यायावर मन अकुलाया-4 (यात्रा संस्‍मरण)-तुलसी देवी तिवारी

यायावर मन अकुलाया (द्वारिकाधीश की यात्रा)

भाग-4 महाकाल दर्शन (उज्‍जैन)

-तुलसी देवी तिवारी

गतांक यायावर मन अकुलाया-3 (यात्रा संस्‍मरण) से आगे महाकाल दर्शन

यायावर मन अकुलाया-4  महाकाल दर्शन
यायावर मन अकुलाया-4 महाकाल दर्शन

महाकाल की भस्‍म आरती-

अगले दिन (12/10/16) हम लोगों को निकलते निकलते दो बज गये,लिफ्ट से जब हम लोग नीचे आये तो देखा कि हमारे कुछ साथी हमारा इंतजार कर रहे हैं। मैंने देवकी दीदी का हाथ पकड़ा और हम लोग अपने परिचित रास्ते से मंदिर के लिए निकल पड़े। सड़क पर आवाजांही लगी हुई थी, लग नहीं रहा था कि हम मध्य निशा में घर से बाहर घूम रहे हैं । सीढ़ी के पास पर्याप्त उजाला था। भिक्षुक सीढ़ी के पास ही अपने मैले से कपड़े का टुकड़ा बिछा कर सो रहे थे। दीदी सीढ़ी की दीवार के सहारे ऊपर चढ़ने लगीं, मैं भी उनके पीछे-’पीछे चढ़ने लगी। मंदिर के आस-पास पूजन सामग्री की दुकाने खुल गई थीं, भाई लोग सबके लिए पूजन सामग्री कल वाली लड़की की दुकान से ले आये। हमने अपने जूते चप्पल एक थैले में रख कर वहाँ रखने के लिए दे दिया था । प्रवेशद्वार से बहुत दूर तक लाइन लग चुकी थी। हम लोग भी लाइन में लग गये, मेरे पीछे प्रभा दीदी थीं ।’’देख एति-तेति झन जाबे नऽ तोर नांव लेके सबे झन परेसान होथें।’’ वे मुझे सावधान कर रहीं थीं। मैं क्या कहती मैंने सताया था सब को ।

सीढ़ी चढ़कर हम आगे उतरे और उस दरवाजे पर पहुँचे जिसके अन्दर विशालतम कक्ष था जिसके अगले हिस्से में देवाधिदेव अपनी समस्त विभूतियों के साथ विराज रहे थे। हमारे हाथें में जो पूजन सामग्री की डलिया थी उसमें तांबे के लोटे में जल था जिसे हम महादेव को अर्पित करने के अभिलाषी थे। । हॉल खचाखच भर चुका था। जल लेना बंद हो चुका था। सरकते सरकते हम लोग अंतिम लाइन से दो तीन लाइन आगे जाने में कामयाब हो गये। हॉल की छत मोटे-मोटे खंभो पर टिकी है एक खंभे के पास मुझे जगह मिल गई त्रिपाठी जी, देवकी दीदी, पटेल जी, प्रभा दीदी, आदि सब पास-पास ही खड़े थे। गर्भ गृह के अंदर भस्म आरती की तैयारियाँ चल रहीं थीं।

दूर से सही हमें सारे क्रियाकलाप दृष्टिगोचर हो रहे थे। कमर में धोती बांधे पुजारियों ने पहले दूध, दही, मधुपर्क, खांण, शुद्धोदक से मल-मल कर उन्हे स्नान कराया तत्पश्चात् जिन श्रद्धालुओं को आगे की दीर्घा में प्रवेश मिल गया था उन लोगो ने अपने हाथ से महाकाल को जल अपर्ण करने का सौभाग्य प्राप्त किया। फिर नवीन वस्त्र से शिव लिंग पोंछ कर चंदन से शिवजी का मुखमंडल उकेरा गया। सबसे ऊपर गेंदे की मालाएं गोल करे इस प्रकार शिवलिंग पर सजाई गईं कि बाद में वह उनकी जटा का स्पष्ट आभास देने लगीं। जटा के जूड़े पर रुद्राक्ष, बेलपत्र गेंदे की माला पहनाकर पिता के मुखमंडल को एक वस्त्र से ढक दिया गया, उसके बाद भस्म की बड़ी सी गठरी को हिला-हिला कर पिता के भौतिक कलेवर पर डाला जाने लगा। भस्म के कण उड़कर गर्भगृह में धूंध का निर्माण करने लगे थे। भस्म की पोटली में जब कपड़े से झरने योग्य कुछ न रह गया तब मुखमंडल से कपड़ा हटा दिया गया।

एक मनोहारी छवि हमारे सम्मुख थी। उन्हें नीला बहुमूल्य वस्त्र ओढ़ा दिया गया। चांदी की कटोरी में भोग सजा दिया गया, विविध पूजन सामग्री जिन्हें हम देख नहीं पा रहे थे बाबा को अर्पित की गईं सामने ही घी के बहुत सारे दीपक जल रहे थे। मैं मंत्रमुग्ध सी पिता के अद्भुत् सिंगार के दर्शन कर रही थी, मेरी जन्मजमान्तर की साध पूरी हो रही थी। न मैं उनके नाम का जप कर पा रही थी न ही कोई अर्ज सुना पा रही थी। आनंदातिरेक में जब आँखें बंद हो जातीं तब बलपूर्वक उन्हें खोल कर पुनः उनकी छवि निहारने लगती। मेरे पीछे के दर्शक ओम् नमः शिवाय का मध्यम स्वर में गान करने लगे मैंने भी स्वर मिला दिया उनसे । महाकाल के दरबार में न कोई अपना था न ही पराया, सब कुछ आत्मवत् प्रतीत हो रहा था। जय महाकाल की ध्वनि लगातार उठ रही थी। लगातार नमः शिवाय ओम् नमः शिवाय, हर-हर भोले नमः शिवाय का गायन हो रहा था।

आरती समाप्त हुई, सब लोग अपने अपने स्थान से उठ खड़े हुए और सरकते हुए गर्भगृह की ओर जाने लगे। मेरी स्थिति अब भी वैसी ही थी। त्रिपाठी जी मेरे पास ही थे, प्रभा दीदी का ध्यान भी मेरी तरफ ही था। धीरे-धीरे हम लोग गर्भगृह के दाहिने कोने तक पहुँचे, वहीं से पूजन सामग्री और जल पुजारी के हाथ में दे दिया गया। जिसे उन्होंने हमारे सामने ही महाकाल को अर्पित कर दिया। हम लोग निकास मार्ग से बाहर आ गये।

ओंकारेश्‍वर महादेव दर्शन-

चमत्कृत से, भोलेनाथ का महाकाल रूप अभी भी आँखों के आगे नाच रहा था। अन्य साथियों की प्रतीक्षा करते हुए हम लोग परिसर में स्थित अन्य देवी देवताओं के दर्शन-पूजन करने लगे। ओंकारेश्वर मंदिर में भी भीड़ थी, महाकाल के दर्शनार्थी वहाँ से निकल कर यहाँ प्रवेश कर रहे थे। लगातार चढ़ते जल, स्वच्छता के लिए की जा रही धुलाई के कारण पैर पानी में भींग रहे थे। फिसलकर गिरने का भय था। भीड़ को व्सवस्थित करने के लिए खड़े वर्दीधारी, लोगों को लाइन से अन्दर भेज रहे थे। यहाँ परमेश्वर को स्पर्श करने का अवसर मुझे भी मिल गया। मेरा काम बहुत धीरे हो रहा था इसलिए सभी साथी बाहर निकल कर खड़े हो गये तब तक मैं जगत् पिता के पास ही रुकी हुई थी । एक महिला स्वर्ण सदृश्य मोहरें बेच रही थी 151/ मे एक के हिसाब से , मैं उसकी पकड़ में आ गई ।

’’ बहुत अच्छा है बाबा का प्रसाद है, ले जाकर तिजोरी में रख देना सदा भरी रहेगी। दोस्तों को गिफ्ट देने के लिए शानदार चीज! कितने दे दूं बीस या पच्चीस?’’ उसने अति आत्मविश्वास से पूछा।

’’ अरे नहीं इतने क्या करुंगी? सौ रूपये का एक लगाओ! इतने महंगे नहीं लूंगी!’’ मैने अरुचि जताई।
’’ ठीक है निकाल देती हूँ।’’

’’चलो तीन दे दो।’’ मैंने अपने पुत्रों की तिजोरी में रखने के लिए महाकाल के चित्र वाली मोहरों को पसंद करके ले लिया। अब ये बात और है कि बाहर में वे ही मोहरे 10-ः10 रूपये में मिल रहीं थीं। परिसर में देवी माँ के मंदिर के सामने एक पुजारी जी बैठे हुए थे, वे रक्षा सूत्र का आधुनिक संस्करण लिए बैठे थे। वह लाल पीला नायलोन का मलबूत धागा था। जिसे कलाई में कई परत लपेट कर वे फेवीक्विक से चिपकाते जा रहे थे उनकी त्वरा के आगे किसी को अवसर ही कहाँ मिल रहा था कि कुछ समझे।

अभी तक सूर्योदय नहीं हुआ था, लेकिन उजाला हो चुका था । अन्य देवी देवताओं के दर्शन करते हम लोग मंदिर से बाहर आ कर अपने अपने जूते चप्पल लेने चल पड़े। दुकान वाली लड़की बेहद व्यस्त थी। हमने हिसाब करके उसे रूपये दिये। वहीं सड़क की उस ओर बहुत सारे होटल थे, हम लोग चाय नाश्ते की टोह में उस ओर निकल गये। मन में महाकाल के दर्शन पा लेने की तसल्ली थी। यहाँ तो मुझे दिन रात में कोई फर्क ही नहीं जान पड़ा। मैंने फूल की दुकान वाली लड़की से पूछा था कि आप लोग सोते कब है तब वह हँस कर बोली थी ’’ बस लगे रहते हैं बाबा की सेवा में।’’ वह जरा सा मुस्कराई थी।

मैं होटल के दरवाजे के पास ही एक टेबल पर बैठ कर कॉफी की चुस्कियाँ ले रही थी। सामने ही मंदिर का पृष्ठ भाग वाला दरवाजा दिखाई दे रहा था। कई फुटकर दुकानदार खाट या तख्त पर फूल माला नारियल मौली धागा इलायचीदाना आदि की दुकाने लगाये हुए थे, इस समय वहाँ खासी भीड़ थी। एक बूढ़ी सी नाटी सी औरत जिसके चेहरे पर झुर्रियों के जाल पसरे हुए थे , जिसने सफेद रंग की मैली सी साड़ी पहन रखी थी, होटल के दाईं ओर एक खाट पर दुकान लगाये सामान बेच रही थी। इसी बीच एक लंबा-चौड़ा सा प्रौढ़ व्यक्ति हीरो होन्डा पर आया और उसकी दुकान के पास गाड़ी खड़ी करके कहीं जाने के लिए जैसे ही कदम बढ़या कि औरत दहाड़ उठी-’’ कौन है रेऽ…ऽ? किसने गाड़ी खड़ी की यहाँ? हटाओ! हटाओ यहाँ से, दुकानदारी का बखत है’’वह लंबे कदम बड़ा कर गाड़ी वाले के पास तक पहुँच गई। गुस्से से उसका अंग प्रत्यंग फड़क रहा था।
’’ बस अभी पाँच मिनट में आता हूँ!’’ वह हड़बड़ाया सा बोल पड़ा।

’’एक मिन्ट भी नहीं रखने दूंगी , तुरंत हटाओ नहींं तो टंकी में चीनी डाल दूंगी!’’ वह अपनी ताकत भर चिल्ला रही थी अब गाड़ी वाला भी थोड़ा गरम हुआ ’’ नहीं हटाऊंगा तेरी जगह है क्या ? सरकारी जमीन पर कब्जा जमाये बैठी है गाड़ी कहाँ रखे आदमी? वह आगे बढ़ते हुए बोला।

’’ तेरे बाप की है जमीन जिस पर कब्जा हो गया है , तो हटा दे, नहींं तो उठा यहाँ से गाड़ी…..ई…ई…! ’’ वह उसका पीछा करती रही ।

’’बाप तक जाती है? तू जानती नहीं मैं कौन हूँ?’’ गाड़ीवाला अपने को लड़ने की स्थिति में नहीं पा रहा था, शायद बहुत जल्दी बाजी में था।

’’ जानती हूँ ,जानती हूँ, तेरी सात पुस्तों को जानती हूँ, दो टके का टीना टप्पर ले लिया तो बहुत रुतबा हो गया तेरा।’’

औरत के साथ एक जवान भी था उसकी दुकान पर, शायद उसका बेटा हो, वह इस झगड़े से निर्लिप्त सामान दे रहा था ग्राहकों को।

’’ हटा लो भाई इधर खड़ी कर दो ! पुलिस वालों को पैसा देती है न इसीलिए इतना हक जता रही है ।’’ होटल वाले ने बीच-बचाव किया, गाड़ी होटल के सामने खड़ी करके वह आदमी फनफनता हुआ चला गया । औरत पैनी नजरों से इधर-उधर देखती ग्राहकों को बुलाने लगी। मैं तो उसकी आवाज सुनकर, उसकी हिम्मत देखकर विस्मित सी उसे देखे जा रह गई ।

अभी नाश्ते का दौर समाप्त ही हुआ था कि सड़क पर प्राइवेट बसें आ-आ कर रुकने लगीं। त्रिपाठी जी ने बातचीत की और सबकी राय से ओंकारेश्वर जाने के लिए बस तय कर ली । हम लोग उसी बस में बैठ कर कृष्णा यात्री निवास आये, अपना-अपना सामान उठाया। त्रिपाठी जी ने हिसाब करके बिल अदा किया और हम लोगों ने महाकाल की नगरी को प्रणाम कर इंदौर का रुख किया। उज्जैन शहर की सीमा पर स्थित एक होटल में हम लोग भारी नाश्ता करने लगे क्योंकि दोपहर को भोजन के चक्कर में पड़ने का विचार नहीं था । मुझे तो बस देखते ही उल्टी आने लगती है वैसे मैंने एवोमीन टेबलेट ले लिया था। फिर भी कुछ भी खाने से परहेज किया । यहाँ से निकलते-निकलते हमें लगभग ग्यारह बज गये।

हमारी बस आगे बढ़ी । गाँव शहर पीछे छुटते गये, सड़क चौड़ी और एकदम शानदार है, एक नाके पर बस को रुकने का संकेत किया नाके के ठेकेदार ने, हमारी बस धीमी हो गई, बस का कंडक्टर हाथ दिखाता आगे बढ़ने का संकेत कर रहा था इतने में नाके पर तैनात दो आदमी दौड़कर बस पर चढ़़ गये , उन्होंने गाड़ी बंद करके ड्राइवर कंडक्टर को मारना शुरू कर दिया, इस अप्रत्याशित हमले से हम सभी सकते में आ गयें । एक तो पराया शहर! कोई जान न पहचान, अरे! अरे! करते भी उन्हे कई घुसे लात और डंडे पड़ चुके थे। नाके पर खड़े लोगो ने बीच बचाव करके दोनो को अलग किया। नाके वाले कह रहे थे कि इसने चुंगी कर देने से बचने के लिए गाड़ी नहीं रोकी , कंडक्टर कह रहा था कि आज सुबह दिन भर का चुंगी जमा करा दिया है बस मालिक ने। मारने वाले तो वहाँ से भाग गये । मार खाने वालों ने गाड़ी वहीं रोक कर बस चालक संघ में फोन कर दिया। लगता है उन्हें वहीं रुकने के लिए कहा गया होगा। थोड़ी ही देर में बहुत से लोग आ गये जिसने जहाँ सुना वही से अपनी बस यहाँ के लिए घुमा ली थोड़ी ही देर में वहाँ कई बसें आकर रुक गई । माहौल की गरमी से हम परेशान थें, हमें तो आज ही ओंकारेश्वर पहुँचना था । ले देकर उनका मामला शांत हुआ तब कहीं हमारी जान में जान आई ।

खजराना वाले गणेश ज आगे हमारी बस इंदौर शहर के इतिहास प्रसिद्ध श्री गणेश मंदिर खजराने में रुकी। इस विशाल मंदिर को देख कर मैं सुखद आश्चर्य से भर उठी । सन् 1735 में होलकर वंश की शासक महारानी अहिल्या बाई ने इस मंदिर का निर्माण करवाया । कहा जाता है कि मुसलमानों के डर से किसी भक्त ने गणेश जी की मूर्ति को एक कुएं में छिपा दिया था । 1735 में महारानी ने मूर्ति को निकलवाकर इस मंदिर का निर्माण कराया, अब जब से इसे सरकार ने अपने हाथ में लिया है इसका अप्रत्याशित विकास हुआ है।

मंदिर के विशाल सिंह द्वार पर हरी-हरी दुर्वा के गुच्छे के साथ अर्द्धमुकुलित श्वेत कमल बेचने वाले कई लोग तैयार खड़े थे। हमने खरीद लिया। मंदिर का क्षेत्र इतना बड़ा है कि दर्शकों की अच्छी-खासी उपस्थिति के बाद भी विरल सा लग रहा था। अन्दर जाने पर मुख्यमंदिर में विराजित गणनायक गौरीनंदन के विशाल विग्रह के दर्शन किये, जिसका वर्ण लाल है । उनके सिर पर मणिमुक्ता जड़ा रजत मुकुट शोभा पा रहा था स्थूल वदन पर नाभि क्षेत्र से नीचे तक फूलों की माला सुशोभित थी, ताजे पान के पत्तों का हार उसके भी नीचे तक लटक रहा था। उनके सुदीर्घ नेत्रों से करुणा बरस रही थी। हम सबने आगे लाइन से खड़े होकर उनका पूजन वंदन किया। प्रसाद लेकर यथा सामर्थ्य चढ़ावा चढा़या।

मंदिर के पीछे पंक्तिबद्ध कक्ष निर्मित किये गये हैं जिनमें हिन्दू धर्म के अन्य देवी देवताओं के श्री विग्रह विराजित हैं। स्थान-स्थान पर पत्र पुष्पों के गमले रखे गये हैं जिनमें खिले कुसुमों ने मोहक वातावरण का निर्माण कर दिया हैं । मंदिर में पेयजल की उचित व्यवस्था है। हम लोग मंदिर में जरा विश्राम करने बैठे तो पता चला कि मंदिर प्रांगण में ही भोजन शाला में निःशुल्क भोजन मिल रहा है । हमने बहुत सारे दर्शनार्थियों को उधर आते जाते देखा तब हमें भूख की याद आई । त्रिपाठी जी पटेल जी शर्मा जी आदि देख आये वहाँ का माहौल । आगे भी हमारे पास भोजन करने का अवसर नहीं था अतः सब लोग भोजन शाला की ओर चल पड़े ।

मंदिर से लगभग पाँच सौ मीटर की दूरी पर भोजन कक्ष है । बड़ा इतना कि दो-चार सौ आदमी एक साथ बैठ कर भोजन कर ले । स्वच्छता इतनी कि मन अपने घर को भूल जाय। हम लोग पास-पास बैठे । देखा कि अपने लिए भोजन लेकर आने की व्यवस्था थी। एक लंबा सा काउंटर है भोजन के पात्र उसके अन्दर रखे थे। लोग अपनी थाली काउन्टर पर रख कर आवश्यकतानुसार भोजन ले रहे थे, हमने नियम का पालन किया। खाने में उड़द की दाल, भात, सब्जी और रोटी थी। प्रसाद का स्वाद बहुत रुचिकर था। दाल-भात के बाद रोटी खाना चाहा तो वह एक ही तरफ से सिंकी थी एक किसी तरह समाप्त किया और एक जूठन में डालने के इरादे से काउंटर के पास गई वहाँ खड़ी सेवादार ने मेरा इरादा भाँप लिया और तुरंत टोक दिया- ’’नहीं मैडम जूठन नहीं छोड़ना है ! पूरा खाकर आइए!’’ उनकी भावना का सम्मान करते हुए मैं अपनी टेबल तक आई रोटी खतम करने की हिम्मत न हुई उधर सेवादार मेरी ओर ही देख रही थी, मैंने रोटी मोड़ कर अपने हेंड बैग में रख लिया, बाहर निकल कर कुत्ते को देने के लिए। हाथ धोने की व्यवस्था बाहर थी, बाहर आकर मैंने कुत्ते की तलाश की एक भी न दिखा । मेरी सारी चेतना बैग में रखी रोटी पर ही केन्द्रित हो गई थी। मैं जल्दी से जल्दी उससे मुक्ति पाना चाहती थी। कुछ अपराध बोध कुछ अपयश का भय, मैंने इधर-उधर देखकर रोटी निकालकर ड्रम के पास रखे गमले में डाल दिया और तुरंत वहाँ से हट गई, दूसरे ही पल मैं एक सौ एक रूपये की रसीद कटवा रही थी। अपने अंदर छिपे चोर से मिल कर मैं स्वयं आश्चर्यचकित थी। सभी लोगों के आ जाने के बाद हम लोग अपनी बस में सवार होकर आगे के लिए चल पड़े।

क्रमश: अगले भाग में –भाग-5 ओंकारेश्‍वर दर्शन

-तुलसी देवी तिवारी

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