यायावर मन अकुलाया (द्वारिकाधीश की यात्रा)
भाग-5 ओंकारेश्वर दर्शन
-तुलसी देवी तिवारी
ओंकारेश्वर दर्शन
गतांक भाग-4 महाकाल दर्शन (उज्जैन) से आगे
भैरोघाट की पहाडियां-
आज हमारी इंदौर में रुकने की योजना नहीं थी। इन्दौर से ओंकारेश्वर की दूरी लगभग सत्तर किलो मीटर है। हमारे दिलों में ओकारेश्वर दर्शन के सपने पल रहे थे। भैरोघाट की पहाडियों के मध्य से हमारी बस अहर्निश आगे बढ़ रही थी। हमारी जबान पर खजराना मंदिर की सुव्यवस्था और सुन्दरता थी, कुछ लोग आगे की यात्रा के संबंध में बातें कर रहे थे। मैं देवकी दीदी और प्रभा दीदी के पास बैठी थी, मेरी दृष्टि भैरो घाट की पहाड़ियों की ऊँची-नीची संरचना पर लगी हुई थी अभी-अभी पावस ऋतु विदा हुई थी, उसके जाने के चिन्ह के रूप में हरी-भरी पहाड़ियाँ किंचित मलीन बदन शरद के मध्यान्ह की धूप में खड़ी सी लग रही थीं । सड़क के किनारे छोटी ऊँचाई के वृक्ष दिखाई दे रहे थे जिन पर वाहनों द्वारा उड़ाई गई धूल चिपक कर उनके हरे रंग को भूरा कर रही थी।
ओंकारेश्वर आगमन-
ऊँचे- नीचे पहाड़ी मार्ग बस को जैसे हिंडोला झुला रहे थे। बस की सीट के सामने वाले पीट्ठे पर सिर टिका कर मैंने आँखे बंद कर ली। मन ही मन भगवान् भोलेनाथ के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने लगी। यदि मेरे साथ अघटित न घटता तो किसी थी सूरत में मैं यात्रा के लिए न निकल पाती, ठीक ही करते हैं पिता, मारते हैं तो अगले ही पल ढेर सारा प्यार देकर पिछली पीड़ा विस्मृत कर देते हैं। रास्ते में भैरोजी का मंदिर मिला हमने बस में बैठे-बैठे ही प्रणाम निवेदन किया। लगभग दो बजे हमारी बस ओंकारेश्वर के बस स्टेंड पर रुकी। नीचे उतर कर हमने अपने-अपने सामान की सुध ली, मैने अेंकारेश्वर की धरती को मन ही मन प्रणाम किया। इस पुण्य भूमि तक पहुँच पाने के लिए अपने भाग्य की सराहना की। सामने ओम के आकार का महान् तीर्थ था जिसके दर्शन की कामना लिए मेरा जीवन गुजरता चला जा रहा था अब तक।
ऑटो वाले पूछ-परख कर रहे थे हमारे साथियों ने दो ऑटो तय किया और हम इस पुण्य क्षेत्र के अंदर प्रविष्ठ हुए । सर्वप्रथम नगर पंचायत द्वारा रोपित एवं पोषित उपवन ने हमारा अभिवादन किया।
द्वादश ज्योर्तिलिंग-
भारत वर्ष में अपने आप प्रकट हुए शिव लिंग ज्योर्तिलिंगं की संज्ञा से अभिहित किये गये हैं । ये देश के विभिन्न हिस्सों में स्थित हैं , इनकी संख्या बारह है । सौराष्ट्र में सोमनाथ , श्रीशैल पर मल्लिकार्जुन,उज्जयिनी मे महाकाल, ओंकारेश्वर में ममलेश्वर,झारखंड में वैद्यनाथ,पूर्व में भीमशंकर, सेतुबंध में रामेश्वरम् ,दारुकावन में नागेश्वर उत्तराखंड में केदार नाथ, महाराष्ट्र में घुष्मेश्वर,और वराणसी में बाबा विश्वनाथ विराज रहे हैं। इनके दर्शन पूजन से कोटि जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं।
ओंकारेश्वर महादेव के प्राकट्य की पावन कथा –
ओंकारेश्वर महादेव के प्राकट्य की पावन कथा पुराणों में वर्णित है। एक बार ब्रम्हर्षि नारद विंध्य पर्वत के यहाँ पधारे । विन्ध्य ने मुनि की यथा योग्य अभ्यर्थना की और अभिमान पूर्वक अपने ऐश्वर्य का बखान करने लगे। मुनि को उनकी गर्वोक्ति खटक गई । उन्होंने विन्ध्य से कहा – ’’आपके वैभव की बराबरी कोई नहीं कर सकता लेकिन मेरू गिरी को देखा आपने, उसके शिखर कितने ऊँचे हैं ? देवलोक को छू रहे है।’’ मुनि की बात सुनकर विन्ध्य लज्जित हुए और वर्तमान में जहाँ ओंकार लिंग स्थित हैं वही पार्थिव शिवलिंग स्थापित करके छः माह तक बिना हिले-डुले प्रभु भूत्भावन की आराधना करते रहे । भोलेनाथ ने विन्ध्य को दर्शन देकर अभिष्ट वर मांगने के लिए कहा तब उन्होंने अपनी मनोकामना पूर्ण कर लेने की शक्ति का वरदान मांगा। भोलनाथ ने एवमस्तु कह दिया। शिव की उदारता की प्रशसा करने देवता सिद्ध मुनि आ गये और उन्होने देवेश्वर से वहाँ स्थायी रूप से रह जाने की प्रार्थना की। शिव ने सबकी प्रसन्नता के लिए सहर्ष स्वीकार कर लिया। जो ओंकार लिंग था वह दो रूपों में विभक्त हो गया। प्रणव में जो सदाशिव थे वे ओकार के नाम से प्रतिष्ठित हुए और विन्ध्य द्वारा निर्मित जो पार्थिव लिंग था उसमें भी वही ज्योति प्रविष्ट हुई जो जग में परमेश्वर अमरेश्वर या ममलेश्वर के नाम से विख्यात हुई और यह क्षेत्र ओंकारेश्वर के नाम से संसार में वंदित हुआ। जो आज हमारे सामने ओंकारेश्वर पर्वत है इसे पुराणों में वैदुर्यमणि कहा गया है। इस पर्वत पर तैंतीस कोटि देव , अठसठ तीर्थ ,एक सौ बीस रुद्र लिंग तथा बारह प्रकट लिंग हैं । इसकी परिक्रमा सात किलोमीटर की है, पहले तो यह अत्यंत दुर्गम मार्ग था किंतु अब स्थानीय प्रशासन ने मार्ग और पुलियों का निर्माण करके इसे सुलभ बना दिया है क्षेत्र के सारे प्रमुख स्थल परिक्रमा मार्ग में ही पड़ते हैं।
मांधाता पर्वत-
यह तीर्थ मांधाता पर्वत के नाम से पुराण प्रसि़द्ध रहा है । इक्ष्वाकु कुल भूषण महाराज युवनाश्व ने संतान प्राप्ति हेतु महान् यज्ञ किया, महर्षि च्वयन के नेतृत्व में यज्ञ सम्पन्न हुआ, रात्रि काल में जब थके हारे से सब जन निद्रालीन थे तब तृषावश अनजाने में महाराज युवनाश्व ने कलश में संगृहित अभिमंत्रित जल साधारण जल समझ कर उसका पान कर लिया जो वस्तुतः गर्भधारण हेतु उनकी पत्नी को पिलाने के लिए रखा गया था। महाराज को गर्भ स्थापित हो गया, समय आने पर अश्विनी कुमारों द्वारा महाराज की कोख चीर कर एक तेजस्वी पुत्र को बाहर निकाला गया । अब समस्या शिशु के दुग्धपान की आई तब इन्द्र ने अपनी कनिष्ठिका अंगुली उसके मुँह में डाल दी जिससे निःसृत अमृत से शिशु बड़ी तेजी से वृद्धि को प्राप्त हुआ। बड़े होने पर ये चक्रवर्ती सम्राट बनेे, इनके तीन पुत्र और पचास पुत्रियाँ हुईं , इन्होंने सौ अश्वमेध और सौ राजसूय यज्ञ किये। इस पर्वत को ओंकार के आकार का बना देख कर यहाँ देवाधिदेव की तपस्या की, उन्होने ब्रह्मा विष्णु और महेश तीनों देवोंं को प्रसन्न किया और सदैव शिव सानिध्य में वास का वरदान मांगा, तब से यह पर्वत मांधाता के नाम से जग में विख्यात हो गया। हमने सुना कि यहाँ तीनों पुरियाँ हैं ब्रह्मपुरी, विष्णुपुरी और शिवपुरी। आज जो ओंकारेश्वर है वह मध्यप्रदेश के खंडवा जिले में स्थित है। प्राचीन अर्वाचीन सभ्यता का अद्भूत् संगम है विष्णुपुरी। यह नर्मदा नदी के दक्षिण पश्चिम में स्थित है। समस्त आधुनिक निर्माण तीन-तीन धर्मशालाएं , नगर पंचायत का ऑफिस,घाट मार्ग, बस स्टेंड, वृद्धाश्रम,नगर की समस्त शिक्षण संस्थाएं यहीं स्थित हैं।
’गजाननभक्त’ निवास –
महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत गजानन महाराज की याद में गजानन सेवा संस्थान की शाखा यहाँ भी संचालित है, यह ममलेश्वर मंदिर के निकट ही है यहाँँ श्वेत संगमरमर से निर्मित भव्य मंदिर बना हुआ है जिसमें गजानन महराज की प्रतिमा दर्शनीय है। यहाँ सर्व सुविधा युक्त ठहरने का स्थान है। हमारी ऑटो यहीं जाकर रुकी। मुख्यद्वार पर ही ’गजाननभक्त’ निवास लिखा हुआ दिखाई दिया। एक विशाल क्षेत्र में निर्मित यह भक्त निवास स्वच्छता और सुव्यवस्था की साक्षात् प्रतिमूर्ति प्रतीत हुआ ।
सिंहद्वार से होते हुए, पुष्पलताओं से आच्छादित, कृष्ण लीला की झाकियों से सुशोभित, वाटिका पार कर हम भक्त निवास के अन्दर प्रविष्ट हुए । साफ-सुथरे बिस्तर वाले कमरे हमें प्राप्त हुए । देवकी दीदी, प्रभा दीदी माया और मैंने एक कमरे में अपना सामान जमाया। बाथरुम से आकर हम थोड़ी देर आराम करने लगीं । उस समय दोपहर ढल रही थी, लगभग दो बज रहे थे। रिसेप्शन से हमे ऑटो वालों के नंबर प्राप्त हो गये। दो ऑटो में हम सभी ओंकारेश्वर के दर्शन हेतु निकल पड़े।
प्राचीन निवार्णी अखाड़ा –
नगर की सुन्दरता का दर्शन करते हुए हम सबसे पहले माँ नर्मदा में स्नान की कामना से प्राचीन निवार्णी अखाड़ा गये, यहाँ सृष्टि का पालन करने वाले भगवान् विष्णु का बहुत बड़ा मंदिर है। लगता है जैसे शिखर गगन का आलिंगन करना चाह रहा है। मंदिर के बाहरी प्रवेश द्वार के दाहिनी ओर घाट तक जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुईंं हैं त्रिपाठी जी के साथ दल के जिम्मेदार लोग सीढ़ियाँ उतरने लगे। सब के साथ मैं भी माँ नर्मदा के दर्शन-पर्सन की साध लिए उतरती गई। सीढ़ियों की समाप्ति पर रेत के बिछे कालीन पर कदम बढ़ाते हम पुण्य सलिला माँ नर्मदा के तट पर पहुँच गये। सामने ही कल-कल निनादित, तीव्रगामी् नीर आपूरित माँ के स्वरूप् का दर्शन करके मन भावविभोर हो गया। लगा कि दौड़ कर उनके गले लग जाऊँ। तट पर पहुँच कर हमने अपने -अपने ढंग से माँ का वंदन किया। विन्ध्य और सतपुड़ा पर्वतों के बीच घाटी का निर्माण करती हुई बहने वाली शिवपुत्री नर्मदा ओंकारेश्वर ही नहीं पूरे देश में गंगा जी के समान ही पूज्य और पावन मानी जातीं हैं । पाप-तापहारी नर्मदा के दक्षिण तट पर ब्रह्म पुरी एवं विष्णुपुरी तथा उत्तर तट पर शिवपुरी है। इस समय मेले -ठेले की भीड़-भाड़ नहीं थी। हमारे जैसे ही कुछ और यात्री स्नान करके पूजन वंदन कर रहे थे। कुछ बच्चे जल क्री़ड़ा रहे थे। यहाँ नर्मदा का पाट अधिक चौड़ा नहीं है । इसके दोनों तटों तक हम देख पा रहे थे, भले ही चित्र धुंधले लग रहे थे। प्रकृति इनके दोनों किनारां पर हरि चादर ओढ़े अधखुले नेत्रों से सब कुछ देख रही थी। नहाकर बदलने वाले कपड़े जिन्हें हम साथ ले गये थे , किनारे पर रख दिये गये । भाई लोग थोड़ी दूरी बनाकर नहाने लगे । हम लोग भी नर्मदा की पवित्र धारा में शरीर के कपड़े कम करके नहाने लगीं । देवकी दीदी को पकड़ कर मैंने नहाने में मदद करने की कोशिश की किंतु लगा संभालना मुश्किल हो जायेगा, क्योंकि बहाव बहुत तेज था किसी को बुलाने ही वाली थी कि इतने में प्रभा दीदी भी आ गईं। बेदमती भाभी को हेमलता संभाल कर नहलाने लगी। बाकी सब बहने नहाकर कपड़़े बदलने लगीं थी। मैने अपना केमरा निकाल लिया और माँ नर्मदा की मनोहारी छवि को अपने पास संचित कर लिया।
मौसम एकदम साफ था। सूर्य की किरणें तिरछी पड़ने लगीं थीं। मन को भाने वाली शाम से पहले की धूप और नर्मदा का स्वच्छ शीतल जल ! आनंद आ गया । थोड़ी ही देर में हम लोग ऊपर आने के लिए सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे। मुख्य मार्ग पर आकर हम लोग विष्णु मंदिर की ओर चल पड़े। जो प्राचीन निवार्णी अखाड़े में स्थित है । गगन चुंबी विशाल मंदिर में जगत के पालन कर्त्ता अपने विश्वमोहन श्याम रंग में विराजमान् हैं। यह विग्रह जितना भव्य है उतना ही ऊँचा भी है, इसके बायें पार्श्व में श्वेत संगमरमर से निर्मित महालक्ष्मी जी का श्री विग्रह विराज रहा है। पास ही गणनायक गौरी पुत्र गणेश जी की प्रतिमा विराजित है। मंदिर की आंतरिक सज्जा हृदयहारी है। हम ने दोनों कर जोड़ कर जगपिता एवं जग माता को प्रणाम किया। विघ्नहर्ता से अपनी यात्रा की सफलता के लिए आशीष मांगा।
मार्कण्डेय योग आश्रम –
आगे हमारी ऑटो विष्णुपुरी के ही मार्कण्डेय योग आश्रम पहुँचे। यह आश्रम अन्नपूर्णा मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। मंदिर के प्रवेश द्वार के दोनो ओर सिंह तथा प्रतिहारी की जीवंत प्रतिमाएं स्थापित हैं। द्वार के ऊपर देवविवाह का दृश्य है। इनमें ब्रह्मा , शंकर ,पार्वती तथा नारद मुनि दिखाई देते हैं। आसपास गणेश तथा कार्तिकेय की मूर्तियाँ हैं, दरवाजे के पीछे मंदिर के संस्थापको की प्रतिमाएं लगी है । मंदिर के गर्भगृह में भगवान् श्रीकृष्ण के विराट स्वरूप की विशाल प्रतिमा देख कर रोमांच हो आया। प्रतिमा लगभग पैंतीस फुट ऊँची है, इसके शीर्ष पर शेषनाग ह,ैं प्रतिमा के सतरह मुख हैं जो विभिन्न ंदेवताओं के हैं इसके बीस हाथ है जिनमें विभिन्न आयुध शोभा पा रहे हैं।
विराट स्वरूप के नीचे योगेश्वर श्री कुष्ण वीर अर्जुन को गीता का उपदेश दे रहे हैं। यह प्रतिमा आधुनिक मूर्ति कला का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। इसे दक्षिण भारत के कलाकारों ने सिमेंट और कंकरिट से बनाया है। रंग योजना तर्कसंगत है। मंदिर के पश्चिम भाग में मार्कण्डेय ऋषि का पुराना मंदिर हैंं जिसका जीर्णोद्धार किया जा चुका है। इसे हजार वर्ष पुराना माना जाता है, इस मंदिर में शिवलिंग के साथ ही काले पत्थर से निर्मित मार्कण्डेय ऋषि की मूर्ति विराजित है। मंदिर प्रांगण के मध्य में यज्ञशाला है और उसके पीछे भोजनालय। माता अन्नपूर्णा का भव्य मंदिर भी पास ही में है, इसमें शेर पर सवार माँ दुर्गा की जगत मोहिनी मूर्ति विराज रही है। दुर्गा माँ की बायीं ओर महाकाली की श्याम और दायीं ओर हंसवाहिनी वीणापाणी माँ सरस्वती की श्वेत संगमरमर की प्रतिमाएं विराज रहीं हैं जिन्हें देख कर मन निर्वेद से भरा जा रहा था।
मंदिर के अंदर की समूची दीवारों पर महाकाली के विभिन्न स्वरूपों के चित्र अंकित हैं मंदिर के ऊपर एक ओर महाकाली के साथ असुर के संग्राम की तथा दूसरी ओर शंकर-पार्वती की प्रतिमाएं तथा मंदिर के गुंबद पर अनेक देवी देवताओं की विभिन्न मुद्रओं के चित्र अंकित हैं। मंदिर के पूर्व में अनेक कक्षों वाला विश्राम गृह है और सामने नर्मदा के तट पर अपने सुदीर्घ बाहु पसारे नागर घाट। जो ओंकारेश्वर का सबसे बड़ा घाट है। वर्ष भर चलने वाले आयोजनो के मद्दे नजर यहाँ मंच भी निर्मित है। घाट के मध्य बने फव्वारे और कमल बहुत सुन्दर दिखाई पड़ रहे थे। इस घाट पर कलश के आकार की एक टंकी बनी हुई है जिसकी कला देखते ही बनती है। यहाँ नर्मदा नदी में एक बड़ी सी चट्टान है जिसे मार्कण्डेय शिला कहते हैं मान्यता है कि इसपर से छलांग जगाने वालों के पाप कट जाते हैं, हमारे दल में न तो कोई ऐसा पापी था जिसे पाप कटाने के लिए भरी नदी में गुलांडी खानी पड़े, न ही कमसीन उर्जा से लवरेज, जो अपने को निष्पाप बनाने के लिए इस शर्त को पूरा कर सके। हमने इस शिला को भी तट से ही प्रणाम कर लिया।
मार्कण्डेय आश्रम का दूसरा भाग मार्कण्डेय संन्यास आश्रम जो ऋषि-मुनियों की तपःस्थली है यहाँ अनेक साधु संत निवास करते हैं। हमारे कुछ साथी आश्रम में अलग-अलग घूम कर इस संस्मरण हेतु सामग्री एकत्र कर रहे थे।
स्वामी मायाचंद चैतन्य –
इन दोनो आश्रमों के मध्य विज्ञान शाला है जिसे स्वामी मायाचंद चैतन्य ने स्थापित किया था। यहाँ एक यंत्र है जिसमें मायाचंद जी के सर्वांगयोग संबंधी आठ अध्याय अंकित है। साथ ही मायानंद चैतन्य जी की आदम कद प्रतिमा भी स्थापित है। हम लोग दर्शन करके आगे बढ़े। ऑटो आगे फिर रुक गया, अब हम लोग विकट हनुमान् जी के समक्ष खड़े थे, श्रीराम चंद्र जी की भक्ति में जीवन अपर्ण करने वाले महान् भक्त वीर हनुमान् का विशाल कलेवर देख कर मुझे लगा जैसे एक हाथ मे गदा और दूसरे में संजीवनी सहित पर्वत लिए हृदय में राम जानकी को धारण किये वे अभी -अभी युद्ध भूमि में आये हैं जहाँ लक्ष्मण जी मुर्छित पड़े हैं यह विग्रह भी आधुनिक मूर्तिकला का श्रेष्ठ उदाहरण है। मुर्ति के पार्श्व में काँच की बेजोड़ कारीगरी की गई है। इस मंदिर में भगवान् श्री हरि के चौबीस अवतारों की मूर्तियाँ स्थापित हैं जिनमें कलयुग में होने वाले कल्कि अवतार की मूर्ति भी है। हमने अपनी भावान्जलि अर्पित की। मैंने उन कलाकारों की मन ही मन प्रशंसा की जिन्होंने इतनी सुन्दर मूर्तियाँ बना कर अपने युग का प्रतिनिधित्व किया।
पाटीदार धर्मशाला –
अब की हमारा ऑटो पाटीदार धर्मशाला जाकर रुका। प्रवेश द्वार के पास ठीक सामने ही माँ जगदम्बा की अष्टभुजी प्रतिमा के दर्शन हुए जिससे सारे शाप-ताप नष्ट हो गये। सिंहवाहिनी माँ की मूर्ति सफेद संगमरमर की है। क्षे़त्रीय राजपूत धर्मशाला भी पास ही है वहाँ हमने धर्मशाला के ऊपर चेतक पर सवार महाराणा प्रताप की विशाल मूर्ति के दर्शन किये। एक महाराणा ही तो हैं जिन्हे देख कर पुत्रवती होने का अभिमान जन्म लेता है बाकी तो ज्यादातर राजपूतों ने विध्वंश के भय से आक्रान्ताओं के लिए अपने देश में प्रवेश करने का द्वार ही खोला है। महाराणा ने अपना सारा जीवन आजादी की रक्षा करने में ही समाप्त कर दिया।
जाट समाज की धर्मशाला के ऊपर तेजा जी महराज की प्रतिमाएं सजायी गईं हैं । हम लोगों के पास ओंकारेश्वर के लिए कुछ ही घंटे थे इसीलिए कहीं भी अधिक देर रुक नहीं रहे थे।
कुबेर मंदिर –
अब हम लोग कुबेर मंदिर पर जाकर रुके। यह एक पुराना मंदिर हैं जिसके अंदर शिवलिंग ही स्थापित है। पूछने पर पता चला कि यहाँ यक्ष पति कुबेर ने शंकर भगवान् को प्रसन्न करने के लिए कठिन तप किया। जिससे प्रसन्न होकर देवाधिदेव ने उन्हें इच्छित वर दिया। जिसके प्रभाव से वे सदा के लिए यक्षपति बन गये साथ ही सदा निरोग रहने का वर भी प्राप्त कर लिया। समय पाकर धर्म प्रेमी किसी भक्त ने इस मंदिर का निर्माण करवाया होगा। हमें पुजारी के अतिरिक्त और लोग भी नजर आये , संभवतः विद्यार्थी थे । हमने यथाशक्ति चढावा चढ़ा कर पूजन अर्चन किया । अब तक शाम घिर आई थी। सड़कों पर बत्तियाँ जल उठी थीं। हम लोग ऑटो में बैठ कर ममलेश्वर ज्योर्तिलिंग के दर्शन हेतु चल पड़ें। अब तक मेरे गीले केश सूख चुके थे जिन्हें समेट कर मैंने जूड़ा बना लिया था। मेरे सभी साथी आगे पीछे चल रहे थे, प्रभा दीदी की नजर बराबर मुझ पर लगी हुई थी। मैं सजग थी कि कही छूट न जाऊँ। ऑटो वाला हमें उस झूला पुल के पास ले गया जिसके द्वारा हम लोग विष्णुपुरी से शिवपुरी जा सकते थे, जहाँ जगत आराध्य प्रभु ममलेश्वर विराज रहे थे। विन्ध्य पर्वत की तपस्या से प्रकट हुए शंकर भगवान ने देवों के आग्रह पर अपनी परम ज्योति को दो भागों में विभक्त कर आधे को प्रणव में स्थित सदा शिव में समाहित किया और आधे को विन्ध्य द्वारा पूजित पार्थिव लिंग में समाहित कर दिया। जो संसार में पहले ओंकारेश्वर और दूसरे ममलेवर के नाम से विख्यात हुए आज जिनके दर्शन की कामना फलिभूत होने जा रही है ऐसा सोच कर मन में उल्लास समा नहीं रहा था।
आगे आगे शर्माजी अपनी श्रीमती के साथ चल रहे थे। हेमलता देवकी भाभी के साथ आगे बढ़ रही थी और बेदमती भाभी की नजर पटेल जी के ऊपर लगी थी। ’’ कहूँ बुलक झन जावैं ।’’ माया, दूबे जी के साथ बातें करती जा रही थी। देवकी दीदी को चलने में परेशानी थी ।
झूला पुल –
मैं उस झूला पुल की संरचना का अघ्ययन करने लगी थी। सात हजार करोड़ रुपये की लागत से बना यह पुल जिसकी क्षमता छःहजार व्यक्तियों का भार वहन करने की है , जो ब्रह्मपुरी को शिवपुरी से जोड़ता है। इस पुल में एक भी खंभा नहीं है। पहले जब यह पुल नहीं था तब नदी से पार उतरना पड़ता था। अब भी लोग जल क्रीड़ा के लिए नावों का प्रयोग करते हैं। इस समय प्रकाश से जगमगाते दोनों तट बड़े मनमोहक लग रहे थे। तटीय प्रकाश नर्मदा के जल पर उसकी लहरों के साथ नर्तन कर रहा था। कुछ सोचते हुए चाल अपने आप धीमी हो जाती है, जाहिर है कि में सबसे पीछे चल रही थी। पुल पर अधिक भीड़ नहीं थी। देवकी दीदी बीच-बीच में पीछे देख लेतीं थीं, प्रभा दीदी ने उनका हाथ पकड़ रखा था, हम लोगों ने जैसे ही पुल का रास्ता पार किया हमे सजा सजाया वह गलियारा मिल गया जिसके दोनों ओर प्रसाद खिलौने फोटो आदि की दुकाने सजी हुई थीं । दुकानदार चढ़ावा लेने और जूते चप्पल उनकी दूकान में निःशुल्क रख देने के लिए दर्शनार्थियों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे। थोड़ा आगे बढ़ कर एक ही दुकान पर हम सब ने अपने-अपने जूते चप्पल रखे और सबने भोलेबाबा के लिए फूल, माला, नारियल, लाइची दाने का चढ़ावा ले लिया। जैसे -जैसे हम आगे बढ़ रहे थे भीड़ बढ़ती जा रही थी।
ममलेश्वर ज्योर्तिलिंग –
गलियारे के अंतिम छोर पर हमारे समक्ष था इतिहास-पुराण में प्रतिष्ठित ममलेश्वर जयोर्तिलिंग का पाँच मंजिला वह कलात्मक मंदिर जिसे देखने के लिए देश-विदेश से श्रद्धालू आते हैं और अपने श्रद्धा सुमन चढ़ा कर अपने को धन्य मानते हैं। प्रवेश द्वार के खंभों पर देवासुर इतिहास की भव्य चित्रकारी की गई ह, मंदिर की दीवारों पर भी सुन्दर चित्र बने हुए हैं। मंदिर नर्मदा तट से थोड़ी ही दूरी पर है, वहाँ छोटे- छोटे बहुत सारे पार्थिव शिव लिंग दिखाई दिये पूछने पर ज्ञात हुआ कि यहाँ प्रति दिन सवा लाख पार्थिव शिवलिंगों द्वारा भगवान् ममलेश्वर का लिंगार्चन किया जाता है इसके लिए एक दिन पहले से ही तैयारी करनी पड़ती है। बारह ज्योर्तिलिंगों में ममलेश्वर चौथे नंबर पर आते हैं, पाँचों मंजिलों में शिवलिंग स्थापित हैं जो अन्य जयोर्तिलिंगों के प्रतिरूप हैं । हम लोग अपने अपने हाथों मे श्रद्धासुमन लिए धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे, मंदिर में पूजा अर्चना हो रही थी, घंटा ध्वनि मन के सारे विकारों को मन से बहुत दूर कर रही थी। ममलेश्वर ज्योर्तिलिंग की ऊँचाई अधिक नहीं है, वे पीतल की जलहरि में स्थापित हैं उनके ऊपर सर्पराज ने छाया कर रखी है, उसके ऊपर स्वर्ण की सी द्युति विखेरता नर्मदा के जल से भरे कलश से बूंद-बूंद करके जल चढ़ता रहता है ताकि समुद्र मंथन के समय किये गये विषपान के फल स्वरूप होने वाली जलन शांत होती रहे। हमने मंदिर में प्रवेश करके अपने हाथों से जगत पिता का पूजन अर्चन किया। उनका स्पर्श करके अपना जीवन सफल किया। पुजारी को दान- दक्षिणा देकर भोलेनाथ को बार-बार प्रणाम करके मंदिर से बाहर आ गये।
हमने ऊपरी मंजिलों पर जाकर वहाँ भी पूजा की। देवकी दीदी को चढ़ने में बहुत तकलिफ हो रही थी फिर भी रेलिंग पकड़-पकड कर उन्होंने पाँच मंजिल की चढाई पूरी की। ऊपर की मंजिलों में भी बेहतरीन चित्रकारी दृष्टिगोचर हुई । साँस तो मेरी भी भर गई थी किंतु जगत पिता के विग्रहों को देख कर मन प्रसन्नता का अनुभव कर रहा था। मंदिर प्रांगण में छः मंदिर और बने हैं जिनमें देवी देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित हैं। सब को पत्र-पुष्प अर्पित कर हम लोग मंदिर से बाहर आये। अपने जूते चप्पल लेकर झूलापुल के रास्ते वापस वहाँ आये जहाँ हमारे ऑटो वाले हमारा इंतजार कर रहे थे।
श्री ओंकारेश्वर मंदिर –
हम लोग बहुत ही कम समय में श्री ओंकारेश्वर मंदिर के सामने आकर ऑटो से उतरे। हमारे सामने प्राचीन स्थापत्य कला का अप्रतीम उदाहरण था । पाँच मंजिला मंदिर जिसमें चौथे ज्योर्तिलिंग भगवान् ओंकारेश्वर विराज रहे थे। मंदिर में प्रवेश करते ही सभी खंभों पर उत्कृष्ट कारीगरी के दर्शन हुए। मंदिर में अनेक छोटी -बड़ी घंटियाँ टंगी हैं, भगवान् को जगाने के साथ ही इनकी अनुगूंज गुंबद में प्रतिध्वनित होकर एक वृत तैयार करती है जिसे सुनकर दर्शनार्थियों की चेतना का उर्ध्व गमन होता है, उनका संबंध बाह्य जगत से टूट कर आराध्य के चरणों से जुड़ जाता है मैंने देखा कि आधुनिक काल के झूमरों के समान प्रचीन काल के पीतल के झूमर लटक रहे हैं। वहाँ एक प्रकोष्ठ में सुकदेव मुनि की प्राचीन प्रतिमा के दर्शन हुए।
यहां देवताओं द्वारा चौपड़ खेले जाने की जनश्रुति-
जनश्रुति है कि इस मंदिर में शिव पार्वती के साथ अन्य देवता भी चौपड़ खेलने आते हैं, एक अंग्रेज अधिकारी को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ ,वह रात में सुकदेव कक्ष में छिप गया। यद्यपि वह जीवित वापस न लौटा किंतु मृत्यु पूर्व लिखी गई उसकी डायरी से सत्य उद्घाटित हो गया। इसी कक्ष के सामने वह ओटाला है जिस पर बैठ कर महाराज मांधाता ने तप किया था । थोड़ा सा ही आगे बढ़ने पर प्रणव लिंग के दर्शन कर हम लोगों ने अपने जीवन को सफल बनाया। प्रणव लिंग अधिक बड़ा नहीं हैं किंतु प्रभाव अरिमित ह,ै नाग छत्र से विभूषित चौकोर जलहरी में स्थित भोले नाथ के समीप ही जगन्माता पार्वती की मनोहारी प्रतिमा है जो रजत पत्रों द्वारा सुसज्जित है। मंदिर में जलते अखंड घृत दीपक अपना पावन प्रकाश फैला रहे थे। हम लोगों को मंदिर में प्रवेश कर बाबा का स्पर्श पूजन अर्चन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । मेरा मन शिव चरणो में पूरी तरह रम गया था। प्रणव लिंग के नीचे सदैव विद्यमान रहने वाले नर्मदा जल का हमे प्रसाद प्राप्त हुआ। पुजारी ने हमें शिवाभिषेक का महत्व बताया किंतु समयाभव के कारण यह संभव न हो सका।
पांच मंजिला ओंकारेश्वर मंदिर-
ममलेश्वर की भांति यह मंदिर भी पाँच मंजिला है पहली मंजिल में ओंकारेश्वर दूसरी में महाकालेश्वर, तृतीय पर सिद्धनाथ, चर्तुथ पर केदारेश्वर, पंचम पर गुप्तेश्वर महादेव है। हमने उज्जैन में दूसरी मंजिल पर ओंकारेश्वर के दर्शन किये थे। ऑफ सीजन के कारण हम लोग यहाँ की भीड़ से बच गये थे। मेले के समय या सावन में पहुँचे होते तब तो संभवतः मंदिर में प्रवेश भी न कर पाते, सावन के पाँचो सोमवार को ओंकारेश्वर की सवारी निकलती है। सारा वातावरण शिवमय हो जाता है। हम लोग तो शिवमय हो ही गये थे। मंदिर में घंटे बज रहे थे। शंखध्वनि हो रही थी। कोई शिवजी की आरती कर रहा था तो कोई शिव पंचाक्षरी का जाप कर रहा था। मुझे तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था बस मन कुछ क्षण के लिए विचार शून्य हो गया था। कभी माता-पिता को खुली आँखों तो कभी बंद आँखों से निहार रही थी। आनंदातिरेक में मेरे साथ ऐसा ही होता है। थोड़ी देर मंदिर में बैठ कर हम लोग बाहर आ गये।
ऑटो वाले मंदिर के बाहर ही हमारा इंतजार कर रहे थे। हमने घर के लिए प्रसाद आदि लिया और अपने जूते चप्पल लेकर ऑटों में आ बैठे। बहुत कम समय में हम लोग गजानन भक्तनिवास आ गये। भक्त निवास रात्रि में विद्युत ज्योति से जगमगा रहा था, साथ ही त्रयोदशी का चाँद अंबर पर अठखेलियाँ कर रहा था। कभी बादल के किसी टुकड़े के पीछे छिप जाता तो कभी पर्वत के पीछे से झाँकने लगता । जब हमने धर्मशाला में प्रवेश किया तब वह उपवन के ऊँचे वाले नारियल के पेड़ के पीछे से झाँक रहा था। मौसम सुखदायक था । शरीर विश्राम की मांग कर रहा था। हमने उपवन में स्थित स्वच्छ और सुविधा पूर्ण भक्त निवास के भोजनालय में रोटी सब्जी चटनी आदि का आहर ग्रहण किया और अपने-अपने कक्षों में आराम करने चले गये। हमें बता दिया गया था कि प्रातः आठ बजे तक हमें ओंकारेश्वर छोड़ देना है हमारा अगला प़ड़ाव ’महेश्वर’ था।
आरामदायक बिस्तर पर लेटते ही आँखें बंद होने लगीं किंतु सुबह के लिए कपड़े निकाल कर रखना था दवाइयाँ लेनी थीं, देवकी दीदी को भी दर्द की दवा चाहिए थी। अतः मैने हिम्मत की। माया सोने के कप़डे पहन रही थी।
ओंकारेश्वर के अन्य दर्शनिय स्थल-
हमने ओकारेश्वर का दर्शन तो कर लिया किंतु बहुत कुछ रह गया जिसे हम समयाभाव के कारण नहीं देख पाये। जैसे—ओंकारेश्वर बांध जो नर्मदा और कावेरी के संगम पर बनाया गया है जिसे नर्मदा हाइड्रोइलेक्ट्रिक डेवलपमेंट कारपोरेशन ने बनवाया है और जिसकी जल धारिता 64880 वर्ग किलो मीटर है बांध की ऊँचाई 949 मीटर तथा आधार तल से ऊँचाई 73.12 मीटर है लगभग 94 किलो मीटर का जलाशय इसे एक आर्कषक पर्यटक स्थल के रूप में परिणित करता है। इसे हम स्नान के समय पुराने घाट से दूर से ही देख पाये। सिद्धवरकूट नामक स्थान पर जल विद्यूत केन्द्र स्थापित है। इस योजना से 529 गाँवों को सिंचाई की सुविधा प्राप्त हो रही है। इसके अलावा राजमहल,चाँद सूरज द्वार ,आशा देवी मंदिर,राधाकृष्ण मंदिर,राजा मुचुकुन्द का किला,सिद्धबारादरी,गायत्री मंदिर कुंती माता और भीम अर्जुन द्वार आदि। ’’ एक बार केवल ओंकारेश्वर की यात्रा पर आना चाहिए।’’ इसी अभिलाषा के साथ मुझे नींद ने अपनी गोद में सुला लिया।
-तुलसी देवी तिवारी
शेष अगले भाग में- भाग-5 अहिल्या बाई किला दर्शन