यायावर मन अकुलाया-8 (यात्रा संस्‍मरण)-तुलसी देवी तिवारी

यायावर मन अकुलाया (द्वारिकाधीश की यात्रा)

भाग-8 इन्दौर शहर का भ्रमण

-तुलसी देवी तिवारी

इन्दौर शहर का भ्रमण
इन्दौर शहर का भ्रमण

इन्दौर शहर का भ्रमण

गतांक भाग-7 पर्यटन स्‍थल मांडूू दर्शन से आगे

आदत के अनुसार अगले दिन (15. 10. 2016) सुबह मेरी नींद तीन बजे भोर में ही खुल गई मैंंने सोचा नहा धोकर आराम कर लूंगी। उठ कर देखा तो प्रभा दीदी बाशरुम में मिलीं देवकी दीदी भी जाग चुकी थीं। कुछ देर बाद ही माया अपने कपड़े लेने आ गई । और लोंगों के जागने से पहले ही नित्य क्रिया से निवृत्त हो जाने का उसका भी कार्यक्रम था । मैंने सोचा चलूँ बेदमती भाभी को देख लूँ। उस कमरे में पटेल दम्पत्ति और वैष्णव जी दोनों प्राणी ठहरे थे। जब मैने कमरा खोलवाया तो देखा कि भाभी स्नान कर चुकी हैं सावित्री दीदी उनको साड़ी पहनाने जा रहीं थीं मैंने उन्हें नहाने भेज दिया और भाभी को साड़ी पहना कर कंघी करके उनके विशेष स्टाइल वाला जूड़ा बना दिया। सिंदूर टीका लगा कर तैयार कर दिया। वैष्णव जी और पटेल जी कॉरीडोर में लगे वॉश वेसिन में ब्रश करने चले गये थे। वहाँ से अपने कमरे में आकर मैं भी तैयार हुई । हमने अपने पास रखे नाश्ते में से नाश्ता किया। और अपना सामान बांधकर रख दिया। घूम कर आने के बाद हमें तत्काल उज्जैन के लिए निकलना था ।

लालबाग पैलेश

सब लोग निर्धारित समय से नीचे आ गये। नीचे हमारे सारे साथी घूमने जाने के लिए हमारा इंतजार कर रहे थे। दो ऑटो में बैठ कर हम लोग इन्दौर शहर का भ्रमण करने चल पड़े। सबसे पहले हम लोग मध्यप्रदेश की व्यवसायिक राजधनी होल्करों के गौरव की साक्षी, वीर शिरोमणि मल्हारराव जी द्वारा सेवित देश के सबसे साफ-सुथरे शहर इन्दौर का दर्शन करते हुए ,बहुमंजिले भव्य भवनों,चौड़ी चिकनी और स्वच्छ सड़कों से गुजरते हुए शहर के मध्य खान नदी की सहायक सरस्वती नदी के तट पर बने इन्दौर के सबसे नयनाभिराम महल और साथ ही देश के सबसे सुन्दर गुलाबों का बगीचा देखने जा पहुँचे जिसे कहते हैं लालबाग पैलेश ।

लालबाग पैलेश में हरियाली का साम्राज्‍य-

तीन लौह कपाट में बने अश्व युगल सूर्य भगवान् की दिव्य छवि, जुड़वे सिंह के नमूने का अवलोकन करते हुए हमने अन्दर प्रवेश किया। हमारे सामने हरियाली का सुन्दर साम्राज्य था। आम ,इमली नीम जामुन,आदि के बड़े-बड़े वृक्ष हमारी दृष्टि सीमा तक दृष्टिगोचर हो रहे थे। प्रवेश द्वार के बाईं ओर पानी की एक टंकी है,उसी के पास टिकिटघर है, त्रिपाठी जी ने लाइन में लग कर हम सभी साथियों के लिए दस-दस रूपये का टिकिट ले लिया। हम लोग सामने की पक्की सड़क से आगे बढ़ने लगे। हमारे दोनो ओर भाँति-भाँति के वृक्ष, लताएं फूलों की क्यारियाँ देखते देखते मन अपने आप उल्लसित हो रहा था।

लालबाग पैलेश का इतिहास-

शिवाजीराव होल्कर, एवं तुको जी राव द्वितीय द्वारा बनवाया गया यह लाल बाग पैलेश जिसका वर्तमान नाम नेहरू केन्द्र है इसे इंग्लैंड के बर्मिघंम पैलेश के डिजाइन पर बनाया गया था जिसमें महारानी विक्टोरिया निवास करती थीं। इसके प्रवेश द्वार को इंग्लेण्ड से जहाज द्वारा मुंबई तक लाया गया था वहाँ से सड़क मार्ग से यहाँ तक लाया गया था। इसके निर्माण हेतु इंग्लैंण्ड से दक्ष वास्तुकार बुलाये गये थे। हम उस तीन मंजिली इमारत के पास पहुँच गये जिसे होल्करों ने अपने मेहमानों की सुविधा को ध्यान मे रखकर बनवाया था। महल के आस’पास कटावदार ईंटों को जमाकर सुन्दर मैदान जैसा बनाया गया है । बाहर से यह सफेद रंग की इमारत है । खिड़कियों पर लटकने वाले छज्जे बने है जिससे पानी की बौछार कमरे में न जा सके। पाइप द्वारा ऊपर का निस्तार अथवा वर्ष जल नीचे बनी नालियों तक लाकर नदी तक पहुँचाने की व्यवस्था दिखाई पड़ी।

लालबाग की सुंदरता-

सीढ़ियाँ चढ़कर हम महल के प्रवेश द्वार पर पहुँचे। महल के दरवाजे पर राज घराने की मुहर लगी हुई है, जिसका अर्थ है जो प्रयास करता है वही सफल होता है। आगे कलात्मक ढंग से बना बरामदा है। आगे काँच का बना बुनकरों का प्रतीक चिन्ह है जिसका अर्थ है आगे बढ़ना है तो मेहनत करो। दरो-दीवार पर नक्काशी बेमिशाल है । कमरे के अन्दर की छत में प्लास्टर ऑफ पेरिस के ऊपर सुनहरी परत चढ़ाकर चित्रकारी की गई है। इटली के मारबल फर्श से बनाया गया है। उस जमाने के फर्निचर करीने से सजा कर रखे गये हैं । (आज वे पुराने और फटेहाल हो गये हैं) महिलाओं और पुरूषों के लिए अलग-अलग बालरूम डांसिंग हॉल बने हैं । बिलियर्ड कक्ष में बड़ी सी टेबल रखी है। छतों पर झूमर लटकते देख कर उस समय की सुरुची का अंदाजा लग सकता है। एक बात और जो बहुत पसंद आई वह यह कि महल के अन्दर सूर्य का प्रकाश पर्याप्त मात्रामे आ रहा है पृथ्वी की गति को ध्यान में रख कर दरवाजे खिड़कियाँ और रोश्नदान बनाये गये हैं । वैसे तो इन्दौर शहर मे बिजली की आपूर्ति 1906 से प्रारंभ हो गई थी, किंतु वास्तुकार सूर्य की रोशनी के स्वास्थ्यकर प्रभाव से परिचित थे इसीलिए ऐसी अद्भूत् व्यवस्था की
सन् 1818 में इंदौर ब्रिटिश राज्य का हिस्सा बन गया, होल्करों ने राय बहादुर की पदवी धारण करके इस व्यवस्था को स्वीकार किया और अपने जीवन को पाश्चात्य शैली में ढालने का मन बना लिया। जीवन शैली में परिर्वतन की आकांक्षा का मूर्त रूप है यह लालबाग पैलेश।

लालबाग पैलेश का रसोईघर-

बालयम का लकड़ी का फर्श स्प्रिंगदार है जो चलने पर उछलता है जिसे नाचना न आता हो वह भी नाचता हुआ प्रतीत होता है। हम लोग महल की रसोई देख रहे थे। तत्कालीन भोजन निर्माण के उपकरण, चुल्हा-चौका ,बर्तन भाँड़े जो कांसे पीतल तांबे या तो चांदी के हैं हमें अपने युग की गौरव गाथा सुना रहे हैं। रसोई की खिड़की से झांकने पर खान नदी का तट दिखाई दे रहा था। इस कक्ष में एक सुरंग भी है जो बाहर एक द्वार के रूप में खुलता है। महल में बेल्जियम के काँच,पर्सियन कालीन,महंगे और सुन्दर झाड़फानूशलगाये गये हैं , पूरे महल में इटालियन संगमरमर का प्रयोग देखते ही बन रहा था। भारत एवं इटली के कई महान् चित्रकारों की अमर कृतियों से इसे सजाया गया है।
एक कक्ष में सिक्का संग्रहालय देखने को मिला जिसमे पुराने सिक्के सजा कर रखे हुए हैं।

लालबाग पैलेश का महाभोज कक्ष-

महाभोज कक्ष में कुर्सियाँ एक गोल सी मेज के चारों ओर लगाई गईं हैं लगभग सौ व्यक्तियों के बैठने की व्यवस्था है। सुन्दर झूमर ,कालीन और शानदार फर्नीर्चर दिखाई दिये । यहाँ होल्कर शाही मेहमानों को दावत देते थे। आगे हमने वाचनालय भी देखा जहाँ सभी विषयों की पुस्तके आलमारियों में सजा कर रखी गई हैं।

आगे हम बैठक कक्ष में पहुँचे यहाँ के फर्निचर भी अन्य कक्षें जैसे ही हैं, बेल्जियम के काँच की मीनाकारी की गई है। छत पर रोमन व ग्रीक शैली में चित्र बने हुए हैं । पता चला कि करीगरों ने लेट कर इन चित्रों का निर्माण किया था। फर्श पर बिछे कालीन कशीदाकारी के अन्यतम् उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। यहाँ से शाही परिवार के ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं । हम लोग महल के सिंहासन कक्ष में पहुँचे,यहाँ स्थित सिंहासन अंग्रजी के टी,एच, और आर, अक्षर के मेल से बना प्रतीत होता है। दीवारों पर काँच की सुन्दर नक्काशी,छत पर सुर्य देवता का चित्र, बड़े-बड़े झूमर, इसकी सुन्दरता को चौगुनी कर देते हैं। इस कक्ष में राजा का राज्याभिषेक होता था, मंत्री मंडल की बैठक, गुप्त मंत्रणा, राज्य कार्य कासंचालन इसी कक्ष से संपादित होता था। यहाँ महिलाओं के बैठने की पृथक व्यवस्था बनी हुई है जहाँ बैठ कर रानियाँ दरबार की कार्यवाही का अवलोकन करतीं थीं आवश्यकतानुसार वे अपना मत भी व्यक्त करतीं थीं। पास-पास स्थित राजा रानी के शयन कक्ष देखते हम लोग महल से बाहर आ गये।

लालबाग पैलेश के गुलाब के बगीचे –

महल से लगे हुए अहाते में ही लगभग सौ वर्ष पुराना एक शिवाला है हमने दर्शन पूजन कर प्रणाम किया। हमलोग इधर-उधर घूमते हुए बाग की शोभा देखने लगे । 68 एकड़ में फैले इस उद्यान की जल आपूर्ति हेतु विभिन्न स्थानो पर पाँच कुएं और बावलियाँ दिखाई दीं लेकिन सभी विपन्नावस्था में, रख-रखाव और साफ सफाइ्र के अभाव ने उनकी दुगर्ति कर दी है। पता चला कि यहाँ शाम सबेरे नगर वासी एक बड़ी संख्‍या में प्रात-भ्रमण हेतु आते हैं। भारत के सबसे सुन्दर गुलाब के बगीचे को भी देखा लाल गुलाबी काले पीले गुलाबों के अतिरिक्त शेर नस्ल के बड़े-बडे गुलाब के फूल देख कर मैं तो भौचक्की रह गई । कुछ लोग फूलों को तोड़कर बड़े जतन से टोकरियों रख रहे थे। कुछ कलमें तैयार कर रहे थे। गुलाब के फूल और सुगंध मेरी कमजोरी है। मेरा मन तो वही रुक जाने का हो रहा था। मैने देखा कि साथी लोग मुख्यद्वार की ओर बढ़ रहे हैं और प्रभा दीदी मुझे बड़ी हिकारत से देख रहीं हैं तो उधर से निगाहें हटा कर उनके साथ चल पड़ी।

माँ अन्नपूर्णा मंदिर इंदौर-

अब हमारे वाहन क्रान्ति कृपलानी नगर में अन्नपूर्णा रोड पर स्थित माँ अन्नपूर्णा मंदिर की ओर जाने लगी। मातृ शक्ति की प्रतीक माँ अन्नपूर्णा माता पार्वती का ही एक रूप हैं। समस्त लोकों के जड़ चेतन प्राणियों को भोजन देकर सबकी क्षुधा तृप्ति का प्रबंध करने वाली माँ अन्नपूर्णा की कृपा से ही मनुष्यों को भी भाँति- भाँति सुस्वादू भोज्य एवं पोषक पदार्थ प्राप्त होते हैं । कृतज्ञतावश मानव माँ की मूर्ति बना कर बहुविधि पूजन अर्चन कर आभार ज्ञापित करता है।

आज जहाँ यह भव्य मंदिर बना है आज से लगभग साठ पैसठ वर्ष पहले वहाँ एक महात्मा की कुटिया हुआ करती थी। उनका नाम तो ज्ञात नहीं हो सका मुझे , उन्होने ही इस मंदिर का शुभारंभ किया था । जब मंदिर बन कर तैयार हुआ तब 21 फरवरी सन् 1959 में महामंडलेश्वर स्वामी प्रभानंद गिरी जी ने इसका लोकार्पण किया।

मदुरै के मीनाक्षी मंदिर से समानता-

हमारा दल जब मंदिर के सामने पहुँचकर अपने वाहन से उतरा तब तक धूप तेज हो गई थी। सभी लोग उतर कर मंदिर के सामने खड़े होकर प्रणाम करने लगे। हमारे सामने मदुरै के मीनाक्षी मंदिर के शिल्प का एक खूबसूरत मंदिर खड़ा था। जिसके विशाल प्रमुख द्वार के दोनो ओर पूरे आकर के दे-दो हाथी सवार सहित ऐसे खड़े हैं जैसे मूर्ति न होकर सचमुच के हाथी हों जो सुरक्षा के साथ ही दर्शनार्थियों के स्वागत के लिए तत्पर हो। (मदुरै में निकास द्वार से थोड़ा सा पहले जीवित हाथी अपने पिलवान सहित उपस्थित रहते हैं दर्शनार्थियों की पूजा स्वीकारने हेतु) प्रमुख द्वार के ऊपर छज्जा डाल कर उसके ऊपर एक बहुत ही कलात्मक दीवार उठा कर उसके ऊपर विष्णु भगवान् के प्रमुख अवतारों की सुन्दर-सुन्दर मूर्तियाँ बैठाई गईं हैं। दायीं ओर एक खाली रथ खड़ा है जिस पर बैठा सारथी लगता है जैसे किसी का इंतजार कर रहा है। चारों ओर वेद मूर्ति के रूप् में विराजित हैं। छज्जे केऊपर छज्जा बनाते चार मंजिले हैं जो पहली मंजिल के बाद दो स्‍थानो से विभाजित हो गईं हैं शिखर वाले छज्जे पर मध्य में शिव पार्वती की सुन्दर प्रतिमा विराजित है। मैंने बाहर से ही इन्हें अपने कैमरे में संचित कर लिया अन्दर तो चित्र उतारना लगभग सभी मंदिरों में वर्जित ही रहता है।

माता अन्‍पूर्णा की अद्भूत विग्रह-

हमने चौखट पर माथा टेक कर माता के विशाल प्रांगण में प्रवेश किया । आगे-आगे शर्मा जी पटेल जी आदि और पीछे-पीछे और लोग । पक्का प्रांगण, पेय जल के लिए प्याऊ सारी सुव्यवस्था। बरामदे से ही बेरिगेट लगाकर महिलाओं और पुरुषों की पक्ति पृथक कर दी गई है। हम लोग लाइन से आगे, बढ़े माँ अन्नपूर्णा का हृदयहारी विग्रह सामने ही था। शेर पर आसीन माता का श्वेत संगमरमर निर्मित चार भुजाओं से युक्त जीवंत विग्रह गेंदे के बहुरंगी फूलों की मालाओं से आवृत था। आठ भुजाधारी हैं । उनके दाहिने तरफ वाले उपर के हाथ मे सतघ्नी उससे नीचे वाले में तलवार,उससे नीचे वाले में त्रिशुल और सबसे नीचे वाले हाथ में भरा हुआ भोजन पात्र शोभा पा रहा है, और बायें तरफ वाले हाथों में सबसे उपर शंख उससे नीचे वाले में गदा, और उससे नीचे वाले में गदा और सबसे नीचे वाले में अन्न पात्र है। माँ नथ,बिंदी,गले मे अनेक प्रकार के हार, कर्णफूल,चूड़ी,और माथे पर रजत मुकुट धारण किये अपने भक्तों को निर्भय करने वाली मुद्रा में विराजित हैं । दाहिनी तरफ वाला एक हाथ उनकी गोद में होने के कारण दिखाई नहीं देता।माता जी के आजू -बाजू उनके चरणोंके पास कमलासना लक्ष्मी माता का श्री विग्रह शोभित है।

वेद माता गायत्री व काली मंदिर-

उनके बराबर ही अलग किंतु जुडा़ हुआ दायीं ओर वेद माता गायत्री और बांई ओर काली माता का श्री विग्रह स्थापित है। इन तीनों मंदिरों का कलश सुनहरे रंग का अलग अलग किंतु एक साथ बना है। आगे सभा गृह में कौंखे नुमा मंदिरों में राधे कृष्ण की युगल मूर्ति, बाराह, हयग्रींव हनुमान् जी, राम लक्ष्मण, आदि देवताओं के विग्रह स्थापित हैं। और इन सबके ऊपर विराट अवतार का चित्र बना हुआ है जिसमें भगवान् के चरणों में अर्जुन घुटनों के बल बैठे हुए हैं उनके हाथ जुड़े ओेेेेेेेेेेेेेर आँखे बंद हैं। सभा कक्ष की दीवारों पर हिन्दू धर्म के देवी देवताओं की हृदय हारी छवि अंकित है।

भगवान् काशी विश्वनाथ की विशाल मूर्ति –

इससे लगे हुए ही एक बहुत बड़े सभा कक्ष में भगवान् काशी विश्वनाथ की विशाल मूर्ति अपनी समस्त विभूतियों के साथ स्थापित है। मूर्ति के पार्श्व भाग में हिमालय का दृश्य साकार हुआ है। मूर्ति हल्के नीले वर्ण की है। इस मूर्ति के संबंध में यहाँ के पुजारी जी ने एक अद्भुत् बात बताई । सन् 1980 में कुछ बड़े छोटे पत्थर जो स्थान घेरे पड़े थे नगर पालिक निगम की ट्राली श्हर से बाहर कही फेंकने ले जाने वाली थी, जैसे ही ट्रेक्टर चलने को हुआ ट्राली का हुक टूट जाने से ट्राली पलट गई और सारा पत्थर गिर पड़ा । दूसरी ट्राली लाकर पुनः पत्थर भरने का कार्य आरंभ हुआ और तो सारे रख लिए गये किंतु एक बड़ा सा पत्थर लाख कोशिशों के बाद भी चढ़ाने में सफलता न मिल सकी तब बाहर से मूर्तिकार बुलाकर काशी विश्वनाथ की मूर्ति का निर्माण प्रारंभ करवाया गया। सन्1986 में इसकी स्थापना इस मंदिर में की गई। पीछे के भक्तों द्वारा ढकेले जाकर हम लोग आगे बढ़े । और प्रांगण में आ निकले । वहाँ और भी कई छोटे बड़े मंदिर बने हैं जैसे शिवलिंग , बजरंगबली, नौ दुर्गाएं , आदि-आदि। प्रांगण में ही अन्नपूर्णा पूर्व माध्यमिक पाठशाला है। गौशाला में मंदिर द्वारा पूज्य भाव से पोषित पुष्ट गायें देखकर मन प्रसन्न हो गया। हम लोग प्रसाद लेकर माता की छवि दिल में बसाये बाहर आ गये।

बड़ा गणेश जी-

हमारे वाहन बड़े गणेश जी के मंदिर पर रुके, हमारे जैसे दर्शर्नार्थयों से मंदिर गुलजार था। मंदिर के दरवाजे पर ही फूल दुर्वा प्रसाद आदि बेचने वाले बैठे थे, हमने आवश्यकतानुसार खरीद लिया। हमारे समक्ष ही विराजित थे बड़ा गणेश बप्पाजी। अद्भूत् रूप सिंगार! दमकता हुआ सिंदूरी वर्ण, विश्राम की मुद्रा में आराम से बैठे हुए वरद्हस्त, प्रशस्त नेत्र, सूंड, कान, भुजा आदि पर मणि मुक्ता आदि अनेक रंग के रत्नों की पंक्तियाँ झिलमिला रहीं हैं, उनके हृदय पर शिव पार्वती की युगल छवि वाला लॉकेट शोभा पा रहा है। उनके रजत मुकुट मे हीरे जगमगा रहे हैं, मैंने भाव विभोर होकर देव को दुर्वा पुष्प अर्पित किया । आँखें बंद कर प्रार्थना की और आँखें खोल कर उनके मनोहर रूप रस का पान करने लगी। मंदिर प्रांगण में ही बाला जी भगवान् भी विराज रहे हैं, उनका दर्शन कर मन को अवर्णनीय सुखानुभूति हुई तिरुमला में बाला जी के दर्शन हेतु पूरा कस-बल लगा देना पड़ा था वही दर्शन आज सरलता से हो गया ,जय हो देव गणेश । पास में ही एक छोटे गणेश जी हैं कहते है यह प्रतिमा पाँच सौ वर्ष पुरानी है। हमने इनका भी पूजन वंदन किया।

बड़ा गणेशजी का इतिहास-

अपनी आदतवश मैंने वहाँ के पुजारी जी से मंदिर के इतिहास के बारे में पूछा, संस्मरण लिखने की बात सुन वे बड़े प्रभावित हुए और सहर्ष जो जानकारी प्रदान की वह इस प्रकार है–जैसा की आप जानते ही हैं यह मंदिर इंदौर के पश्चिमी भाग में है , रेलवे स्टेशन से पाँच और हवाई अड्डे से चार किलो मी. की दूरी पर स्थित है। यह देश का ही नहीं सम्पूर्ण एशिया का सबसे विशाल गजानन महराज का विग्रह है। इसकी ऊँचाई 25 फुट और चौड़ाई 14 फुट है। भोग सवा मन का लगता है, सिंगार जो साल में चार बार होता है इसमें 11 किलो घी और 25 किलो सिंदूर लगता है। भाद्रपद में जयन्ति पूजा के समय पन्द्रह दिन पहले से 16 घंटे प्रति दिन काम करके इन्हें सिंगारित किया जाता है। कहते हैं ये सबकी मनोकामना पूर्ण कर देते है।

बड़ा गणेशजी का निर्माणकाल-

’’ इस मंदिर का निर्माण कब किसने करवाया?’’ मैंने उन्हें चुप होता देख कर एक और प्रश्न पूछ लिया।

’’ इस मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा सन् 1901 में पंडित नारायण दाधीच ने करवाया था। बचपन में उन्हें एक बार स्वप्न आया था छोटे गणेश जी के पास बडे गणेश का मंदिर बनवाओ, तभी से उनके मन में गणेश जी की बड़ी मूर्ति स्थापित करने का संकल्प पलता रहा और जब वे युवा हुए तब अपने संकल्प को अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया। उनके संकल्प को बापा का आशीवार्द मिला था इसीलिए वे यह असंभव कार्य कर पाये। इसके निर्माण में तीन वर्ष का समय लगा। इसके निर्माण में सारे तीर्थों का जल , मिट्टी, तांबा पीतल, सोना , चाँदी, रांगा, लोहा हीरा पन्ना जैसे अष्टधातु, अश्व शाला, गौशाला की मिट्टी आदि पवित्र वस्तुओं का प्रयोग किया गया। अब तो यह मंदिर इंदौर शहर की पहचान बन गया है।’’ वे किसी अन्य व्यक्ति को प्रसाद देने लगे। हम लोगों ने मंदिर की परिक्रमा करके उसके अद्वितीय शिल्प को देखा।

काँच मंदिर-

इसके बाद हमारे वाहन काँच मंदिर के पास पहुँच गये । पास में ही राजवाड़ा है । हमने पहले मंदिर में जाकर देव दर्शन करना चाहा। दूर से ही काँच मंदिर सूर्य की रोशनी में अपनी द्युति बिखेर रहा था। बहुत सारी गाड़ियाँ रखी थीं, दर्शनार्थियों की भीड़ थी। हम लोग भी उसी में शामिल हो गये। यह मंदिर जैन धर्म की दिगंबर शाखा को समर्पित है किंतु सभी धर्मों एवं सम्प्रदायों के लोग यहाँ नजर आये। बाहर से मंदिर सफेद पत्थर का, बड़े कलात्मक ढंग से निर्मित नजर आया। मुख्यद्वार स्थापत्य कला का उच्चतम् उदाहरण जान पड़़ा । (मुझे मुग्ध भाव से चारों ओर देखते देख देवकी दीदी ने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैंने जरा सा मुस्करा कर समझा दिया कि डरो मत गुम नहीं हो जाऊँगी।) मुख्य द्वार के दोनो ओर राजसी वेशभूषा वाले दंडधारी, द्वारपालों के सजीव चित्र बने हुए हैं । अनेक सीढ़ियाँ चढ़कर हम बरामदे में आये। हमसे पहले आये भक्त हमारे आगे-आगे चल रहे थे। बरामदे की दीवारों पर काँच की अद्वितीय कारीगरी दृष्टिगोचर हो रही थी। कई देवी -देवताओं के भित्ती चित्र बने हुए है जिनमें हनुमान जी, दुर्गा माता हैं, काली माता अपने विकराल रूप में चित्रित हैं, इन पर सुनहरा प्रकाश डाला जा रहा था जिससे ये स्वर्ण निर्मित प्रतीत हो रहे थे। रंग बिरंगे काचों से मंडित स्थूल स्तंभ इसकी मजबूती की गवाही दे रहे थे। बरामदे से सभा कक्ष में प्रवेश करने के लिए द्वार बना हुआ है जिसके दोनो ओर काँच निर्मित नीले रंग के राजसी वस्त्र पहने हाथ में भाले लिए हुए द्वारपाल खडे़ हैं। सभागृह में प्रवेश करने के लिए हमने इसे पार किया। वहाँ तो और भी चकाचौंध करने वाली कारीगरी दिखाई दी । सभागृह की ऊँची दीवारों पर निति कथा चित्र, यम लोक का दृश्य, विभिन्न पापों के परिणाम स्वरूप मिलने वाले नरकों के चित्र,जैन तीर्थंकरों के चित्र, प्रसिद्ध जैन तीर्थे के चित्र, विभन्न आकार एवं रंग के काँचों से बनाये गये हैं एक स्थान पर श्री कृष्ण के परमधाम गमन का जीवंत चित्र बना हुआ हैं ,दुर्गा जी के नौ रूपों का चित्र भी बना हुआ है। आगे एक छोटा सा बेहद खूबसूरत गर्भ गृह बना हुआ है इसके दरवाजे के दोनो ओर चँवरधारी द्वारपाल का चित्र बना हुआ है। और गर्भ गृह में भगवान् शांतिनाथ जी का काले पत्थर का विग्रह स्थापित है उनके आजू-बाजू बने मंदिर नुमा आलों में भगवान् आदिनाथ और प्रभु चन्द्रनाथ की सफेद रंग की प्रतिमाएं विराजित है। छतों पर कलात्मक झाड़ फानूस लटक रहे हैं, फर्श पर काँच की मीनाकारी और नक्काशी अपनी छटा बिखेर रही है। आंतरिक दीवारों में जालीदार आवरण बना हुआ है।

महावीर प्रभु का भजन बज रहा था । पूरा वातावरण भक्तिमय हो रहा था। एक स्थान पर सीढ़ीदार चबूतरे के ऊपर इस मंदिर के निर्माता सर हुकुमचंद जैन की प्रतिमा स्थापित है। सीढिय़ों पर लाइन से एक ओर इनके सहयोगी और परिजन सर हीरालाल जैन, राजकुमार जैन, और दूसरी कस्तुरी चंद जैन एवं सर कल्याणचंद जैन की प्रतिमाएं सथापित है। लगभग सौ वर्ष पूर्व कपास के सबसे बड़े व्यापारी सर हुकुमचंद जैन ने, जैन धर्म के सभी समुदायों की एकता , प्रेम और भाई चारे की अभिवृद्धि की सदेेेच्‍छा से इन्दौर के इतवारी बाजार में राजवाड़े के समीप ही एक अद्वितीय मंदिर निर्माण का विचार किया। इसके लिए उन्होंने 37 फुट आठ इंच चौड़े और 130 फुट लंबे स्थान का चयन किया। ईरान और बेल्जियम से वास्तुकार आमंत्रित किये गये। बाहर से तो मंदिर सफेद पत्थर और चूने से बना है किंतु अन्दर का सारा काम काँच का ही है। मैंने हरिद्वार और मथुरा में इस तरह के मंदिर देखे हैं यह भी उन्ही की तरह बना है विषय वस्तु अवश्य भिन्न है।

होलकरों की छतरियाँ –

अब हम लोग उस स्थान पर पहुँचे ,जहाँ होल्कर वीर और प्रातः स्मरणीय महारानियाँ अणु-परमाणु का रूप धरे भाँति-भाँति के पत्थरों से बनी कलात्मक छतरियाँ ताने चैन की नींद सो रहे हैं। जी हाँ हम लोग कान्ह नदी के तट पर स्थित होलकरों की छतरियाँ देख रहे थे। यह रजवाड़ा और काँच मंदिर से आधा किलो मीटर के अन्दर ही है। दूर से देखने पर ये सुन्दर मंदिर प्रतीत होते हैं, बारीक कारीगरी ये युक्त स्तंभो पर टिकी ये छतरियाँ पाँच छः फिट के प्लेट फार्म पर स्थित गर्भ गृह के ऊपर बनी है। सुन्दर गुंबद इन्हे मंदिर का रूप देते हैं। प्लेट फार्म रुपी चबुतरों के अन्दर जिनकी भस्मी रखी गई है उनका आदम कद चित्र दीवार पर बना हुआ है। उनका संक्षिप्त परिचय भी लिखा हुआ है। इस स्थान को कृष्णपुरा कहा जाता है यहाँ की पहली छतरी राजमाता कृष्णा बाई होल्कर की है जिसका निर्माण तुकोजी राव होल्कर ने सन्1849 में करवाया था। वैसे ये 1849 से 1856 के मध्य निर्मित हुई थीं । ये कृष्णाबाई मल्हारराव के दत्तक पुत्र तुको जी के पुत्र यशवंत राव की पत्नी थीं अल्हियाबाई यशवंत राव को अपना पुत्र मानती थीं इसी नाते से कृष्णा बाई ने अपनी सास अहिल्या बाई की याद में बहुत सारे कार्य किये। इनके नक्काशीदार खंभे इनके निर्माता के मुस्लिम होने का संकेत करते हैं। बाहरी दीवारों पर भी आदमकद मूर्तियाँ बनी हुई हैं इनमें द्वारपाल की मूर्तियाँ प्रमुख हैं। काल प्रवाह में कुछ छतरियाँ जीर्ण होती जा रही हैं ।

रजवाड़ा भवन –

हम लोग इन्दौर शहर के सबसे भीड़-भाड़ वाले राजवाड़ा चौक को पार कर उस भीड़ भरे बाजार को पार कर होल्करो के विगत वैभव का गान करने वाले रजवाड़ा भवन के प्रवेश द्वार पर जा उपस्थित हुए थे। सामने एक विस्तृत पक्का मैदान है, सड़क के किनारे-किनारे खाने-पीने की वस्तुओ की दुकाने सजी थीं, हम सब भूखे थे किंतु होल्करों की इस विरासत से मिलने के लिए दिल बेकरार था। अतः हमने उधर ध्यान ही नहीं दिया। प्रवेशद्वार की शोभा देखने लगे जो इस समय देश विदेश से आये दर्शनार्थियों को हैरत में डाले दे रहा था। यह तोरण जैसा है, लेकिन प्रवेश द्वार का काम करता है। लोहे एवं लकड़ी के सुमेल से बना यह प्रवेश द्वार सैलानियों का स्वागत कर रहा प्रतीत होता है। संभवतः दस रूपये प्रति व्यक्ति के हिसाब से त्रिपाठी जी हम सब के लिए टिकिट ले आये । हमने अन्दर प्रवेश किया।

रजवाड़ा भवन का इतिहास-

हमारे सामने देखने के लिए सात मंजिला रजवाड़ा भवन था जिसे आज से करीब दो सौ साल पहले सन् 1747 में होल्कर कुल भूषण वीर शिरोमणि मल्हार राव होल्कर ने बनवाना प्रारंभ किया था। वे मराठों के सेना नायक थे जीवन के अधिकांश दिन रणदेवी की क्रोड़़ में ही व्यतीत होते थे उनके। इन अभियानों में पूरा शहर ही सेना के साथ चलता था। युद्ध के समय परिवार की सुरक्षा की चिता स्वाभाविक ढंग से एकाग्रता भंग करती थी। मल्हारराव प्रथम ने अपना स्थायी ठिकाना बनाने की बात छ़त्ऱपति साहू जी के समक्ष रखी। पेशवा बाजीराव ने सन्1734 में मल्हार राव की पत्नी गौतमी बाई के नाम एक अलग जागीर तैयार करवायी। जिसमें इंदौर भी था। कान्ह नदी का सुन्दर तट देख कर उन्होंने इस स्थान पर 6174 वर्ग मीटर स्थान पर संगमरमर,लकड़ी, ईंट मिट्टी लकड़ी गारे की सहायता से फ्रेंच शैली में इस भव्य प्रासाद का निर्माण प्रारंभ कराया। सन् 1761 में मल्हार राव प्रथम अहमदशाह अब्दाली से परास्त हो गये। उसी सदमें में रुग्णावस्था को प्राप्त हुए । 1765 में उनके निधन के पश्चात् यह भवन बन कर तैयार हुआ।

देवी अहिल्याबाई की मूर्ती –

नारियल के वृक्षों की कतारे पार करते, फूलों की क्यारियों के दर्शन करते, उस सुन्दर से बगीचे पर ललचाई दृष्टि डालते हुए हम लोग उस भवन के सामने स्थापित महासती देवी अहिल्याबाई की मूर्ती के समीप पहुँचे, जो एक ऊँचे से चबुतरे पर पर बायें हाथ में शिवलिंग संभाले,दायें हाथ से उसे आवेष्ठित किये हुए विराजित हैं । ये अपने प्रभा मंडल से संपूर्ण राजवाड़े को उद्भाष्ति करती प्रतीत हो रही हैं। उनकी सादगी , उनकी न्याय के प्रति निष्ठा को याद कर मैं चकित नेत्रों से उस अपूर्व रूप को निहारती रह गई। चबुतरे को घेरकर एक बड़े से वृत्त के रूप में क्यारी बनाई गई है जिसमें कई प्रकार के फूल खिले हुए अपने भाग्य पर इठला रहे थे। सुन्दर सी छतरी वर्षा , धूप से उनकी रक्षा करती रहती है। एक ओर पुराने समय के सैन्य शक्ति की परिचायक तोप रखी हुई है। कई सजे धजे घोड़ों वाले तांगे खड़े दिखाई दिये।

सामने ही एक बड़ा सा बोर्ड लगा हुआ है जिसमें इस भवन को राज्य पुरातत्व विभाग ग्रेड ए द्वारा संचालित होने की बात लिखी हुई है। सामने ही स्मारिका शॉप का छोटा सा कार्यालय है। हम लेगों ने वहाँ से राजवाड़े की रंगीन तस्वीर और इससे संबंधित जानकारी वाला प्रपत्र प्राप्त कर लिया था।

गणेश हॉल –

हम प्रवेश द्वार से अन्दर प्रविष्ट हुए। यह प्रवेश द्वार लगभग सात मीटर ऊँचा है। यह हिन्दू शैली के महलों जैसा ही बना है। गोलाई में बने बरामदे जिनकी आंतरिक छत पर बेल्जियम के काँच के झाड़ फानूश लटक रहे हैं, कतार से बने बड़े-बड़े कमरे उनकी तत्कालीन सजावट एक नजर में समझ में आने वाली कारीगरी नहीं है। हम लोग होल्करों के दरबार हॉल जिसे गणेश हॉल कहा जाता है पहुँच गये। यहाँ बैठ कर होल्कर राजा अपने दरबारियों से राज्य की समस्यओं पर चर्चा करते थे , राज्य के विकास हेतु योजनाएँ बनाते थे। यहाँ राज दरबार के अनुकूल गद्दीदार कुर्सियाँ कतार से सजी हुई अपने वैभव का बखान कर रहीं हैं। इस कक्ष को मराठा अलंकरणों के साथ ही होल्करों की वीरता के प्रमाणों से सजाया गया है। इसमें कई बालकनी, खिड़कियाँ, गलियारे बने हैं। यहाँ राजाओं को खास अवसरों पर बधाई दी जाती थी।

होल्‍कर वंशावली-

एक कक्ष में होल्कर परिवार की पूरी वंशावली चित्रों के रूप में सजीव होती प्रतीत हुई, सूबेदार मल्हराराव से लेकर जिन्होने एक भेड़ बकरी चराने वाले धनगर अहिर के घर जन्म लेकर अपने पराक्रम के बल पर मराठा राज्य के छः पेशवाओं के प्रमुख परामर्शदाता की भूमिका निभाई, बावन युद्ध जीते और पुरस्कार में बाजीराव पेशवा से इंदौर सहित आस-पास के नौ परगना की जागीर प्राप्त कर होल्कर राजवंश की स्थापना की। उनसे प्रारंभ होकर पुत्र खांडेराव पौत्र मालेराव दत्तक पुत्र तुकोजी राव उनके पुत्र यशवंतराव ,मल्हारराव होल्कर तृतीय, मार्तंडराव होल्कर, हरिराव होल्कर, खांडेराव तृतीय, तुकोजीराव द्वितीय, शिवाजी राव होल्कर, यशवंतराव होल्कर द्वितीय, अहिल्याबाई होल्कर कृष्णा बाई होल्कर आदि के चित्र लगे हैं, साथ ही उनका संक्षिप्त जीवन परिचय भी अंकित है।

आगे के कक्षों में उनके उपयोग की वस्तुएं फर्निचर , रसोई के उपकरण, नटराज की काले रंग की धातु की सुन्दर सी मूर्ति, देखते हम आगे बढ़ रहे थे इस समय हम सब की वाणी मौन थी। सब बीते हुए समय को अपने अन्दर एक बार फिर से जी लेना चाहते थे।

अस्‍त्रागार-

एक कक्ष में पुराने जमाने के हथियार सजा कर रखे गये हैं जिनमे तलवारे भाले, नेजा , बल्लम, फरसे कुल्हाडें आदि मुख्य हैं, एक कक्ष में मुद्राओ का संकलन है, इससे हमें उस समय के विनिमय के साधन का ज्ञान होता है। हमने अनुभव किया कि इस भवन को उष्णकटिबंधीय जलवायु के हिसाब से बनाया गया है। हर कक्ष में दरवाजे- खिड़कियॉं झरोखे, रोशनदान बने हुए हैं । हर कमरे के सामने लंबा चौड़ा बरामदा है। सूर्य की रोशनी और स्वच्छ वायु प्रचुर मात्रा में अनायास ही मिलती रहे ऐसा प्रयास स्पष्ट परिलक्षित होता है। इसकी नीचली तीन मंजिले, मार्बल की और ऊपर की चार मंजिलें सागौन की लकड़ी से बनी हैं। जल आपूर्ति के लिए जगह-जगह ताल- तलैया बने हुए हैं।

महल का दुर्भाग्‍य-

इस महल की यह त्रासदी रही है कि इसे एकधिक बार अग्नि बाधा का सामना करना पड़ा है। सबसे पहले सन् 1801 में सिंधिया के सेनापति सरजेराव घाटगे ने इन्दौर पर आक्रमण करके इस भवन में आग लगा दी जिससे इसका एक हिस्सा जलकर नष्ट हो गया। मल्हारराव द्वितीय के प्रधान मंत्री तात्या जोग ने पुनः निर्माण करवाया। सन् 1834 में पुनः इसमे अचानक आग लग गई जिससे ऊपरी हिस्सा जलकर खाक हो गया। सन् 1984 में देश की प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या के समय दंगाइयों ने इसमें आग लगा दी थी।

होल्करों की वंशज उषा राजे होल्कर ने फिर से इसका निर्माण करवाया। पुराने ब्लूप्रिंट पर आर्किटेक्ट हिमांशु दुदवाडकर और श्रेया भार्गव ने पहले जैसी सामग्री के साथ भूकंपीय संरचना की आवश्यकताओं का पालन करते हुए चूने के प्लास्टर का प्रयोग कर इसे बनाया। भूकंप प्रवण क्षेत्र होने के कारण एक छुपा हुआ पाइप फ्रेम लगा है । यह भवन निर्माण अनुमति के लिए आवश्यक है। हम लोग नये बने भाग की ओर घूम रहे थे। निर्माण नवीन अवश्य दिख रहा था किंतु पुराने से मिलता जुलता लग रहा था। दो भवनों के मध्य विस्तृत आंगन है जिसमें तुलसी चौरा और मंदिर बना है। शंकर जी का सुन्दर मंदिर देख कर हमने प्रणाम किया।

आकस्मिक दुर्घटना-

हम लोग भवन से बाहर आकर उसके पीछे वाले हिस्से की ओरं बढ़ने लगे । पुरूष साथी पीछे रह गये, हम लोग सुबह से होटल से निकले थे, अब हमें प्रसाधन की आवश्यकता अनुभव हो रही थी। आगे-आगे सावि़त्री दीदी, बेदवती भाभी और माया दूबे चल रहीं थीं (आपने ’सुख के पल मे’ पढ़ा होगा कि कैसे एकादशी उपवास में ठाकुर राम पटेल और उनकी पत्नि बेदवती केदारनाथ की चढ़ाई चढ़ गईं थी) ये तीनों ही हल्के वजन वाली हैं चलने में सबसे आगे रहतीं हैं। मैं इनसे चार -पाँच कदम पीछे थी। मुझे एहसास था कि बेदवती भाभी की मुझे देख-भाल करनी है इसीलिए .पीछे-पी़छे चल रही थी, प्रसन्नता के कारण मन बेपरवाह हो गया था कुछ- कुछ इससे इंकार कैसे करूँ? बाकी बहने आराम से चली आ रहीं थीं, बेदवती भाभी जल्दी में थीं लगता है इसीलिए तेज कदमो से आगे बढ़ रहीं थीं आगे मरम्मत कार्य से बची गिट्टी पड़ी हुई उसी पर बेदवती भाभी फिसलीं और एक चीख के साथ जमीन पर ढ़ेर हो गईं । मेरे मुँह से भी चीख निकल गई । मैं अगले ही पल उनके पास पहुँच कर उन्हे उठा रही थी, विद्युताघात के बाद कुहनी के नीचे तक बची बाहों से जहाँ से उन्हें अलग किया गया था खून बह रहा था। मैंने अपने आंचल से घाव बंद कर अपनी हथेली से दबा लिया ताकि रक्त स्राव रुक जाय। घुटनो में भी चोट लगी थी जिससे निकला खून जमीन पर फैलने लगा था। हमारे पीछे वाले दौड़़े आये उन्हे देख कर हमारे बाकी साथी भी दौड़े आये। पटेल जी को देख कर वे और हा! हा! कार करके रोने लगीं। ’’ए दे जी जम्मा खून बोहा गे। में काबर जीयत हाँ !’’ मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि कैसे इनका बहता खून रोका जाय। उन्हे चलाने की कोशिश की गई तो वे एक कदम भी नहीं चल पाईं।

’’ ऑफिस तरफ जाइऐ वे बता देंगे डॉक्टर कहाँ मिलेगा। घबराहट में मैं चिल्ला पड़ी। हमारे दल में कोई भी इतना बलिष्ट न था जो उन्हें उठा कर ले जाता ( हम सभी उम्रदराज लोग हैं) ’’
त्रिपाठी जी ऑफिस की ओर लपके । इतने में ही एक नौजवान जिसकी दाढ़ी थोड़ी-थोड़ी बढी हुई थी वह मझोले कद का सांवला सा युवक था। ’’ क्या हुआ-क्या हुआ कहता हमारी ओर लपका आया।
’’ चोट लग गई बेटा, इन्हे उठा कर गेट तक ले चलना है, खून बहुत बह रहा है।’’ मैं लगभग गिड़गिड़ा रही थी। वह इधर-उधर देख रहा था जैसे अपने से पूछ रहा हो ’’क्या करूँ ,क्या करूँ?’;’
’’ गोद में उठा ले बेटा माँ है।’’ मैंने उसके प्रश्न का उत्तर दे दिया, उसने तत्काल उन्हे गोद में उठा लिया। और तेज गति से प्रवेश द्वार की ओर दौड़ गया।
हमारे साथियों ने अस्पताल का पता लगा लिया था । वह रजवाड़ा चौक पर ही था। युवक ने सीधे अस्पताल ले जाकर उन्हें पलंग पर उतारा । तत्काल चिकित्सा आरंभ हो गई, खून साफ करके पट्टी बांध दी गई इंजेक्शन लग गया। उनकी आँखों से अब भी आँसू बह रहे थे। मैंने उन्हे सान्त्वना दी और उस अनजान युवक को बहुत आर्शीवाद देकर विदा कर दिया।

’’आपने गिरा दिया न !’’ पटेल जी ने पीड़ा भरे स्वर में यूँ ही कह दिया, मैं तो स्वयं ही अपराध बोध से मरी जा रही थी, मुझे लग रहा था कि बेदमति को अकेले नहीं चलने देना था मुझे। सब का मन खिन्न हो गया। पटेल जी इन्दौर से ही वापस लौटने का विचार करने लगे। हम सभी उदास हो गये थे, सभी दिश्चंता में पड़े थे। उन्हें बिना रिजर्वेशन के भेजना किसी प्रकार उचित नहीं था। औेर लेकर चलना हमारे साथ ही बेदमती के लिए भी कष्टप्रद था। उन्हे आराम की आवश्यकता थी। हम लोग सोच विचार में पड़े होटल की ओर चले । मेरा मन तो उनके साथ ही लौट पड़ने को हो रहा था, उधर द्वारिकाधीश के दर्शन की लालसा भी अपनी ओर खीच रही थी। ऑटो में मैं उनके पास ही बैठी थी। सबका संकट अनुभव कर बेदवती ने ही हिम्मत दिखाई-’’वापस नी जान जी , सब के मन दुःख पाथे। नी सकहूँ त गाड़ी म बइठे रइहूँ, तूमन दर्शन करि आहू ।’’ उनकी हिम्मत देख कर पटेल जी दूसरी दिशा में सोचने लगे। हमने उनकी हिम्मत बढ़ाई और उन्हे साथ लेकर आगे की यात्रा का फैसला किया। उन्हे ऑटो में ही छोड़कर हम लोग होटल के ऊपर वाले कमरों से अपना सामान ले आये। त्रिपाठी जी ने होटल वाले का हिसाब किया। हेमलता लगातार पटेल जी के संर्पक में थी।

-तुलसी देवी तिवारी

शेष अगले अंक में- भाग-9 सांवरिया सेठ का मंदिर का दर्शन

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