तो पक्की मिली लेकिन आस-पास का दृश्य कस्बाई लग रहा था , कुछ पेड़ पौधे दिखाई दे रहे थ,े बाकी मंदिर ही मंदिर दिखाई दे रहे थे।

देखने से समझ में नहीं आ रहा था कि हम समुद्र में उभरे एक तेरह किलोमीटर लम्बे और मात्र चार किलोमीटर चौड़े द्वीप पर चल रहे हैं । जिसका अधिकतर भाग भूस्खलन के दौरान समुद्र में समा चुका है। ज्यादातर रेत ही दिखाई दे रही है। इस तीर्थ का नाम शंखोद्धार तीर्थ भी है। पुराणों में कथा आती है कि मथुरा में कंस के कारागार में जन्मे देवकी वसुदेव के पुत्र जिनका लालन-पालन कंस के भय से नंदगोप के यहाँ गोकुल में हुआ , जिन्होंने कंस वध के पश्चात् उज्जैन के सांदिपनि आश्रम में रह कर शिक्षा प्राप्त की ।

गुरू पत्नी को जब उनकी शक्तियों का ज्ञान हुआ तब उन्होंने उनसे गुरूदक्षिणा में अपने मृत पुत्र की मांग की । वह समुद्र में डूबा था इसलिए माना जा रहा था कि समुद्र में रहने वाले शंखासुर नामक राक्षस ने गुरूपुत्र का भक्षण कर लिया होगा । श्रीकृष्ण ने समुद्र से गुरूपुत्र पुर्नदत्त के बारे में पूछा तो उसने प्रभास क्षेत्र में रहने वाले मायवी असुर पांचजन्य पर शंका जाहिर की। वह एक अद्भूत् शंख में अपना आकार छोटा करके छिपा हुआ था। श्रीकृष्ण बलराम ने डुबकी लगाकर शंखासुर को खोजा और उसका पेट चीर कर देखा तो उसके पेट में गुरू पुत्र पुर्नदत्त नहीं था। उसके बाद यमलोक से लाकर पुर्नदत्त को उनके माता पिता के हवाले किया। उन्होंने शंखासुर का उद्धार करके उसका पांचजन्य शंख ले लिया। तभी से यह स्थान शंखोद्धार तीर्थ के नाम से भी जाना जाता है।

ऊँचे परकोटे से घिरे द्वारिकाधीश मंदिर पहुँच कर हम लोग ऑटो से उतरे। बाहर चप्पल जूते उतार कर हमने मंदिर के भव्य प्रवेश द्वार में प्रवेश किया। मंदिर कुछ ऊँचाई पर बने हैं जहाँ तक जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं ًयहाँ पाँच बड़े- बड़े मंदिर है, पहला तो श्री द्वारिकाधीश जी का है जिसके बारे में कहा जाता है कि इसे उनकी सबसे बड़ी पटरानी रुक्मिणी ने इस क्षेत्र में पाई जाने वाली बलुआ मिट्टी से बनवाया था। यह सबसे बड़ा मंदिर है। इस की सजावट और भगवान् का सिंगार अत्यंत सुंदर है। मैंने देखा कि वे यहाँ हाथ में पांचजन्य शंख चौड़ाई में थामें हुए हैं, जबकि अन्य सभी जगह शंख लम्बाई में लिए होते हैं । मैने श्रद्धा पूर्वक संसार के पालन कर्ता को प्रणाम किया।

इस मंदिर का निर्माण स्वामी वल्लभाचार्य जी ने पाँच सौ वर्ष पूर्व करवाया था। उन्होंने यहाँ भागवत् कथा का पारायण किया था, उनकी बैठक भी यहाँ है।उन्होंने पूरे देश की एकाधिक बार यात्रा करने में अपने जीवन के 23 वर्ष लगा दिय, देश भर में महाप्रभु की 81 बैठके है। इस प्रांगण में चार और मंदिर हैं,उत्तर की ओर राधा रुक्मिणी का मंदिर है, दक्षिण में सत्यभामा और जाम्बवंती के महल भी हैं, जिनकी साज सज्जा बहुमूल्य है। यहाँ और भी छोटे- छोटे मंदिर हैं, पूर्व दिशा के कोने पर श्री हनुमान् जी का मंदिर देख मैंने हाथ जोड़का उन्हें प्रणाम किया। ये महल दो मंजिले और तीन मंजिलें हैं, श्री कृष्ण की चारो रानियों के सिंहासन पर चाँदी की परतें मढ़ी हुई हैं। दरवाजों, चौखटों पर भी चांदी की परत चढ़ी हुई है। इनका सिंगार देख का आँखें चौंधिया गईं मेरी तो। इन्हें सोने, हीरे- मोती जवाहरात् के आभूषण पहनाए गये हैं, मूर्तियों को असली जरी वाले वस्त्र पहनाए गये हैं।

जनश्रुति है कि मेवाड़ से आई परम भक्तिमति मीरा बाई ने यहीं अपने प्राण त्यागे थे, उनकी ज्योति द्वारिकाधीश में समा गई थी। श्री कृष्ण सुदामा का मिलन स्थल एक खुले से हॉल को बताया गया। यहाँ गले मिलते हुए कृष्ण सुदामा के चित्र लगे हुए है। हमारे यहाँ जहाँ भी भगवत् महापुराण की कथा होती है आचार्य बड़े बस्तिर से कृष्ण सुदामा मिलन की कथा का बखान करते हैं, इसमें कई लाभ हैं, इस कथा के समय चावल की पोटली आचार्य को दान करने की परंपरा है दूसरे समाज में मित्रता की शिक्षा देने वाली यह कथा बड़ी लोक प्रिय भी है।

मेरे पिताजी अक्सर इनका भजन —’’ चले श्याम सुंदर से मिलने सुदामा, गाते चले मन में हरे कृष्ण रामा’’ गाया करते थे। मैंने भी इसे अनेक बार गुनगुनाया है। श्री कृष्ण ने हमें बताया कि मित्र हर हाल में मित्र होता । दीवार से कुर्सी टिकाए एक पंडित जी भक्तों को संबोधित कर रहे थे। धोती कुर्ताधारी गोरे से माथे पर त्रिपुण्ड लगाये वे बड़े प्रभावशाली लग रहे थे । हॉल में दरी बिछी हुई थी जिस पर नहीं -नहीं में पचास स्त्री- पुरूष बैठे हुए थे। हम लोग भी जगह बना कर बैठ गये।

उन्होंने अपना प्रवचन जारी रखा हुआ था–’’ गुरू सांदिपनि के आश्रम में साथ- साथ शिक्षा प्राप्त करने के बाद श्री कृष्ण तो द्वारिकाधीश बने और सुदामा कृष्ण की अनन्य भक्ति में लीन रहने वाले निष्ठावान् गरीब ब्राह्मण, जिनके घर कभी- कभी ही चुल्हा जल पाता था। उनकी पत्नी सुशीला गाँव में भिक्षामांग कर कुछ अन्न जुटाती तो बच्चों को खिला पाती। एक दिन सुदामा अपने मित्र द्वारिकाधीश की प्रशंसा कर रहे थे तब सुशीला ने उन्हें अपने मित्र से मिल कर अपनी परेशानी बताने की जिद्द की । सखा को भेट देने के लिए पड़ोस से थेड़ा चावल मांग लाई ।

हजार मुसीबते सह कर सुदामा अपने मित्र श्रीकृष्ण से मिलने में सफल हो गये। उनकी हालत देख भगवान् इतने दुःखी इुए कि पैर धोने के लिए मंगवाये जल को हाथ भी नहीं लगाया और अपने आँसुओं से उनके पैर धो दिये। उनके प्रेम से लाये गयें चावल को बड़े प्रेम से खाये और दो मुट्ठी में दो लोक का राज्य दे दिया। सुदामा के बिना बताये ही उनकी बातों से उनकी स्थिति का आंकलन कर लिया और अपनी द्वारिकापुरी के समान ही सब प्रकार से सुविधायुक्त सुव्यवस्थित द्वारिका पुरी सुदामा के लिए भी रातों -रात बसा दी, जिसे आज मूल द्वारिका के नाम से हम जानते हैं, सुदामापुरी और गांधी नगर भी मूल द्वारिका का ही नाम है।

तो भक्तों! यह वही स्थान है जहाँ सुदामा ने प्रभु को चावल दान किये थे, जिसके प्रभाव से उनकी भीषण गरीबी दूर हो गई थी, और वे द्वारिकाधीश जैसे ही ऐश्वर्य के स्वामी बन गये थें जो मनुष्य यहाँ चावल का दान करता है उसका भंडार सदा अन्न से भरा रहता है ये इस स्थान की महिमा है भक्तों, यहाँ प्रतिदिन अन्न क्षेत्र चलता है जहाँ बिना भेद- भाव के सभी को निःशुल्क भोजन दिया जाता है भक्तो ! हमारे पास कोई खेती तो है नहीं, आपके ही सहयोग से सबकुछ संभव होता है, आप दिल खोल कर अन्नदान के लिए रसीद कटवायें ,द्वारिकाधीश आप की हर मनोकामना पूर्ण कर देंगे।’’ उन्होंने अपनी वाणी को विराम देकर अपने पास बैठे एक और ब्राहम्ण को संकेत किया उन्होंने रसीदबुक लेकर भक्तों की रसीद काटना प्रारंभ कर दिया। हम सबने 101 – 101 रूपये की रसीद कटवाई । हमे अच्छा लगा एक अच्छे काम में हिस्सेदार बनकर ।

मैंने देखा कि समुद्र के एक छोटे से टापू में रहने के बावजूद भी यहाँ सुविधा की कोई कमी नहीं है, पता नहीं कैसे समुद्र के अन्दर से बिजली के केबल और पानी के पाइप लाये गये हैं, मीठे पेय जल की अच्छी व्यवस्था दिखाई दी। वैसे तो पुराने समय में भी इस द्वीप पर कई सरोवर थे जिनके मीठे जल से यहाँ के रहवासी बारहमास सुखपूर्वक जीवन यापन करते थे, आज जिनकी हालत दयनीय हो चली है क्योंकि अब आदमी को पहले से अधिक सुविधा पूर्ण विकल्प मिल गया है।

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