यायावर मन अकुलाया-7 (यात्रा संस्‍मरण)-तुलसी देवी तिवारी

यायावर मन अकुलाया (द्वारिकाधीश की यात्रा)

भाग-7 पर्यटन स्‍थल मांडूू दर्शन

-तुलसी देवी तिवारी

पर्यटन स्‍थल मांडूू दर्शन
पर्यटन स्‍थल मांडूू दर्शन

पर्यटन स्‍थल मांडूू दर्शन

गतांक भाग-5 अहिल्‍या बाई किला दर्शन से आगे-

पर्यटन स्‍थल मांडू इतिहास के आइने में-

हिन्दू मुस्लिम स्थापत्य कला का अद्भूत संगम-

मन कल्पना के पंखों पर सवार होकर ऐतिहासिक युग की सैर करने लगा । विन्ध्याचल पर्वत की अंतिम श्रृंखला में बसे मालवा क्षेत्र के अंतर्गत स्थित मांडू मध्यकालीन स्मारकों की एक कड़ी है, जहाँ हिन्दू मुस्लिम स्थापत्य कला का अद्भूत संगम है। अनेक इमारतों, मस्जिदों मकबरों , मंदिरों के अवशेषों में अतीत की अनेक कहानियाँ आज भी जीवित हैं, बस दिल थाम कर कान लगा कर सुनने की आवश्यकता है। जब मैं प्राथमिक कक्षाओं में मध्यप्रदेश के दर्शनीय स्थलों की कड़ी में मांडू के बारे में पढ़ती थी तब मेरा मन बरबस रानी रुपमति और बाजबहादुर के प्रेम की कशिश का अनुभव करता था, उनकी पीड़ा मेरे हृदय में हाहाकार मचाने लगती थी। उनके प्रेम के आगे नत्मस्तक होती रही हूँ मैं ।

मांडू की प्राकृतिक सुंदरता-

विश्व प्रसिद्ध मांडू, धार से 35 किलो मीटर दूर है। समुद्र तल से इसकी ऊँचाई लगभग 634 मीटर है। यह एक पहाड़ी पर बसा हुआ है। हम वर्षा ऋतु के अंतिम दिनों इस यात्रा पर निकले थे। अतः जब भी आँखे खोल कर देखती सड़क की दोनो ओर मखमली हरी चादर ओढे सोये से मैदान नजर आ रहे थे। मैं सोच रही थी कि इतनी ऊँचाई पर सबसे पहले किसने किले बनाने की कल्पना की होगी? वह भी तब जब यातायात के आधुनिक साधनों का विकास शैशवावस्था में रहा हो। शायद यह जानकारी इतिहासकारों को भी न हो तभी तो किसी ने ऐसा दावा नहीं किया। वैसे आठवीं से तेरहवीं सदी तक राजपूतो के शासन का उल्लेख मिलता है।

परमार राजाओं की राजधानी मांडू-

ग्यारहवीं शताब्दी में यह तरंगा या तारा गंगा राज्य का उपविभाग था। परमारों के समय इसकी प्रसिद्धि हुई । एक ओर विन्ध्याचल पर्वत श्रेणी और दूसरी ओर नर्मदा की घाटी के कारण यह बहुत सुरक्षित स्थान है। मांडू लगभग दो हजार फिट ऊँची पहाड़ी पर बसा है, यह परमार राजाओं की राजधानी थी। वैसे तो इसका उल्लेख रामायण महाभारत काल में भी मिलता है। किंतु दसवीं सदी में तो यह एक समृद्ध नगर था। भारत के राजनैतिक मंच से प्रतिहार शक्ति के लुप्त होने से पहले ही मालवा पर परमारों का शासन स्थापित हो चुका था। परमार वंशी वैरि सिंह द्वितीय ने राष्टकूट कृष्ण तृतीय की सहायता से मालवा पर अधिकार कर लिया। उसने अपने आप को मालवा के योग्य सिद्ध कर दिया। परमारवंशी राजा भोज एक महान् योद्धा, एक महान् लेखक और एक महान् निर्माता भी थे।

अंतिम परमार राजा महलक देव –

अल्लाउद्दीन खिलजी के शासन काल में मालवा की स्वाधीनता जाती रही, उसने धार तक पूरे मालवा प्रदेश को अपने अधीन कर लिया। अंतिम परमार राजा महलक देव को उसकी सेना ने मार डाला। 1310 में अल्लाउद्दीन के सेनापति मलिक काफूर ने देवगिरि विजय के बाद दिल्ली लौटते समय कुछ दिन धार में आराम किया था। मध्ययुग मेंं यहाँ तुगलक वंश ने राज्य किया। दक्खिन विजय के दौरान मोहम्मद तुगलक ने यहाँ प्रवास किया। उसने यहाँ एक किले का निर्माण भी करवाया। सन्1397 में दिलावर खाँ मालवा का राज्यपाल बना। कुछ समय बाद उसने खुद को स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। यद्यपि उसने राजधानी धार को ही रखा तथापि वह मांडू अक्सर-आता जाता रहता था।

मांडू में खिलजी वंश का शासन-

आज जिन स्मारकों को हम देखने जा रहे हैं उनमें से अधिकांश के निमार्ण की नींव इसी समय पड़ी थी । दिलावर खाँ के पुत्र होशंगशाह ने मांडू को राजधानी बनाया। उसने उत्तर में काल्पी व दक्षिण में खेरल तक राज्य की सीमाओं का विस्तार किया। उसे रण से प्रेम था जिसके कारण गुजरात, दिल्ली और जौनपुर से उसका युद्ध चलता रहता था । खून-खराबे के इस माहौल में भी होशंगशाह ने स्थापत्यकला के प्रति अपने प्रेम का परिचय दिया। उसने अपने लिए राजमहल, राजदरबार, अैर दिल्ली गेट के साथ ही मांडू की अनोखी किलेबंदी का अधिकांश भाग पूरा करवाया था। 1435 ईस्वी में उसने अपने पुत्र महमूदशाह को राज्य सौंप कर जन्नत की यात्रा की। वह अपने विश्वासपात्र के, द्वारा मृत्यु को प्राप्त हो गया। बीच में खिलजी वंश ने राज्य किया। इनके राज्य में मालवा की सीमाओं में विस्तार हुआ । 1469 में महमूद खिलजी के निधन के बाद उसका पुत्र गयासुद्दीन खिलजी ने 31 वर्षों तक शासन किया उसके राज्य में मालवा ने सुख शांति और समृद्धि के नये सोपान चढ़े।

मांडू में बाजबहादुर का शासन-

1534 में हुमायू ने मालवा पर अधिकार कर लिया। 1542 में शेरशाह सूरी ने मांडू अपने कब्जे में कर लिया और शुजात खाँ को यहाँ का राज्यपाल नियुक्त किया। 1554 में शुजात खाँ की मृत्यू के बाद उसका पुत्र बायजीद अली ने बाजबहादुर के नाम से सिंहासन पर बैठा। इसने प्रारंभ में तो कुछ उत्साह दिखाया लेकिन रानी दुर्गावती के हाथो मात खाने के बाद उसने युद्ध से तौबा ही कर ली । वह संगीत का पुजारी बन गया। यह वही बाजबहादुर था जिसकी प्रेम कहानियाँ मैं बचपन से पढ़ती आ रही थी।

हसरतों का शहर मांडू –

बस एक धचके के साथ रुकी मैंने आँखें खोली । बस मांडू के इस स्टॉप पर खड़ी थी। तब बस सुर्य सिर के ऊपर आने ही वाला था लगभग साढ़े ग्यारह बज रहे थे। लगातार बैठने के कारण पैर अकड़ गये थे बड़ी मुश्किल से हिला-डुलाकर सब के साथ नीचे उतरी । देवकी दीदी को उतरने में मदद की। हम दो छोटी बसों में ओंकारेश्‍वर से यहाँ तक आये थे, बस ड्राइवरों से तय किया गया था कि वह शाम को हमें धार जाने वाली बस में बैठा देंगे इस बीच वे हमारे सामान की जिम्मेदारी भी उठायेंगे। अतः अपने हेंड बेग के साथ सभी साथी करंज की छाया में एकत्र हुए। सामने ही हमारी हसरतों का शहर मांडू खड़ा अपने अतीत की गौरव गाथा सुनाने को बेकरार था।

मांडू शहर बारह दरवाजों के भीतर

प्रवेश द्वार हमसे कुछ ही दूर पर था। हमारे हमसफर भाई लोग आगे बाकी सभी ने उनका अनुगमन किया। मांडू शहर बारह दरवाजों के भीतर है प्रवेश द्वार के बाद हमने आलमगीर दरवाजा पार किया इसी प्रकार भंगी दरवाजा,गाड़ी दरवाजा,दिल्ली दरवाजा, भगवान्या दरवाजा,तारापुर दरवाजा,सोनगढ़ दरवाजा,जहाँगीरपुर दरवाजा,लवानी दरवाजा,रामगोपाल दरवाजा,त्रिपोलिया दरवाजा प्रवेश द्वार के पूर्व उत्तर में स्थित कांकाड़ा खो जिसे रैदास कुण्ड भी कहा जाता है।

मांडू का सात कोठड़ी –

यहाँ विभिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ संरक्षित हैं वनमंडल मांडू द्वारा जीवाश्म संग्रहालय का निर्माण कराया गया है। हमने दूर से ही इसका अवलोकन किया। परमारकालीन गुफाएं जिनका प्रयोग सुल्तानों ने चेक पोस्ट के रूप में किया और जहाँ पवारों ने शिवलिंग की स्थापना करके देवस्थान के रूप में परिवर्तित कर दिया। इन्हें सात कोठड़ी कहा जाता है। इनकी पहली गुफा में एक फिट तक सदा शीतल जल भरा रहता हैं तो दूसरी में जहाँ शिव लिंग विराज रहा है कुनकुना पानी रहता है। इन्हें देखते आपस में चर्चा करते हम लोग ओ बढ़ रहे थे। आगे दिलावर खाँ की मस्जिद है जो प्राचीनतम् भारतीय इस्लामी शैली की सबसे पुरानी इमारत है। इसका निर्माण सन् 1405 में सुलतान हसन दिलावर खाँ ने इसे शाही परिवार के लिए बनवाया था। लाल पत्थर की बनी है हमने इसे भी बाहर से ही देखा। हिंडोला महल के उत्तर में एक बड़ी सी खिड़की है कहते हैं मुगल सम्राट जहाँगीर इसी झरोखे में बैठ कर प्रजाकी शिकायतें सुनता था दिल्ली और आगरा में भी ऐसे ही झरोखे हैं यहाँ दरवाजे पर बाघ की प्रतीमा लगी है इसी कारण से इसका नाम नाहर झरोखा पड़ा मालूम होता है।

नारी जीवन की विवशता-

दोपहर की धूप हमारे सिर पर पड़ रही थी लेकिन हम इससे बेखबर थे। अतीत की परिस्थतियाँ मेरे जेहन पर अधिकार किये बैठी थीं जब मनुष्य का जीवन अपनी अज्ञिमता की रक्षा केलिए नित्य ,खूनी खेल खेलने पर विवश था। इसके साथ ही उनका कला प्रेम पूरी तरह परवान चढ़ता था हरमों में हजारों हजार महिलाएं एक ऐसे पुरुष की पत्नी बनकर रहती थीं जो सदा युद्ध क्षेत्र में शत्रु का सामना कर रहा होता था। कई महिलाएं तो जीवन में अपने पति से एक दो बार ही मिल पातीं थीं खाना कपड़ा और सोने के लिए एक छोटा सा स्थान इसके अतिरिक्त मिलते थे ईर्ष्या, द्वेष, षड़यंत्र, शासक यदि पराजित हो गया तो विजयी सैनिको के लिए आमोद सामग्री! आजन्म गुलामी, कोठे, या सामूहिक मरण। युवा पुत्रों को युद्ध की बलिवेदी पर बलिदान देने के लिए उन्हें जन्म देना पालना पोसना और उनकी शहादत पर मातम करना, बस यही तो था नारी जीवन।

मांडू का हाथी पोल –

अब हम लोग हाथी पोल के सामने थे। यह परिसर का प्रवेश द्वार हैं शाही भवन के उत्तर की ओर स्थित इस द्वार पर हाथियों की खंडित मूर्तियाँ हैं वास्तु कला की दृष्टि से यह बहुत श्रेष्ठ है यह जहाँगीर के कुशल इंजीनियरों के द्वारा बनवाया गया था। इसी अहाते में गदाशाह की दुकान,और महल बहुत ही प्रभावशाली है। ये हिन्दू वास्तु शिल्प के अन्यतम उदाहरण हैं। गदाशाह मेदिनी राय का उपनाम है यह महमूद द्वितीय का कर्मचारी था यह एक सफल व्यापारी था यह सुल्तानों को कर्ज देता था। उसकी दुकान का प्रयोग दीवाने खास के लिए किया जाता था। उसकी दुकान में देशी विदेशी सभी तरह की वस्तुंएँं मिलती थीं। यहाँ अंधेरी-उजली बावड़ियों को जल संरक्षण के लिए बनवायी गईं थीं यह एक दो मंजिला भवन है। नीचले भाग में महराबदार दरवाजे और पीछे कमरे हैं ऊपर की मंजिल पर एक बड़ा कमरा और दो पीछे के कमरे हैं। कमरे के बीच एक फव्वारा है जिसका जल अनेक नालियो द्वारा बाहर पहुँचाया जाता है। महल के अन्दर वाले कमरे में मेदिनी राय और उसकी पत्नी के चित्र लगे है।

हिंडोला महल –

हम लोग हिंडोला महल के पास पहुँचें। यह भवन लाल व उघड़े पत्थर का बना है इसकी निर्माण शैली पर रामन ग्रीक और हिन्दू शैली स्पष्ट परिलक्षित होती है। इसकी बगल की दीवारें थोड़ी झुकी हुई हैं नीचे जिनकी चौड़ाई अधिक किंतु ऊपर में कम हैं यह मावा के सुल्तानों का दीवाने खास था । राजा यहाँ तक हाथी पर बैठ कर आते थे। राज परिवार की महिलाओं के बैठने के लिए पूर्व मे बालकनी है जहाँ तक वे पालकी से आतीं थीं। उत्तर की बालकनी में हिंदू देवी देवताओं की मूर्तियाँ हैं जिन्हें ब्रिटिश काल में उल्टी कर के लगवा दिया गया था। पूरी संरचना एक झूले जैसी है। इसकी मजबुती और कलाशिल्प को देख कर मन मुग्ध हुआ जा रहा था ।

इस समय मेरी नोट बुक पटेल जी के हाथ में थी वे इस संस्मरण के लिए अधिक से अधिक जानकारी लिखते जा रहे थे। हेम लता वेदमति को संभाले चल रही थी। मुझे पूरा अवसर था इतिहास में डूब जाने का।

चंपा बावड़ी –

आगे चंपा बावड़ी है मुंज ताल के उत्तर में जिसका आकार चंपा के फूल की तरह है । इसे देख कर लगता है कि मांडू के शासक जल संरक्षण के प्रति कितने सतर्क थे। शाही महल से यह बावड़ी इस तरह संलग्न हैकि आपात्काल में शाही परिवार को सुरक्षित स्थान पर जाने की सुविधा हो । महल की सुरक्षा में भी इसकी भूमिका महत्त्वपूर्ण है। महल के तहखाने मुंलताल से इस प्रकार लगे हुए है कि तालाब की शीतल वायु तहखाने को हमेशा वातानुकूलित रखती है। चंपा बावड़ी के पास ही हमाम स्थित है जहाँ की छत पर सितारें के आकार के रोशनदान बने हैं जिसने रोशनी ओर हवा आती रहती है। गरम एवं ठंडे पानी की व्यवस्था की जानकारी मिलती है।

जहाज महल –

अब हम जहाज महल के सामने थे। कपूर ताल और मुंजताल के बीच बना यह भवन वास्तु कला की दृख्टि से मांउू की सर्वश्रेष्ठ इमारत है। लाल पत्थर से से निर्मित इस भवन का निर्माण संभवतः 1469 से 1500 के मध्य सिंगार रस के प्रेमी सुल्तान गयासुद्दीन खिलजी ने करवाया था। अपने-अपने समय में सभी शासकों ने इसे सजाया संवारा । 121.3 मी. लंबे और 15.2 मीटर चौड़े व 9.8 मीटर ऊँचे इस इस महल की छत पर चढ़ कर हमने जल से भरे मुंज ताल और कपूर ताल में इसकी प्रतिछाया देखी जो किसी लंगर डाले जहाज जैसा दिख रहा था। पठारी ठंडी रात में बहुमूल्य आभूषणों से श्रृंगारित नवयौवन के भार से लदी रमणियों के मृदुल हास से गूंजित रत्नजडित तख़्तों पर विराजमान् दरवारियों से सुशेभित सभागार की कैसी अद्भुत् शोभा रही होगी ? जहाज महल की छत पर टहलते हुए मन अतीत में खो गया था मेरा। छत से विस्तृत फैले, पन्ने का परिधान पहने सममतल मैदान नेत्रों में समा नहीं रहे थे।

जामा मस्जिद –

हमने नीचे उतर कर अपने समय के वैभव का यशगान करती जामा मस्जिद जो दमिश्क की विख्यात मस्जिद के समान बनायी गई है और जिसका निमार्ण होशंगशाह ने राज परिवार के लिए करवाया था, जिसे 1454 में महमूद खिलजी ने पूरा करवाया था । देश की अन्य प्रसिद्ध मस्जिदो में अपना नाम लिखवाने वाली इस मस्जिद की सुन्दरता का रसपान हमने अपने नेत्रों से किया। विशाल गुंबजों एवं विसतृत प्रार्थना कक्ष और लंबे -चौडे आंगन में लगे शोभनीय पौधों की मोहक पंक्तियों को देखकर मैने मांडू की श्रेष्ठ स्थापत्य कला को सराहा। हमने बाहर से ही इस आराधना स्थल के दर्शन किये।

अशर्फी महल –

जामा मस्जिद के सामने ही अशर्फी महल है जो आज बेहद जीर्ण शीर्ण अवस्था में हैं किंतु इसका यह यप् भी इसके अतीत का गुणगान करते नहीं थकता । एक समय यह जामा मस्जिद के पास अध्यात्म शिक्षण महाविद्यालय था जिसने 1443 में महमूद खिलजी के मेवाड़ के राणा कुंभा पर विजय के बाद कीर्ति स्तंभ का रूप ले लिया था। श्वेत संगमरमर और लाल पत्थर से इसी भवन में खिलजी वंश का मकबरा बनवाया गया है। सन् 1605 में अकबर ने भी इसकी मरम्मत का आदेश दिया था। महल के नाम के पीछे एक कहावत है कि सम्राट जहाँगीर की प्राणप्रिय मल्लिका नूरजहाँ इसकी ऊँचाई के कारण इस पर चढ़ने से कतरा रही थी तब जहाँगीर ने प्रत्येक सीढ़ी के लिए एक अशर्फी देने की चुनौती दी । नूरजहाँ ने सारी सीढ़ियाँ चढ़ कर बादशाह से अशर्फियाँ वसूल की और उसे गरीबों में बाँट दिया तभी से इसका नाम अशर्फी महल पड़ गया।

आल्हा उदल की सांग –

जामा मस्जिद के प्रांगण में ही आल्हा उदल की सांग गड़ी है इसके बारे में जनश्रूति है कि महोबे के राजा को मांडू नरेश ने मार दिया था। आल्हा-उदल बड़े पराक्रमी योद्धा थे बाद में उन्होंने बदला लिया और विजय के बाद युद्ध में काम आने वाली एक विशाल अष्टधातु की छड़ यहाँ गाड़ दी। मैंने आल्हा उदल की वीरता की कई कहानियाँ अहीरों के गीत बीरहा में उनकी शौर्य गाथाएं सुनी है आल्हा उदल नामक पुस्तक हमारे घर में थी। जिसे पिता जी बड़े जोशो-खरोश के साथ गाया करते थे जब मुझसे उन्हे अपनी ड्यूटी में पहने जाने वाले कपड़े पटक-पटक कर धुलवाने होते थे। जन श्रूति तो यह भी है कि आल्हा उदल अमर हैं वे मैहर में रहते हैं,जब भी प्रातः मंदिर का पट खुलता है माँ के चरणों में ताजे खिले पुष्प चढ़े मिलते हैं ।हमारे साथियों के अतिरिक्त और लोग भी उस सांगी के पास खड़े होकर उन्हीं की ही चर्चा कर रहे थे।

श्रीराम मंदिर –

अब हम लोग श्रीराम मंदिर में के सामने पहुँच कर सिर झुका रहे थे भारत भर में अकेला श्री राम का यह चतुर्भुजी रूप है। इसका निर्माण सन् 1770 में हुआ था कहते हैं कि किसी को सपना आया था कि यहाँ तलघर में भगवान् की मूर्तियाँ हैं खोज करने पर तलघर से राम सीता लक्ष्मण सूर्य नारायण व शांतिनाथ प्रभु की प्रतिमाएं मिली थीं। इनमें से शांतिनाथ की प्रतिमा तो जैनियों को सौंप दी गई । बाकी मंदिर बनाकर स्थापित कर दी गईं। प्रतिवर्ष रामनवमी पर यहाँ मेला भरता है। मेरे ज्ञान कोष में लगातार वृद्धि हो रही थी।

दिगंबर जैन मंदिर –

जामा मस्जिद के दिगंबर जैन मंदिर के दर्शन हुए जिसका निर्माण गंगवगवाल परिवार द्वारा 1961 में हुआ। यह मंदिर चंद्रप्रभु जी को समर्पित है। यहाँ एक धर्म्ा शाला भी बनी है। हमने श्वेताम्बर जैन मंदिर के भी दर्शन किये यहाँ शांतिनाथ जी के साथ ही सुपार्श्वनाथ जी के दर्शन हुए। इस मंदिर के प्रांगण में जंबू द्वीप की सुन्दर रचना देख कर मन ही मन रचनाकार की तपस्या की प्रशंसा करनी पड़ी।

रानी रूपमति महल –

अब हम मांडू के सबसे बडे़ आकर्षण रानी रूपमति के महल का दर्शन कर रहे थे। यह वही इतिहास प्रसिद्ध इमारत है जहाँँ रानी रूपमती और बाजबहादुर का प्रेम परवान चढ़ा । इसका निर्माण खिलजी वंशी सुल्तान गयासशाह के पुत्र नासिरशाह ने 1508 में करवाया था। ऊँची पहाड़ी पर बने इस भवन की छत से पूरे क्षेत्र की निगरानी की जा सकती है। हमने बासतु कला के उस अन्यतम् उदाहरण को नैन भर कर देखा । ऊँचाई अधिक होने के कारण देवकी दीदी एक पेड़ के चबुतरे पर बैठ गईं बाकी सब लोग ऊपर चढ़ने लगे । दो तरह का रास्ता है एक तो पहाड़ी की ढाल वाला और दूसरा सीढ़ियों वाला । हम लोग सीढ़ी से चढ़ रहे थे। प्रथम तल के नीचे तलघर में वर्षा जल एकत्र था पूछने पर पता चला कि दरअसल इसका निर्माण दसवी सदी में परमार राजा भोज ने सैनिक चौकी के रूप में करवाया था। वर्षा जल एकत्र कर उसे शुद्ध करके वर्षभर सैनिकों के पीने आदि के लिए किया जाता था। हमारे पूर्वज जल संरक्षण में हमसे कितने आगे थे मैं आश्चर्य चकित थी। जैसे-जैसे राजवंश बदले इन महलो के स्वामी भी बदलते गये। सभी ने अपनी आवश्कता एवं अभिरुचि के अनुसार परिर्वतन किया। इस समय नीचे के तल में बहुत सारे कमरे हैं जिनकी छतों एवं दीवारों को भाँति-भाँति से सजाया गया है। कुछ भग्न मूर्तियाँ भी दृष्टिगोचर हुईं।हम छत पर पहुँचे, छत के दोनों सिरों पर दो झरोखे बने हुए हैं जहाँ तेज हवा के झोंके तन मन आनंदित कर देते हैं हमने वहाँ खड़े होकर दूर तक फैले मैदान, हरियाली, मंदिर, अन्य भवन आदि को देखा। बनाने वाले ने बहुत सोच समझ कर इस स्थान का चयन किया होगा।

रानी रूपमती की प्रेम कहानी-

रानी रूपमती के झरोखे में खड़े होते ही दिल में मीठा- मीठा दर्द उठने लगा। सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य अपने जीवन में ऐसा अवसर नही आया कि हम अपनी जान दे दें किसी के लिए । ऐसा यदि हो जाता तो आप के लिए कहानियाँ कौन लिखता ? संस्मरण कौन लिखता? हाँ दूसरों के प्रेम की पीड़ा अवश्य अनुभव करती हूँ , उस समय भी मेरी हालत ऐसी थी जैसे मैं बाजबहादुर को रानी रूपमती की कब्र पर सिर पटकते देख रही होऊँ। प्रेम और समर्पण की यह कहानी आप को सुनाकर मन हल्का करूँ जरा सा।- जब 1542 में शेरशाह सूरी ने मांडू पर अधिकार किया तब शुजात खाँ को यहाँ का राज्यपाल बना कर भेजा। 1554 में शुजात खाँकी मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र बायजीद अली बाजबहादूर के नाम से मांडू के सिंहासन पर बैठा। वह एक महान् संगीतकार था भारतीय संगीत का साधक बाजबहाददुर प्रारंभ में तो राज्य की सीमा बढ़ाने में रुचि लेता रहा परन्तु रानी दुर्गावती के हाथों बुरी तरह हारने के बाद उसने युद्ध से तौबा कर ली।

उस समय मांडू से 24 किलो मीटर दूर धर्म पूरा नामक गाँव के ब्राह्मण की कन्या रूपमती अपने अद्भुत् सौंदर्य के साथ अपने गायन के लिये भी ख्याति प्राप्त कर चुकी थी। उसके पिता को उसी के समान गायन में प्रवीण जामाता हेतु स्यंबर करना पड़ा था कहते हैं चंदेरी के राजा मानसिंह के साथ रूपमती का विवाह हुआ था । चंदेरी में कोई नदी न होने के कारण रूपमती छ:-चार दिन बाद भूखी-प्यासी अधमरी सी घर वापस आ गई थी तब से उसने ससूराल का रुख नहीं किया था। नर्मदा दर्शन के पश्चात् ही अन्न जल ग्रहण करने की प्रतिज्ञा उसके पिता ने अपनी सभी संतानों से बचपन में ही करवा ली थी।

किसी कार्यक्रम में मुलाकात हुई तो बाजबहादुर एकदम से रूपमती पर मर मिटा । उसने उसके समक्ष विवाह का प्रताव रख दिया । अपना जीवन हिन्दू रीति से चलाने की स्वतंत्रता और माँ नर्मदा के नित्य दर्शन के बाद ही अन्न ग्रहण करने की आजादी के साथ रूपमती ने बाजबहादुर की जीवन संगिनी बनना स्वीकार कर लिया। एक सुर तो एक संगीत, दो देह एक प्राण बाजबहादुर रानी रूपमती ।

गयासशाह द्वारा निर्मित इस सैनिक चौकी को बाजबहादूर ने रानी रूपमती नर्मदा दर्शन के लिए उपयुक्त समझा। वह प्रति दिन प्रातः यहाँ आती झरोखे से दूर बहती माँ नर्मदा के रजत वर्णी जल का दर्शन करती तब कही जाकर अन्न जल ग्रहण करती। इस महल के सामने ही बाजबहादुर का महल भी है जिनमें बैठकर दोनो सुर साधना में लीन हो जाते थे। कभी कभी कोहरे वाले दिनों में रानी रूपमती को ’नर्मदा जी के दर्शन नहीं हो पाते थे उस दिन वह निराहार ही रह जाती थी, इस असुविधा से बचने के लिए बाजबहादुर ने एक पुराने कुण्ड को नर्मदा की अंतःस्रावी धारा से जोड़वा दिया रानी इस कुण्ड का दर्शन परसन कर कोहरिले दिनो में अपनी प्रतिज्ञा पूरी करती थी।

उस समय दिल्ली में अकबर बादशाह राज्य करता था। उसने जब रूपमती की गायकी और सौंदर्य की चर्चा सुनी तो दिल्ली दरबार में अपनी कला का प्रदर्शन करने हेतु आदेश भेज दिया। बाजबहादुर को यह अपने प्रेम का अपमान प्रतीत हुआ। उसने संदेश भेज दिया कि बादशाह यदि चाहें तो अपने हरम की बेगमों को मांडू भेज दें गायकी के लिए। इससे बादशाह बेहद खफा हो गया और अपने सेनापति आदम खाँ को मांडू विजय कर बाजबहादुर को कैद करने के लिए सेना के साथ भेजा। मुगल सेना सारंगपुर से दस कोस दूर थी कि बाजबहादुर पीछे हट गया। और आदम खाँ ने मालवा पर अधिकार कर लिया। बाजबहादुर मुगल सेना के हाथ लग गया।

विजय मद में चूर आदम खाँ रानी रूपमती के सपने देखने लगा। उसने रानी के पास सूचना भेजी कि यदि वह प्रसन्नतापूर्वक उसके पास न आई तो वह बल प्रयोग कर उसे अपना बनायेगा। रानी ने सोलह सिंगार कर उसके पास आने की खबर भेज दी। वह अत्यंत प्रसन्न हो गया। रानी ने नख सिख सिंगार किया और अंत में पान खाया जिसमें बाजबहादुर द्वारा भेंट की गई हीरे की अंगूठी का चूर्ण मिला हुआ था। उसे खाकर इस प्रेम दीवानी ने अपने प्रेम के मान की रक्षा की । जब आदम खाँ उसके कक्ष में पहुँचा तो सारा माजरा समझ कर सनाका खा गया। अकबर ने जब इश्क की यह दास्तां सुनी तो अपने किये पर बहुत पछताया। उसने बाजबहादुर को कैद से बिना शर्त रिहा कर दिया। वह मांडू के पास सारंगपुर गाँव में वहाँ पहुँचा जहाँ रूपमति की कब्र थी अपनी प्रिया की कब्र पर सिर पटक-पटक कर उस पागल प्रेमी ने अपने प्राण गवाँ दिये। अभी भी सारंगपुर में उन दोनों की कब्र है जो इस अलौकिक प्रेम कथा का गायन कर रही है।

हवा का तेज झोंका मेरे जिस्म से टकराया, कुछ अजीब सी अनुभूति हुई मानों मेरी सहानुभूति पाकर रानी मुझसे गले मिल कर रो पड़ी हो। हमारे सभी साथी अपनी-अपनी तरह से रानी रूपमति के महल की चर्चा कर रहे थे। हेमलता नीचे ही रह गई थी। वह एक पेड़ के चबुतरे पर बैठी अपनी हथेलियों पर ठोढ़ी टिकाये न जाने क्या सोच रही थी। पटेल जी ने नोट बनाते-बनाते लिख दिया-’’ रानी रूपमती के महल की छत से नीचे देखा तो एक सेहतमंद युवती विचार मग्न बैठी थी मन में आया कहीं रानी ही तो नहीं बैठी है अपने बाजबहादुर का इंतजार कर रही है? फिर जरा घ्यान से देखा तो वह मेरी साली हेम लता थी। ’’ इसके बाद पुनः नोट्स आगे बढ़ गया था।

हमने देखा कि मांडु के प्रायः सभी स्मारक प्राकृतिक प्रकोप द्वारा नष्ट प्राय हो गये हैं किंतु खनन से प्राप्त अवशेष भी इसके प्रचीन वैभव का बखान कर देते हैं।

तवेली महल –

नीचे आकर हम लोग फिर जहाज महल के पास आये इसके दायी ओर तवेली महल हैं प्राचीन काल में यहाँ घोड़े रहा करते थे। घोड़ों के रहने के सथान को तवेला कहा जाता है। तवेली महल उसी का बिगड़ा हुआ रूप है। ऊपर की मंजिल पर अश्वपाल,आदि रहते होंगे ऐसा अनुमान है।

पुरात्‍त्‍व संग्राहलय-

आजकल तो नीचे पुरातत्व विभाग का कार्यालय व संग्रहालय है। संग्रहालय में अरबी में लिखे शिला लेख दिखाई दिये जिन्हें भी पढ़ नहीं पाया। महल के ऊपरी भाग मे । एक धर्मशाला बनी है जिसमें सरकारी अधिकारी ठहरते है। इस महल तक भी हमारे कम ही साथी पहुँच सके । हम लोग आकर एक करंज पेड़ के नीचे बैठ गये। सामने ही रंगबिरंगे फूलों से सुशोभित उपवन है जिधर से सुगंधित वायु आकर हमें प्रसन्न कर रही थी। पेड़ के पास ही मरम्मत के लिए गारा बनाया जा रहा था। स्मारकों की टूट फूट को ठीक करने के लिए। उनकी वस्तु स्थिति ज्यों की त्यों बनाये रखने के लिऐ उन्ही वस्तुओं का प्रयोग किया जा रहा था जिनसे पहले उनका निर्माण हुआ था। गारा बनाने के लिए चूना,लाल ईंट का चूरा गुड़,बेल का गूदा उड़द की दाल काले छोटे दाने वाली, और सीमेंन्ट मिला कर बैलों की जोड़ी से गारा तैयार किया जा रहा था ताकि मरम्मत का आभास न हो और मरम्मत हो भी जाये। एक गोल घेरे में उपरोक्त वस्तुएं रखी गई थीं बैलों के साथ जैसे हल को जोड़कर जोताई की जाती है वैसे ही हल की जगह एक बेलन ण्क मोटे से पाइप में फंसा कर जोड़ा गया था बैलों के गोल-गोल घूमने पर बेलन लुढ़कता हुआ गारे की सामग्री को बारीक करता जाता है। बारीक गारा गोले के किनारे बने नाली जैसे घेरे में गिरता है जहाँ से मजदूर उठा कर आवश्यकता वाले स्थान पर ले जाते हैं। हमारे साथी श्री अशोक तिवारी जो विनोदी स्वभाव के लिए हमारे बीच जाने जाते हैं ने आगे बढ़ कर बैल हाँकने वाले व्यक्ति से छड़ी लेकर उसे किनारे कर दिया और मुँह से अर्र् ततर् की ध्वनि निकालते उन्हें हाँकने लगे। हम सभी बरबस हँस पड़े ।

रानी रूपमती के महल के पास बाजबहादुर पैलेस है जहाँ संगीतकारों के साथ बाबहादुर सुर साधना करता और रूपमती अपने गायन से मांडू की वादियों में अमृत वर्षण करती। इन कक्षों की संरचना कुछ ऐसी है कि आवाज गूंजती है। आज तो वहाँ मात्र ऐसे लोग हैं जिन्हें इस प्रेमी युगल से हमदर्दी है।

आज दोपहर का भोजन नहीं हुआ था अतः हम सभी भूखे थे भूखे पेट थकान भी अधिक लगती है। त्रिपाठी जी श्री माया रेस्टोरेंट में जाकर बैठे , हम सभी ने उनका अनुगमन किया। नाश्ता करके जान में जान आई । अब तक सूर्य पश्चिम की ओर झुक चुका था। एक बार अधिक समय के साथ मांडू आने की हसरत लिए में अपने दल के साथ कथित मोटर स्टेंड आ गई जहाँ कुछ करंज के वृक्ष थे। ये दो तीन वर्ष से अधिक पुराने नहीं थे। उन्हीं की छाया में कुछ ठेले वालों ने गुपचुप, समोसे आदि की दुकान लगा ली है। त्रिपाठी जी, शर्मा एवं पटेल जी गुपचुप खाने लगे।
ठेलों केपास एक दो सटूल थे हम लोग उन्हीं पर र्बठे अब हमें इन्दौर जाने वाली बस का इंतजार था।

अनोखा इंटरव्‍यू-

ओंकारेश्वर से मांडू लाने वाले दोनो ड्राइवर सड़क के किनारे जमीन पर पूरी तरह पसर कर आराम से अपनी ऊब को आराम बना रहे थे। पटेल जी के हाथ में नोट बुक और पेन था मूड एकदम हल्का-फुल्का। वे दोनों का इन्टरव्यू लेने लगे-
’’नाम क्या है तुम्हारा ?’’
’’पुनित आर्य। ’’
’’कुँआरे हो?’’
’’ हाँ जी।’’
’’ हम अपने यहाँ लड़की ठीक करें तुम्हारे लिये?’’प्रश्न सुनकर उसकी पलके झुक गईं । उसकी इस अदा को स्वीकार समझ कर पटेल जी ने अगला प्रश्न किया–’’ कैसी लडकी चाहिए ?’’
वह चुप रह गया।
’’ गोरी लड़की चाहिए ।’’ उनके इस प्रश्न से उसका था चेहरा मुस्करा उठा ।
’’ दहेज तो नहीं माँगोगे?’’
’’ जो दे देंगे ले लेवेंगे जी।’’
’’ गाली गलौज मार-पीट तो नहीं करोगे?’’
’’ तो फिर ठीक है हम को अपना फोन नंबर दे दो !’’उसने एक कागज पर लिख कर अपना फोन नंबर दे दिया। पटेल जी दूसरे ड्राइवर की ओर मुखातिब हो गये उसका नाम नवाब पठान था उसने बताया कि परिवार बढ़ाने की इच्छा नहीं हैं इसलिए कुँआरा है। बाद में जब उसकी झिझक मिटी तब बताया कि उसे पाँच फिट सात इंच लंबी लड़की चाहिए । पटेल जी ने अपने पहले की शर्तें दुहराई और शादी लगाने का वादा किया। मैं दूर से ही उनके ऊपर नजर रखे हुए थी जैसे ही उन्होंने मुझे देखा मैं अर्थ पूर्ण ढंग से मुस्कुरा उठी वे भी ऐसे मुस्कुराये जैसे कह रहें हो देखा कैसे बंद्धू बनाया।

मांडू से अलविदा-

बड़े आकार के सीता फल टोकरी में लिए एक औरत बेच रही थी। आपको बता दूँ फलों में सबसे अधिक मुझे सीता फल ही पसंद है। मैने कुछ पके फल खरीदे और सभी के साथ बाँट कर खाने लगी। एक औरत निर्घंडी के सूखे फूल बेंच रही थी समय काटने केलिए उससे बातचीत शुरू की तो उसने बताया कि इसे पानी में उबाल कर पीने से मोटापा दूर हो जाता है। मैं भी उसी ओर जा रही हूँ और उससे बचने के लिए सरल से सरल उपाय की खोज में रहती हुँ क्योंकि खान-पान में परहेज मैं कर नहीं सकती व्यायाम मुझसे हो नही सकता, बस मोटी होने की चिंता में और मोटी होती रहती हूँ सो मैं दो पैकेट खरीद लिए अब यह दूसरी बात है कि उसे उबालकर पीना भी मुझसे न हो सका। हम सभी बस का इंतजार कर रहे थे आखिरी बस पाँच बजे आने वाली थी। समय कटा । बस आई हमारे पहले के ड्राइवरों ने हमारा सामान अपनी गाड़ी से निकाल कर धार जाने वाली बस में लादा हम सभी चढ़े और प्रेम नगरी मांडू को अलविदा कहा।

धार आकर हमें बस बदलनी पड़ी। हेमलता की बहन रहती है इंदौर में, उसने उन्हें फोन करके अपनी यात्रा के बारे में बताया तो उन्होंने घर पर ही रात गुजारने का आग्रह किया जिसे वह टाल न सकी सावित्री दीदी पर बेदमती भाभी की जिम्मेदारी डाल कर एक दिन के लिए अपनी बहन के घर जाने की इजाजत ले ली। इंदौर बस स्टेंड पर ही उसका भतीजा आकर उसे ले गया। लगभग नौ बजे हम लोग इंदौर पहुँच गये एक लॉज में कमरे लेकर हमने आराम किया। जो जा सकते थे लॉज से बाहर भोजन करने गये। मेरे लिए प्रभा दीदी के लिए और देवकी दीदी के लिए भाई लोग भोजन लेते आये। पटेल जी अपनी साली के विदा हो जाने पर थोड़े खिन्न थे दबी जुबान में कह रहे थे कि मेरी साली को मुझसे पूछे बिना किसने जाने की अनुमती दी? मैंने अपने आप ही बेदमती की जिम्मेदारी ली । उनके कमरे में जाकर देखा कि उन्हें किसी तरह की मदद की आवश्यकता तो नहीं है? सावित्री दीदी ने उनकी सार संभाल पहले ही कर दिया था। यहाँ हमारे कमरे में चार लोगों के लिए जगह कम थी ऐसे में माया ने बगल वाले कमरे में त्रिपाठी जी और दूबे जी के साथ जाकर हमारी सुविधा बहाल की। दिन भर में देखे गये स्थानों को मन में बसाये हम अगले दिन जल्दी उठने का संकल्प लिए निद्रा देवी की गोद में चले गये।

-तुलसी देवी तिवारी

शेष अगले अंक-भाग-8 इन्दौर शहर का भ्रमण

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