यायावर मन अकुलाया (द्वारिकाधीश की यात्रा)
भाग-3 संदीपनी आश्रम का दर्शन (उज्जैन)
-तुलसी देवी तिवारी
गतांक यायावर मन अकुलाया-2 (यात्रा संस्मरण) से आगे
अगले दिन (11.10.16) आदत के अनुसार मेरी नींद ब्रह्म मुहूर्त में (तीन बजे) खुल गई, मैंने सोचा कि माया के उठने से पहले ही निवृत हो लेती हूँ , चुपचाप उठी। अपने कपड़े लत्ते निकाले और वॉशरूम के दरवाजे को धीरे से धक्का दिया वह अन्दर से बंद था। ’’ हाय ! माया घुस गई क्या? मन ही मन बोलते हुए मैंनें बिस्तर पर नजर डाली ,वह अभी सो रही थी, प्रभा दीदी अन्दर थी। बता दूँ कि माया को हमने सबसे अंत में प्रसाधन जाने का अवसर दिया। बहरहाल हम सभी लिफ्ट से जब नीचे आये तो प्रातः के साढ़े पाँच बजे थे। शर्मा जी एवं तिवारी जी सपत्निक रिसेप्शन कक्ष में सोफे पर बैठे थे। हम उसी रास्ते से मंदिर के लिए चले जिससे कल गये थे। जब सीढ़ियों से ऊपर पहुँचे तो वहाँ पूरी तरह जाग हो चुकी थी । मंदिर के आस-पास के व्यापारी, जैसे फूलवाले ,खिलौने वाले प्रसाद वाले अपनी दुकानों पर सन्नद्ध बैठे थे। दर्शनार्थियों को देखते ही अपनी ओर आकर्षित करने के लिए पुकारने लगते थे। अब प्राची में सिंदूरी रंग बिखर रहा था हौल-हौले। मंदिर के पास का कोलाहल बढ़ता जा रहा था।
दूसरे प्रवेश द्वार के पास हमें वह लड़की अत्यंत व्यस्त दिखाई दी थी। ’’ आओ! आओ! जूूते चप्पल रख दो !उधर।’’ उसने अपने फूल माला के ठेले के नीचे हमारे जूते चप्पल रखवा लिए, स्वाभाविक था कि हम उसी से फूल माला लेते , हमारे किसी साथी ने इस ओर ध्यान न देते हुए अन्य दूकान से फूल माला क्रय कर लिया फिर क्या कहना था वह एकदम गुस्से से पागल हो गई । त्रिपाठी जी ने उसे समझा बुझा कर शांत किया। ’’ आज तो हम लोग भस्म आरती की रसीद कटाने आये हैं कल देखना कितनी फूल मालाएं लेते हैं, भूल आदमी से ही होती है। ’’ उसे समझा बुझा कर हमने अन्दर प्रवेश किया। यह मंदिर से अलग स्थान है, मझोले आकार के वृक्ष लगे हैं, कुछ बड़े और पुराने भी हैं, अन्दर घुसते ही दुकाने मिलने लगीं। उन सब की ओर ध्यान न देते हुए हम लोग वहाँ पहुँचे जहाँ एक लंबी लाइन हमारी प्रतीक्षा कर रही थी। हम लोग जल्दी -जल्दी लाइन में लग गये। पहले पता चला कि एक आदमी को एक ही रसीद मिलेगी फिर पता चला कि एक आदमी पाँच रसीद कटा सकता है। सभी महिलाएं लाइन से बाहर कर दी गईं भाइयों ने लाइन लगाई । एक नये लगे बरगद के चबुतरे पर बैठने के बाद मैंने आराम की साँस ली। और अपने आस-पास नजरें दौड़ाईं। यहाँ भी दुकाने लगीं थीं, एक ठेले पर चाय-कॉफी बन रही थी। पटेल जी ने सबके लिए चाय बनवाई, मेरे लिए कॉफी लाना भी नहीं भूले। अभी रसीद कटना प्रारंभ नहीं हुआ था। धूप तेज हो गई थी, चबूतरे पर दल की लगभग सभी महिलाएं पास-पास बैठ गई थीं। और कोई स्थान नहीं था बैठने लायक। यह मंदिर के पीछे वाला हिस्सा है, जब से हम वहाँ बैठे थे तभी से सामान बेचने वाला एक आदमी मेरे पीछे पड़ा कि महाकाल की छाप वाला चाभी का गुच्छा ले ही लो ! समय काटने के लिए मैं उससे भाव ताव करती रही । मैं दस रूपये में एक नग मांग रही थी वह पन्द्रह पर अड़ा हुआ था।
सामने विहंगम दृष्टि डाली तो पक्के घाटों वाला एक सरोवर दिखाई दिया। स्वच्छ जल से भरा वह सरोवर शास्त्रों मेंं वर्णित कोटितीर्थ है। थोड़ी देर सीढ़ियों में बैठने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पाई । सब की नजर बचा कर मैं वहाँ जा बैठी। पटेल जी ने मुझे देख लिया था इसलिए किसी के चिन्तित होने का भय जाता रहा। एकांत पाकर मेरे आगे सम्पूर्ण ऐतिहासिक परिदृश सकार हो उठा। यह भोलेनाथ की नगरी महाभारत काल से पूर्व से ही पूर्ण विकसित थी, यहाँ महर्षि सांदिपनि का आश्रम था जहाँ पारब्रह्म परमेश्वर श्री कृष्ण ने अपने भाई बलराम और मित्र सुदामा के साथ शिक्षा प्राप्त की । तब इसका नाम अवंतिका था। कृष्ण की एक पत्नि यहीं की थी। उनके साले विंद और अनुविंद यदुवंशी सेना के साथ दुर्योधन की ओर से पांडवों से लड़े थे। अन्य पौराणिक राजा भद्रसेन, गंधर्वसेन ,रतिदेव, इन्द्रद्युम्न आदि प्रसिद्ध हुए हैं। बुद्ध के समय यहाँ मगधराज प्रद्योत् का राज था। आगे के राजा विक्रमादित्य के नौ रत्नों में से एक संस्कृत भाषा के महान् साहित्यकार कालीदास ने अपनी रचना ‘वासवदत्ता‘ में प्रद्योत् की पुत्री वासवदत्ता का वत्सराज उदयन द्वारा अपहरण किये जाने का वर्णन किया है। उस समय अवंति एक ‘महाराष्ट्र‘ था। पाली भाषा की उत्पत्ति यहीं हुई ।
आगे भारत को एक सूत्र में पिरोकर राजनैतिक एकता स्थापित करने वाले सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के पौत्र अशोक यहाँ के राज्यपाल बन कर आये उनकी एक पत्नी देवी विदिशा की थीं। अशोक के पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा का जन्म यहीं हुआ, यहीं से वे बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ श्री लंका को गये थे। एक समय ऐसा भी आया कि बौद्ध धर्म के अनुयायियों ने भयानक वितंडा मचाया, बड़े -बड़े राजे -महाराजे राज-काज त्याग कर हाथ में भिक्षा पात्र लेकर बौद्ध भिक्षु बन गये। युवतियों के विहार प्रवेश से ये बौद्ध विहार षड़यंत्र के केंद्र बन गये। राजा इनके हाथ की कठपुतली बनने को विवश रहने लगे। इनके अव्यवहारिक अहिंसा के सिद्धान्त ने विदेशियों को आक्रमण के लिए आमंत्रित किया। ऐसे समय शुंग वंशीय पराक्रमी सेनापति अग्निमित्र ने इनके प्रभाव को कम करके शुंगवंश की स्थापना की। आगे आंध्र, भृत्य, सातवाहन, वंश भी सत्ता में रहे। पहली सदी के प्रथम शतक में अपने अग्रज भर्तृहरि के राज त्याग के पश्चात् चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य उज्जैन के शासक बने जिनके साहस, शौर्य, औदार्य पांडित्य, न्याय परायणता,और विद्वता के आगे संसार आज भी शीश झुकाता है। ये विक्रम संवत् के प्रवर्तक महापुरूष थे। मैंने बचपन से ही इनके बारे में बहुत कुछ पढ़ा सुना था। इनके गुणों का बखान करने वाली पुस्तक ‘सिंहासन बत्तीसी‘, विक्रम और बेताल मेरे साहित्य कोष में संचित है।
विक्रमादित्य के बाद शक,गुप्त,आदि ने उज्जैन पर राज किया। प्रत्येक काल में महाकाल मंदिर जन श्रद्धा का केंद्र रहा, किन्तु आगे मुगलों, पठानों एवं तुर्कों के आक्रमणों ने बार-बार महाकाल मंदिर को नष्ट कियां । और प्रभु के भक्तों ने बार-बार उसका पुर्निर्नर्माण किया।
इस नगर की प्रशंसा कालीदास ने अपनी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक मेघदूत में की है। 1235 ईस्वी में इल्तुतमिश ने इस्लाम के बुखार में बौरा कर महाकाल के मंदिर का विध्वंश कर दिया, उसने महाकाल को उखाड़ कर इसी सरोवर में फेंक दिया मैंने नजरें उठा कर सरोवर के निर्मल नीर को देखा जो दुर्दिन में महाकाल का आश्रय बना। । बाद के शासकों ने इस ओर ध्यान देकर बार-बार मंदिर का पुर्ननिर्माण कराया। पहले सन् 1107 से 1628 तक भारत में यवनों का राज्य रहा। इनके शासन काल में अन्य धार्मिक नगरों की भाँति ही उज्जैन को भी विनाश की डगर पर डाल दिया। उन्होंने 4500 वर्षों की हिन्दुओं की धार्मिक परंपराएं नष्ट कर दी।
समय बदला, सन् 1737 में मराठों ने मालवा को जीत कर अपना राज्य स्थापित किया। सिंधिया राज्य के संस्थापक राणो जी सिंधिया ने
यहाँ का राज-काज अपने दीवान रामचंद्रबाबा के हाथ में सौंप दिया। उन्होंने बड़ी कुशलता से नगर के टूटे हुए देव स्थानों का पुनर्निमाण कराया। रामचंद्र बाबा के पास अकूत सम्पित्ति थी किन्तु कोई संतान न थी। उनकी पत्नि अपने भतीजे को गोद लेना चाहती थी, किन्तु बाबा अपने वंश के लिए किसी योग्य उत्तराधिकारी की तलाश में थे। एक दिन व्यवस्था देखते हुए क्षिप्रा तट पर पहुँच गये, वहाँ के पंडों ने उनसे यवनों द्वारा नष्ट किये गये महाकाल ज्योर्तिलिंग मंदिर के निर्माण की प्रार्थना की—‘‘ क्षिप्रा तट पर टूटे मंदिरों का पुनर्निर्माण कर यहाँ नाग यज्ञ कराइये , महाकाल की कृपा से आप का नाम सदा के लिए अमर हो जायेगा ।‘‘ बाबा को उनकी सलाह अच्छी लगी। घर में गृह लक्ष्मी से विचार विमर्श करके उन्होंने महाकाल ज्योतिर्लिंग का भव्य मंदिर बनवाया, क्षिप्रातट पर अपने नाम पर रामघाट एवं पिशाचेश्वर तीर्थ बसाया तथा सन् 1732 से सिंहस्थ मेले का शासकीय प्रबंध प्रारंभ करवाया। हम विगत संध्या वहाँ के दर्शन का पुण्यलाभ ले चुके थे।
दिन चढ़ता जा रहा था और भीड़ बढ़ती जा रही थी। मैं सीढ़ी से उठ कर वहाँ आ गई जहाँ देवकी दीदी पेड़ की जड़ से टिक कर भीड़ को देख रहीं थीं । दस बजे पंजीयन खिड़की खुली। हमारे साथी भीड़ के साथ धकेले जाकर वहाँ तक पहुँचे। ग्यारह बजे तक सबका पंजीयन हो गया। हम सभी मंदिर से बाहर आ गये । कल वाले होटल में भोजन करके नगर के शेष दर्शनीय स्थानो के दर्शन की योजना बनाई गई । मंदिर के समीप ही टूरिस्ट बस हमें मिल गई । यह नगर की शासकीय व्यवस्था के अंतर्गत हमें सब जगह दिखा कर नियत समय पर मंदिर के पास लाकर छोड़ने वाली थी। सभी ने यथा साध्य अपने लिए स्थान बनाया। मंदिर के सभा गुह के समक्ष ही बड़े गणेश जी का मंदिर है बस अभी गति भी नहीं पकड़ पाई थी कि रुक गई । सभी लोग उतर कर गणनायक के मंदिर में गये। यहाँ हमने सिंदूरी वर्ण की विशाल गणेश प्रतिमां के दर्शन किये। मंदिर के मध्य में पंचमुखी हनुमान् जी की सुन्दर प्रतिमा है जो पृथ्वी, नाग, कछुए और उस पर विकसित कमल के मध्य स्थित है। अंदर पश्चिमी भाग में खगोलीय क्रमानुसार नवग्रहों की मूर्तियाँ हैं, इनके अतिरिक्त और भी कई देवी-देवताओं की प्राचीन प्रतिमाएं प्रतिष्ठित हैं। इस मंदिर का निर्माण सांदिपनि के वंशज स्व. श्री नारायणजी व्यास ने करवाया था , यह उनकी आराधना स्थली रहा है। संस्कृत तथा ज्योतिष के केन्द्र बने इस स्थान से शिक्षा प्राप्त कर हजारों लोग देश-विदेश में सम्मानित हुए हैं। यहाँ से श्री नारायण विजय पंचांग भी निकलता है। हमें जानकारी प्राप्त हुई कि पंचांग का कार्यालय यहाँ से थोड़ी ही दूरी पर है।
यहाँ से चलकर हमारी बस हरसिद्धि मंदिर के पास धीमी हुई, त्रिपाठी जी ने ड्राइवर को आगे बढ़ने का संकेत दे दिया क्योंकि बीते कल की शाम हम माँ का दर्शन लाभ ले चुके थे। आगे हमारी बस ‘चिंतामणि गणेश‘ जी के परमार कालीन प्राचीन मंदिर के सामने रुकी। सबने उतर कर रिद्धि-सिद्धि सहित गणेश जी का मानसिक पूजन कर भावविह्वल होकर प्रार्थना की। मैंने इस पुराण प्रसिद्ध विग्रह को भक्ति भाव से नमन किया। महारानी अहिल्या बाई होल्कर द्वारा इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया गया था, हमने चिंतामणि गणेश के साथ ही इच्छापूर्ण गणेश और चिंताहरण गणेश के भी दर्शन किये। शादी ब्याह जैसे शुभकार्य का आमंत्रण पहले विघ्नहर्ता को ही दिया जाता है। जहाँ विघ्न विनायक पहुँच गये वहाँ किसी प्रकार की बाधा आ भी कैसे सकती है? मंदिर के सामने ही एक बावड़ी हैं जिसे बाणगंगा कहते हैं । दोपहर होने के कारण हम भीड़ से बचे हुए थे।
देश के बावन शक्ति पीठों में छठवें नंबर पर विराजित महाकवि कालीदास की आराध्या, प्राचीन अवंतिका नगरी की रक्षिका, गढ़कालिका मंदिर के पास जाकर हमारी बस रुकी। यहाँ कई लोग पूजा अर्चना में लगे दिखाई दिये । तांत्रिक शक्तिपीठ होने के कारण तंत्र साधना के लिए प्रसिद्ध गढ़कालिका माता के मंदिर में प्रवेश करते समय मुझे ऐसा लगा जैसे माँ मेरे सिर पर हाथ फेर कर मेरे सारे शारीरिक, मानसिक संताप का हरण करने के लिए न जाने कब से मुझे बुला रही है, अब बस दौड़ कर अंक में ले लेगी, स्नेह से दुलरायेगी, मैंने सब से आगे निकलने की कोशिश की किन्तु प्रभा दीदी ने मेरा हाथ पकड़ रखा था जरा सा दबा कर मुझे एहसास दिलाया कि मेरी अकेले भागने की और गुम कर सब को परेशान करने की मंशा पूरी होने वाली नहीं है। ‘‘ कहाँ जाबे अगुआ के? संगे संग रें!‘’ उन्होंने आँखें तरेर कर कहा। माता के दिव्य विग्रह के सामने जाते ही मैं अपनी सुध-बुध खो बैठी, ’’हे जगत् जननी जैसे जड़बुद्धि कालीदास को जगत् प्रसिद्ध विद्वान बना दिया वैसे ही मुझ अज्ञानी स्त्री का भी कल्याण करो! माँ संसार में सम्मान से जीने लायक तो तुमने मुझे बनाया लेकिन मैं सारी दुनिया के लिए कुछ कर सकूँ, ऐसी क्षमता भी दे दो माँ! मेरे जीवन पर जो ऋषि ऋण का बोझ चढ़ा हुआ है उसे उतारने लायक तो बना दो मुझे! मैं अपने पाठकों के लिए कुछ अद्भुत् रचना चाहती हूँ1’’ आगे बढने का संकेत पाकर मैंने आँखें खोली। सर्व सिंगारित जिह्वा निष्कासित किये भक्तों की रक्षा करने वाली कालिका माँ, जिनका यश आदि काल से ही गाया जाता रहा है,उनका दर्शन पूर्व जन्म के सत्कर्मां के फलस्वरूप प्राप्त हुआ था। हृदय प्रेम और रोमांच से भरा हुआ था। कालिका माँ की एक ओर श्रीमहालक्ष्मी ओर दूसरी ओर श्रीमहासरस्वती की प्रतिमाएं विराजित हैं। मैंने उन्हें प्रणाम किया और मंदिर की परिक्रमा करने लगी। देवकी दीदी ,तिवारी जी, पटेल जी मेरे आगे और शेष पीछे थे। मंदिर के पीछे गणेश जी की पौराणिक प्रतिमा के दर्शन हुए इनके पास ही श्री विष्णु भगवान की प्रतिमा विराजित है। पता चला कि कुछ ही दूरी पर क्षिप्रा के किनारे सतियों का स्थान हैं , पास ही ओखर श्मशान होने की जानकारी भी मिली। । मैंने देखा कि सभी साथी दर्शन करके बस की ओर जा रहे हैं, बस वाला हॉर्न दे रहा था, अतः माँ की मूरत मन में बसाये मैं भी बाहर आ गई ।
पहले मैने देवकी दीदी को बस में चढने में मदद की, फिर स्वयं चढ़ कर उनकी बगल में बैठ गई। अबकी बार हमारी बस इतिहास प्रसिद्ध वैरागी राजा भर्तृहरि की गुफा के पास आकर रुकी। मैंने हाथ में केमरा रख लिया था, यू ंतो यथेच्छ फोटोग्राफी नहीं हो पा रही थी क्योंकि अधिकांश दर्शनीय स्थानों पर ‘फोटो खिंचना मना है’ कि इबारत पढ़ने के लिए मिल रही थी। यह वही स्थान है जहाँ राज्य त्यागने के पश्चात् महाराज भतृहरि ने नाथ पंथ में दीक्षा ले ली थी। बलवान्, रूपवान् प्रतापी राजा जिसके आगे दुश्मन के पैर उखड़ते देर नहीं लगती थी प्रेमरोग का शिकार हो कर जोगी बन गया। प्रेम भी परकीया का नहीं, स्वकीया का उसे घायल कर गया। अद्वितीय सुन्दरी तीसरी रानी पिंगला उनके रोग की दवा थीं। एक समय गुरूगोरखनाथ ने राजा को एक ऐसा फल दिया जिसे खाने वाला अक्षत यौवन हो जाता। राजा ने सोचा ’’अच्छा हो इसे पिंगला रानी खाये ताकि इसी प्रकार युवती रह कर उनकी कामना पूर्ति करती रहे।’’ ऐसा सोच कर राजा ने वह फल रानी को भेंट किया। रानी शहर कोतवाल पर मुग्ध थी उसने अपने प्रेमी के यौवन की कामना से वह फल उसे दे दिया। शहर कोतवाल एक वेश्या के प्रेम जाल में फंसा हुआ था। उसने वह फल अपनी प्रिया को दे दिया। वेश्या ने सोचा क्या करूंगी सदा जवान् रह कर? जाने अनजाने लोग नोचते-खसोटते रहेंगे, अवंति का राजा बहुत ही धर्मप्रिय और प्रजा पालक है यह फल उसे ही खाना चाहिए, वह चिर युवा रहेगा तो अधिक दिनों तक प्रजा पालन करेगा।’’ उसने राजदरबार में जाकर वह फल सादर राजा को भेंट का दिया । फल को पहचान कर राजा अचम्भे में पड़ गये। सत्य का ज्ञान होने पर उनका मन संसार से विरक्त हो गया। उन्होंने राज्य अपने छोटे भाई विक्रमादित्य को सौंपा और स्वयं नाथपंथी जोगी बन गये । उन्हांने क्षिप्रा के पुनीत तट पर अपने गुरू गोरख नाथ के साथ तप किया। उनके प्रसिद्ध ग्रन्थ श्रृंगार शतक,नीति शतक और वैराग्य शतक हैं इन्हे पढ़कर उनकी विद्वता का परिचय प्राप्त होता है।
हम गुफा के संकरे मार्ग से आगे बढ़े, आगे यह एक कक्ष की तरह है। गुफा में उस समय धूल जमी थी, लगा जैसे गुफा की झाड़ बुहार नियमित नहीं हो रही है। यह प्राचीन गुफा बौद्ध एवं परमार कालीन स्थापत्य कला की रचना जान पड़ी। दक्षिणी भाग में गोपीचंद की मूर्ति ह,ै राजयोगी भर्तृहरि की धूनी के ऊपर शिला पर हाथ के पंजे का निशान है। कहते हैं भर्तृहरि के तप से डर इन्द्र ने उनका तप भंग करने के लिए शिला फेंकी, उन्होंने हाथ बढ़ा कर उसे बीच में ही रोक दिया। उन्हीं के हाथ का निशान शिला पर अंकित है।
गुफा के अन्दर से ही चारों धाम जाने का रास्ता बताया जाता है जो अब बंद कर दिया गया है। इस गुफा को देखते हुए हम बाहर आ गये। यहाँ हमें नाथ पंथी साधुओं के दर्शन हुए , पता चला की गुफा की देख-रेख की जिम्मेदारी इन्हीं के हाथ में है। यहाँ ण्क समृद्ध गोशाला है एक ओर दर्शनीय गायें बंधी हुई थी हरा चारा भी बिक रहा था हमने गायों को चारा खिलाया।
पास में ही ऋण मुक्तेश्वर महादेव हैं, जिस बट वृक्ष के नीचे सत्यवादी हरिश्चन्द्र ने महर्षि विशामित्र को दक्षिणा देकर ऋण से मुक्ति पाई थी वहीं ंएक शिवलिंग की स्थापना की थी। इनका दर्शन पूजन करने से मनुष्य कर्ज से मुक्त हो जाते हैं ।
बस ड्राइवर हॉर्न बजाने लगा था अतः हमने अपना स्थान ग्रहण किया।
अब हमारी बस सिद्धबट मंदिर के पास जा कर रुकी । हम भैरवगढ़ क्षेत्र मे थे। इस भव्य मंदिर से लगा हुआ प्रचीन सि़द्धबट है, गया के अक्षयबट और प्रयाग के अक्षयबट की भाँति इसका भी महत्त्व है। स्कंदपुराण के अनुसार देव सेनापति कार्तिकेय जी ने तारकासुर का वध करने के बाद अपनी शक्ति यहीं से क्षिप्रा में फेंकी थी जो पाताल चली गई थी । माता पार्वती ने इसी बटवृक्ष के नीचे अपने विजयी पुत्र को भोजन कराया था। देवाधिदेव ने बटवृक्ष को आशीर्वाद दिया कि ’‘तुम संसार में कल्पवृक्ष के रूप में जाने जाओगे।‘’ मंदिर के विशाल सभा गृह को पार कर हम लोग मंदिर में स्थित पातालेश्वर महादेव के दर्शन करने लगे। यहाँ शिवलिंग जलहरी के नीचे है जबकि हर जगह शिवलिंग जलहरी पर ही स्थित होता है । कहते हैं जैसे-जैसे धरती पर पाप बढ़ता है यह और धसता जाता है। क्षिप्रा तट पर स्थित इस मंदिर तक जाने के लिए पक्के घाट बने हुए हैं। मुगल शासकों ने जनआस्था के केन्द्र इस वृक्ष को कटवा कर लोहे के तवे से मढ़वा दिया था किन्तु लोहे को भेद कर यह पुनः हरा-भरा हो गया। यहाँ कई लोग नाग बलि, श्राद्ध आदि कर रहे थे। बटवृक्ष के हरे-हरे सुकोमल पत्ते हवा में डोल कर क्षिप्रा की ओर से आने वाली शीतल वायु को स्वेदस्नात् जन तक पहुँचा रहे थे। हम लोग थोड़ी देर के लिए सभा गृह में प्रवेश कराने वाली सीढ़ियों पर बैठ कर इस शांत वातावरण का आनंद लेते रहे।
मेरी नजर बटवृक्ष की शाखाओं पर जमी थी। सम्राट विक्रमादित्य ने इसी पेड़ के नीचे साधना करके अगिया बेताल को अपने वश में किया था। विक्रम बेताल सीरियल में बेताल बार-बार जिस पेड़ की डाल पर उल्टा लटकता है वह यही है। मुझे यह सोच कर रोमांच हो आया कि कैसे विक्रम रात के अंधेरे में बेताल की साधना करते होंगे। निश्चय ही तब यह स्थान जनशून्य रहा होगा। हमने यहाँ फोटो ग्राफी की। अभी और कई स्थानों पर हमे दर्शन करने जाना था अतः आकर बस में सब अपनी-अपनी जगह पर बैठ गये।
महाकाल मंदिर से लगभग पाँच किलो मीटर पर इतिहास प्रसिद्ध लगभग छःहजार वर्ष पुराना तांत्रिक काल भैरव मंदिर है। यह अपनी तरह का एक ही है। माला,फूल, प्रसाद,आदि की सजी-धजी दुकानों के बीच मुझे कुछ दूसरे प्रकार की दूकाने भी नजर आईं, यहाँ बड़ी भीड़ थी। त्रिपाठीजी, पटेल जी आदि प्रसाद की टोकरी लेने जा रहे थे। मैंने उनसे कह दिया कि मैं भैरव बाबा को मदिरा नहीं चढ़ाऊंगी। मेरे लिए नारियल लाची दाना बस ले आना । मुझे पहले से पता था कि यहाँ की भैरव प्रतिमा मदिरा पान करती है। मुझे महाप्रभु शिव जो यहाँ अपनी नगरी की रक्षा के लिए काल भैरव के रूप में विराजित हैं उनका मदिरा पान करना उचित नहीं लगा। आज देश की पीढी युवा बुरी तरह नशे की चपेट में हैं, उनके सामने उदाहरण है जब भगवान् पीते हैं तो प्रसाद पर तो भक्तों का हक है ही। उन्हे कौन समझाये कि भोलेनाथ मदिरा पीकर मनुष्य को इस विष से बचाना चाहते हैं, साधरण जन के हित में इसका सेवन है ही नहीं । मैं उनके अद्भुत्रूप को आँखों के द्वारा हृदय में बसा रही थी । पटेल जी नहीं माने मेरे लिए भी मदिरा का चढ़वा लेते आये । हम एक-एक कर के अपनी पूजा की टोकरी पुजारी की ओर बढ़ाते जा रहे थे। वे कालभैरव की प्रतिमा पर मंत्र के साथ नारियल,फूल लाची दाना चढ़ाते फिर मदिरा की शीशी का ढक्कन खोल कर एक प्लेट में थोड़ी सी मदिरा डालते , उसके बाद प्रतिमा के होठों से लगा देते ,पल मात्र में प्लेट साफ हो जाती। शेष मदिरा शीशी सहित एक ओर रख दी जाती ,शायद पुनः दुकान पहुँचे के लिए। जैसे चढ़ा हुआ नारियल बार-बार दुकान जाता और मंदिर आता है वैसे ही । कुछ पल रोजगार के इस तरीके को पहचानती रही फिर सोचा कालभैरव जैसे जिसका पालन करें! और लोग भी लाइन में लगे थे इसलिए हम लोग लाइन से वापस आने लगे। मन में विचार उमड़-घुमड़ रहे थे। देवता को इस गर्हित वस्तु का प्रसाद चढ़ाने की परंपरा कैसे विकसित हो गई होगी? वैसे मैंने वामपंथ के बारे में पढ़ा है, उस साधना पद्धति में मांस,मदिरा, मैथुन, की प्रधानता होती थी, साधक इनका सेवन करते हुए त्रिपुर सुंदरी के ध्यान में रहता था। यह बड़ी कठिन साधना पद्धति है। बड़े -बड़े महान् योगी जिनका पूरा जीवन मन को जीतने में व्यतीत हो जाता था, वे ऐसी साधना करते थे। आम जन के लिए तो मंदिर में प्रवेश भी वर्जित था। बाद में जब यह साधना पद्धति इतिहास की बात हो गई तब यहाँ आम जन का आना प्रारंभ हुआ, मदिरापान की परंपरा कायम रह गई । खैर अपनी महिमा आप जानों हे अविनाशी, तुम्हारी इस पुत्री के कुछ समझ तो है, अनाप-शनाप सोचे जाती है।
हम लोग पुनः अपनी बस में थे। सब गंभीर थे। शायद थक चले अब हमारी बस पुराण प्रसिद्ध सांदिपनी आश्रम पर आकर रुकी। आश्रम में प्रवेश करते ही सघन हरितिमा ने हमारा स्वागत किया। फूलों की क्यारियों में खिले फूल सहज ही मन में प्रसन्नता का संचार करने लगे। परिसर में हरित दुर्वा मन को विश्राम के लिए उकसाने लगी।
यहाँ आकर मन में एक बड़प्पन की भावना आ गई ’’ हम वहाँ थे जहाँ जगत्गुरू भगवान् श्री कृष्ण ने भाई बलराम तथा सखा सुदामा के साथ साधारण बालक की भाँति गुरू सांदिपनी से शिक्षा प्राप्त की। अन्दर प्रविष्ठ होकर हम आश्रम की शोभा निरखने लगे।
मंदिर के सभागार से होते हुए हम एक अन्य मंदिर में पहुँचे जहाँ श्री कृष्ण, बलराम और सुदामा की मूर्तियाँ स्थापित हैं। श्वेत संगमरमर की दुग्ध धवल मूर्तियाँ, पारंपरिक वेश-भूषा में सुसज्जित विराज रहीं हैं ’’इतने ही सुन्दर थे मोहन ?’’ मैंने मन ही मन प्रश्न किया। ’’ इससे करोड़ो गुना अधिक सुन्दर होगे मोहन , यह तो एक मनुष्य की कल्पना है तुम तक भला कोई पहुँच पाया है तुम्हारी मर्जी के बिना?’’ मेरे मन ने मुझे उत्तर दिया। इस मंदिर के सामने ही महर्षि सांदिपनी का तप स्थल है। एक बड़ा यज्ञ कुंड बना हुआ। परिसर में महाकाय वृक्ष से लेकर नन्हें तृण तक को लगे देख मन को बहुत अच्छा लगा था। एक अन्य मंदिर में भगवान् श्रीकृष्ण चरित्र के चित्र बने हुए हैं जिन्हें देख कर हमारा मन द्वापर युग में रमण करने लगा। एक जगह एक से लेकर सौ तक गिनती लिखी हुइ्र है एक शिला पर, कहते हैं ये अंक महर्षि सांदिपनी के हाथ के लिखे हुए हैं। एक जगह प्रसाद के रूप में बीस-बीस रूपये का एक चूर्ण मिल रहा था। हम सभी ने एक-एक पैकेट खरीद लिया। वह बेहद स्वादिष्ट भूने हुए धनिये और शक्कर का चूर्ण था। ( स्वर्गीया माता जन्माष्टमी पर ऐसा प्रसाद बनाया करती थीं, उनकी याद मन में उनके होने का अहसास जगा गई।
हमने यहाँ की पवित्र वायु में साँस लेकर अपना जीवन धन्य किया। गद्दी पर दो स्थूल काय त्रिपुण्डधारी आचार्य विराजित थे। यहाँ अब भी विद्यार्थियों को ज्योतिष की शिक्षा दी जाती है। महर्षि सांदिपनी के वंशज अब भी उज्जैन में हैं वे विधिवत् ज्योतिष विज्ञान का अध्यापन कर इस प्रचीन विद्या की ज्योति जलाये हुए हैं । भगवान् श्री कृष्ण ने चौदह विद्याएं और चौंसठ कलाओं की शिक्षा यहीं प्राप्त की। यह ीवह आश्रम है जिसने कान्हा को योगेश्वर श्री कृष्ण बनाया। स्लेट पर लिखे अक्षर धोकर मिटाते थे इसलिए यह क्षे़त्र अंकपात् पड़ा । यहाँ पास में ही गोमती कुंड है कहते हैं गुरू जी के नहाने के लिए कृष्ण जी ने सभी पवित्र जल स्रोतो को इस कुंड की आर मोड़ दिया।संभवतः इसमें गोमती का पवित्र जल भी मिलाया हो जिससे इसका नाम गोमती कुंड पड़ गया हो। । महान् श्रीकृष्ण भक्त श्री अल्लभाचार्य ने सन् 1546 में यहाँ श्रीमद्भागवत का पारायण किया था। उनकी तिहत्तरवीं बैठक भी यहाँ है। इसी क्षेत्र में सिंहस्थ मेला लगता है। पुराताविक उत्खनन में इस क्षेत्र में चार हजार वर्ष पूर्व के पाषाण अवशेष मिले हैं । आश्रम में स्वच्छता और सुव्यवस्था दर्शनीय थी। वहाँ लगी प्रतिमाओं के नीचे लिखी इबारतें पढ़ते हुए हम लोग दर्शन करते रहे । हमारे यहाँ के मेरे हितैषी सच्चिदानंद शास्त्री ने मुझसे कहा था कि ’’जहाँ -जहाँ जाना मेरे नाम से एक सौ एक रूपये की रसीद अवश्य कटवाती जाना’,’ सो मैंने गद्दी पर बैठे आचार्य जी से रसीद काटने का निवेदन किया।
हम लोगों को बाहर-बाहर घूमते बहुत समय हो चुका था महिलाओं को प्रसाधन की आवश्यकता थी अतः वहाँ काम करने वाली एक दुबली पतली युवती से हमने प्रसाधन का ठौर पूछा, उसके बताये अनुसार जाकर हम लोग एक बार पुनः तरोताजा हो गये। शर्मा जी तिवारी जी दर्शन करके बाहर निकल गये थे। हम लोग भी आकर बस में बैठ गये।
मंगल नाथ दर्शन
बस इसके बाद हमारी उज्जैन के प्रसिद्ध दार्शनिक स्थल मंगलनाथ की ओर चल पड़ी। मैं बस की खिड़की से अवंति की सुंदरता का दर्शन करने लगी। फोरलेन सड़कें, जिन पर खोजने से भी कचरे का एक टुकड़ा न दिखे, सड़क की दोनों ओर सजी भाँति-भाँति की दुकाने, थोड़ी-थोड़ी दूर पर हाथ बढ़़ाकर आकाश को छूने की कोशिश करते मंदिरों के घ्वज, सामान खरीदते ग्राहक और सबसे अधिक वहाँ की ट्रेफिक व्यवस्था मुझे बहुत अच्छी लगी। मैंने बस में बैठे-बैठे ही लाल रंग का एक भव्य प्रवेश द्वार देखा । उसकी ऊँचाई नहीं नहीं में भी पच्चीस फुट से कम क्या होगी ? सबसे ऊपर कंगूरे बने हुए है,दोनों पार्श्व में ऊँचाई कम करके उसके ऊपरी भाग पर नंदी युगल बैठाये गये हैं, दरवाजे के तीन विभाग हैं, बीच वाला इतना चौड़ा है कि ट्रक जैसा बडा वाहन भी असानी से प्रविष्ठ हो सकता है, बगल के दरवाजे कम चौड़े हैं उस समय तो सभी खुले हुए थे। यहाँ भीड़ अपेक्षा कृत अधिक थी। नौ ग्रहों में एक ग्रह मंगल पृथ्वी के पुत्र हैं, इनका रंग लाल है जो उत्साह और उमंग का प्रतीक है। जीवन के लिए आवश्यक रक्त का रंग भी लाल होता है। इनके नाम पर ही सप्ताह के दूसरे दिन का नाम मंगलवार है। मंदिर में मंगलवार को भात पूजा होती है इसमें बड़ी संख्या में श्रद्धालू भाग लेते हैं मंगला-मंगली जिनका विवाह मंगल के प्रभाव से नहीं लग पाता उनका मंगल यहाँ शांत कराया जाता है। यह सिंधिया राज परिवार द्वारा बनाया मंदिर है।
हम लोग छोटे द्वार से अन्दर प्रविष्ठ हुए और अपने आगे चल रही भीड़ के पीछे लाइन में लग गये। सीढ़ियों से चढ़ कर हम मुख्य मंदिर में प्रविष्ठ हुए। मंगलकारी मंगलनाथ के दर्शन कर के मन हर्ष विभोर हो गया। लाल रंग का विग्रह, लाल रंग के चोले से सजे हुए वे अपने भक्तों को अभयदान दे रहे थे। अपने साथ लाई गई पूजा की थाली हमने वहाँ उपस्थित पुजारी जी को थमा दिया। उन्होंने थोड़ा सा प्रसाद दिया और थाली वहीं रख ली पता चला कि दुकानदार को थाली पहुँचा दी जाती है। आधुनिक ढंग से बने प्रांगण में यात्रियों की सुविधा के लिए स्वच्छ जल की व्यवस्था की गई है। भात पूजा के समय समस्त उपस्थित जन प्रसाद पाते हैं । मैंने ध्यान दिया था कि पूजा की थाल में मसूर की दाल और चावल भी रहता है। मंदिर एक ऊँचे टीले पर बना है, मंदिर के प्रांगण में ही पृथ्वीदेवी की प्राचीन प्रतिमा प्रतिष्ठित हैं, शक्ति स्वरूपा होने के कारण उन्हें सिंदूर का चोला चढ़ाया जाता है। हमारे पास ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी इसलिए हमने श्रद्धापूर्वक प्रणाम करके संतोष किया। आगे थोड़ी ही दूर पर गंगा घाट है। मान्यता है कि श्रीकृष्ण भगवान् ने अपने गुरू के स्नान के लिए यहाँ गंगा जी को प्रकट किया था। मंदिर के गुंबद, यात्रियों का विश्राम स्थल, रसीद कटने का स्थान, परिसर में लगे पेड़-पौधों को देखते हुए हम लोग अपनी गाड़ी के पास आ गये। बस भीड़ भरे रास्तों को पार कर हमें महाकाल मंदिर के पास तक लाकर छोड़ गई । शाम हो चुकी थी। महाकाल मंदिर की बत्तियाँ जल चुकी थींं। त्रिपाठी जी के पीछे-पीछे हमने एक बार पुनः महाकाल के दर्शन किये । हम लोग अपने जाने पहचाने रास्ते से श्री कृष्ण यात्री गृह आ गये । सभी थके हुए थे किसी की हिम्मत भोजन करने जाने की नहीं थी, अपने साथ लाये गये नास्ते से काम चलाया गया। मेरे पास तो कुछ विशेष नहीं था देवकी दीदी ने अपने साथ मेरे लिए भी व्यवस्था की। मेरा सोने का स्थान प्रभा दीदी की बगल में था। मुझे थकान से कराहते देख कर उन्होंने मेरी ओर देखा ’’ आज कइसे नी गवांये मेडम?’’ वे मुस्कराते हुए पूछ रहीं थीं । हर समय उन्होने मुझे पकड़ रखा था वे याद दिला रहीं थीं। कमर में बंधा पट्टा उतार कर मैं वॉशरूम चली गई ,हाथ -पैर धोने के बाद थोड़ा अच्छा लगा।
त्रिपाठी जी आकर बता गये थे कि एक बजे तक हर हाल में यहाँ से निकल जाना है,तब कहीं जल चढ़ने की संभावना बनेगी। ।
हम में से सभी सतर्क थे। जल्दी उठ कर नहाना धोना तैयार होना फिर महाकाल की भस्म आरती के दर्शन करके नेत्र सफल करना था। दवाई खाकर मैंने आखें मूंद ली।
ग्यारह बजे से बहनो ने स्नान प्रारंभ कर दिया। मैंने बारह बजे के लगभग स्नान करके औषधि ली क्योंकि मेरी कमर में दर्द होने लगा था । बैग में आवश्यक सामान रखा और निकलने के लिए तैयार हेकर फिर से पलंग पर लेट गई, वैसे सच पूछें तो नींद आई ही कहाँ थी। शिव दर्शन की लगन जो लगी थी।
क्रमश: अगले भाग में यायावर मन अकुलाया-4 (यात्रा संस्मरण)
-तुलसी देवी तिवारी