यायावर मन अकुलाया-9 (यात्रा संस्‍मरण)-तुलसी देवी तिवारी

यायावर मन अकुलाया (द्वारिकाधीश की यात्रा)

भाग-9 सांवरिया सेठ का मंदिर का दर्शन

-तुलसी देवी तिवारी

सांवरिया सेठ का मंदिर का दर्शन
सांवरिया सेठ का मंदिर का दर्शन

सांवरिया सेठ का मंदिर का दर्शन

गतांक भाग-8 इन्दौर शहर का भ्रमण से आगे

इंदौर से उज्‍जैन की यात्रा-

हम लोग जब इन्दौर के मोटर स्टेण्ड पहुँचे तब शाम के लगभग चार बज गये थे। उज्जैन जाने वाली गाड़ी लगी हुई मिल गई, हम लोग उसमें सुविधानुसार बैठ गये। गाड़ी चलने को हो रही थी लेकिन हेमलता अभी तक नहीं पहुँची थी। न उसे छोड़कर जाते बन रहा था नहीं बस से उतरते बन रहा था, रात आठ बजे का हमारा उज्जैन से चित्तोड़गढ़ के लिए रिजर्वेशन था। सोचते -सोचते बस चल पड़ी हम न उतरे न हेम लता आई ।
’’ शायद रास्ते में कहीं बैठे उसे भी तो कुछ चिंता होगी।’’ देवकी दीदी ने जैसे स्वयं से कहा। उनका अंदाजा ठीक निकला, नाके के पास हेम लता अपने भतीजे के साथ खड़ी थी। वह झटपट बस में चढ़ी और हमारे सिर से चिंता उतरी। दीदी के गिरने की बात सुनकर उसकी आँखों में रोश उतर आया।

’’ कुछ घंटे संभाल नहीं पाये दीदी को? क्या गत कर दिया बेचारी का !’’ उसने सामूहिक उलहना दिया और बेदमती के पास जाकर बैठ गई। हम लोग दोषी की भाँति चुप रहे। ये तो अच्छा है कि भाभी का वजन मुश्किल से तीस किलो है। अभी तो पटेल जी ने गोद में उठा कर बस में चढ़ाया था, आगे की राम जाने कैसे क्या होगा? मेरी बगल वाली सीट पर मझोली ऊँचाई की एक महिला आकर बैठी, थोड़ी ही देकर में मेरी उससे पहचान हो गई। वह उज्जैन के गुप्ता परिवार की बहू थी। जितनी सुंदर उतनी ही मिलनसार। हमने अपने- अपने घर परिवार ही बातें साझा की। इतने में उज्‍जैन आ पहुँचा ।उसने हमें उज्जैन अपने घर चलने का निमंत्रण दिया। मैंने दूसरी बार के लिए इस आमंत्रण को सुरक्षित रख लिया।

उज्‍जैन से चित्‍तोडगढ़ की यात्रा-

बस के ड्राइवर से हमने अनुरोध किया कि- हमें स्टेशन के अंदर तक छोड़ दे, हमारे साथ घायल महिला है।’’ उसे पुलिस का भय था। उसने जैसे ही गाड़ी गेट के अंदर घुसाना चाहा एक वर्दी वाले ने रोक दिया और बेतरह भड़कने लगा। उसने गाड़ी का चालान करने की धमकी भी दी। त्रिपाठी जी ने चाय-पानी के लिए कुछ दे लेकर उसे चलता किया । बस हमें स्टेशन के अंदर तक छोड़कर जल्दी से बाहर चली गई। यह स्टेशन का पीछे वाला गेट था। पटेल जी ने भाभी को गोद में उठाकर गेट के अन्दर आंगन में बैठाया । स्टेशन के बाहर ही शाकाहारी भोजनालय मिल गया । हम लोग दो दलों में बंट कर खाना खा आये, भाभी के लिये वहीं ले आये। अब चिंता ये थी कि पटेल जी कैसे बेदमती को लेकर डिब्बे तक जायेंगे? मैने देखा कि एक वर्दीधारी सिपाही इधर-उधर कुछ टोह ले रहा है, मैंने न इधर देखा न उधर लगभग दौड़ कर उसके पास पहुँची और अपनी साँसों को काबू में करते हुए उससे निवेदन किया-’’ बेटा! हम तीर्थ यात्री हैं, हमारी एक साथी चोटिल हो गईं हैं कृपा करके एक ह्विलचेयर की व्यवस्था कर देते तो बहुत अच्छा होता।’’ उसने तत्काल मेरी तरफ घ्यान दिया और बड़ी विनम्रता से कहा माँ जी! हम तो आप की सेवा के लिए ही हैं चलिए! मैं दिलवाता हूँ। ’’ मैंने बिना कुछ सोचे समझे उसका अनुकरण किया । प्लेट फार्म नंबर 1 पर पूछताछ केंद्र के पास ह्विलचेयर रखी हुई थी, मैंने उनसे एक बार और पूछ कर ले लिया ।

’’ काम हो जाने पर हो सके तो वहीं रख दीजियेगा । वैसे प्लेटफार्म पर कहीं भी छोड़ देंगे तो हम लोग कलेक्ट कर लेंगे । एक प्यारी सी मुस्कान बिखेरता वह दूसरी ओर चला गया। मैंने ह्विलचेयर के पीछे खड़े होकर उसे लुढ़काया । मन में प्रश्न उठा ’’किधर जाऊँ ? किधर बैठे हैं सारे लोग? मेरा दिल धक् से रह गया, हाथ के सारे तोते उड़ गये । जिधर देखूँ बस जनरव ही दिखाई दे, परेशान होकर मैंने अपने पीछे देखा, दुनिया भर की उदासी चेहरे पर पोते पटेल जी और उनसे थोड़ा पीछे हैरान से त्रिपाठी जी मुझे देखते आ रहे थे। मैं डाँट खाने के लिए पूरी तरह तैयार थी। लेकिन उस समय बच गई क्योंकि गाड़ी आने में अब अधिक समय नहीं था।

ह्विलचेयर पर भाभी को बैठा कर पटेल जी आसानी से चलने लगे, बाकी सभी साथी आगे पीछे अपने-अपने सामान के साथ। मैंने देवकी दीदी का हाथ पकड़ा, त्रिपाठी जी ने अपने साथ मेरा भी पहिए वाला बैग संभाला । माया और प्रभा दीदी ने अपना सामान हर जगह की भाँति स्वयं उठाया। थोड़ी ही देर में भोपाल जयपुर एक्सप्रेस आकर खडी हुई । हम लोग अपने-अपने डिब्बे में चढ़े । पुरूष साथियों के साथ मिल कर प्रेमलता ने भी हमारी सीट बर्थ खोजने में मदद की । उन्हें खाली कराकर हमारा सामान रखवाया । मेरी और देवकी दीदी की बर्थ नीचे थी। ऊपर वाली पर प्रभा दीदी और त्रिपाठी की बर्थ थी। हमने अपना अपना स्थान ग्रहण किया। दिन भर घूमते रहे थे न भोजन न आराम! बर्थ पर आराम से लेटने पर परम विश्रान्ति का अनुभव हुआ। रात घिर आई थी, स्टेशन पर झिलमिलाती बत्तियाँ अंधेरे को धरती पर उतरने नहीं दे रहीं थीं। मैने हाथ जोडकर महाकाल की नगरी को प्रणाम किया। अंधेरे को चीरती रेलगाड़ी ने स्टेशन छोड़ दिया । स्टेशन के साथ ही छूट गया वह कोलाहल जिसका अर्थ न समझ में आता है न कोई समझने का प्रयास ही करता है।

डिब्बे में विभिन्न प्रदेशों के विभिन्न भाषा-भाषी यात्री भीड़ मे अकेले का लुत्फ उठा रहे थे। कोई अपने चाहने वालों को अपनी कुशलता का समाचार दे रहा था तो कोई संगीत अथवा सिनेमा का आनंद ले रहा था। कोई गला फाड़ स्वर में अपने सहयात्री से परिचय बढ़ा रहा था तो कहीं राजनीतिक चर्चा छिड़ी हुई थी। मैं स्रोता बनी उन्हें पढ़ने लगी कभी गुनने के लिए।

चित्तौडगढ़ आगमन-

जागते-सोते हम प्रातः पाँच बजे राजस्थान की उस पवित्र भूमि पर रुके जिस पर स्वातंत्र्यचेता महाराणा ने जन्म लेकर भारतीय अस्मिता की लाज रखी। जिस राजपूताने का गीत गाते मैंने अपने स्कूल की शिक्षा पूर्ण की थी। फिल्म जागृति का वह गीत अपनी सुध-बुध खोकर मैं गुनगुना उठी जिसे गाये बिना कोई भी कार्यक्रम सफल होना माना ही नहीं जा सकता था।

’’ये है अपना राजपूताना नाज इसे तलवारों पे।
इसने सारा जीवन काटा बरछी तीर कटारों पे।
यह प्रताप का वतन पला है आजादी के नारों पे
कूद पड़ीं थीं यहाँ हजारों पद्मिनियाँ अंगारों पे।
बोल रही है कण-कण में कुर्बानी राजस्थान की।
इस मिट्टी से तिलक करो यह धरती है बलिदान की
वंदे मातरम्- वंदे मातरम् ……..

गाड़ी एक धक्के के साथ चित्तौडगढ़ रेलवे स्टेशन पर रुक गई । हम सभी जगे हुए ही थे। हमारा सामान भी निकल चुका था। हम लोग जब स्टेशन पर उतरे तो देखा कि हमारे अन्य साथी जो अन्य डिब्बों में थे गाड़ी से उतर कर एक स्थान पर अपने सामान सहित बैठे हैं। हम लोगों ने भी वहीं जाकर अपने सामान को कुर्सी बनाया। यह तो अच्छा रहा कि गाड़ी एक नंबर प्लेटफार्म पर ही रुकी थी। यात्री सहायता केन्द्र जाकर मैं पटेल जी के साथ ह्विल चेयर ले आई, उस पर भाभी को बैठा कर हम लोग वेटिंग हॉल आये । यहाँ भीड़ तो बहुत थी फिर भी हमने लाइन लगा कर नित्य क्रिया सम्पन्न की। पुरूष साथी जेन्टस वेटिंग हॉल मे चले गये थे।

श्री कृष्ण स्वरूप सांवलिया जी के मंदिर का दर्शन –

बालारुण की कोमल कान्तकिरणों के साथ ही हम लोग स्टेशन से बाहर निकल आये। बाहर निकास द्वार से लगी हुई किसी पीर की मजार है वहाँ क्रोशिये से बुनी गई सफेद टोपी पहने दो युवक इबादत कर रहे थे। एक पेड़ की जड़ को घेर कर बनाये गये चबुतरे पर हम लोग बैठे, बहुत सारे ठेले वाले नाश्ते के साथ चाय भी बेच रहे थे साथी लोग चाय नाश्ते से निबटने लगे दीदियों के लिए चाय मंगवाई गई और मेरे लिए भाप छोड़ती कॉफी । वहाँ बहुत सारे ऑटो वाले ग्राहको की तलाश में बैठे थे, त्रिपाठी जी तिवारी जी आदि उनसे मोल भाव कर रहे थे। मैं कॉफी का गिलास रखने ठेले पर गई तो चिरपरिचित की भाँति ठेले वाला बुदबुदाय– ’’देखिये आप लोग किले के नीचे वाली दुकान से कुछ खरीदियेगा मत ! ऑटो वाले वहाँ दिखाने का बहाना करके जरूर ले जाते हैं, लूटते है दुकानदारों से मिल कर ।’’ वह ऐसे चुप हो गया जैसे न उसने कुछ कहा न मैंने कुछ सुना।

हम लोग दो ऑटों में बैठ कर अपने मय सामान सहित चित्तौड़ से 40 किलो मीटर दूर चित्तौड़ उदयपुर राज मार्ग पर पड़ने वाले भादसोड़ा चौराहे से मात्र 7 किलो मीटर दूर मंडपिया नामक गाँव में स्थित श्री कृष्ण स्वरूप सांवलिया जी के मंदिर का दर्शन करने निकल पड़े । चित्तौड़गढ़ की चौड़ी चिकनी सड़कों के दोनो ओर मध्यम ऊँचाई के पेड़ों की हरियाली हमारी आँखों को ताजगी प्रदान कर रही थी। सड़क पर आवागमन सामान्य था। हमारा मन प्रफिल्लत था।

सांवरिया जी के संबंध में जनश्रुति-

समय का सदुपयोग करते हुए क्यों न सांवरिया जी के बारे में कुछ चर्चा कर ले ? जनश्रुति है कि मेवाड़ क्षेत्र के महंत श्री दयाराम जी बड़े पहुँचे हुए संत थे। उनके पास भगवान् की तीन मूर्तियाँ थीं जिनकी वे सच्चे मन से पूजा किया करते थे। एक दिन सपने में दर्शन देकर भगवान् ने उनसे कहा- मैं आप की सेवा से प्रसन्न हूँ आप मुझसे इच्छित वर माँग लो! महात्मा जी ने कहा – ’’ प्रभु ! साधु समाज की सेवा के लिए किसी सेठ साहूकार के आगे हाथ फैलाना न पड़े बस ऐसा ही वर दे दीजिए!’’ भगवान् ने उन्हें वरदान दे दिया और कहा आज से तुम्हें रोज सोने की एक मोहर मिला करेगी, तुम्हें किसी से कुछ याचना करनें की आवश्यकता नहीं रहेगी। उसके बाद रोज महात्मा जी को एक मोहर मिलने लगी जिससे दूर-दूर के साधु संत उनके यहाँ आकर भोजन पाने लगे। मुगल बादशाह को जब यह खबर मिली तो उसने दयाराम जी से मूर्तियों को छीन कर उन्हे भंग करने की आज्ञा दे दी । भगवान् ने सपने मे आकर उन्हें सर्तक कर दिया जिससे उन्होंने मूर्तियों को भूमि में गाड़कर वह स्थान छोड़ कर अन्यत्र गमन किया।

समय गुजरा 1840 में भोलानथ जी गुर्जर को भगवान् ने स्वपन मे दर्शन देकार कहा कि हमें बाहर निकाल कर स्थापित करो ! इससे संसार का भला होगा। सावधानी पूर्वक खोदाई करके तीनों मूर्तियाँ निकाली गइंर्। भगवान् के आदेशानुसार सबसे बड़ी मूर्ति भादसोड़ा में दूसरी जन्मस्थान में और तीसरी मण्डपिया में स्थापित की गई। भोलानाथ जी को भी प्रतिदिन एक मोहर मिलने लगी जिससे साधु सेवा का कार्य निर्बाध रूप से चलने लगा। वृद्धावस्था आसन्न देख उन्हेंने मंदिर की सेवा पूजा का भार वैष्णव श्री चेतनदास वैरागी को सौंप दिया, तब से वैष्णव परिवार ही सांवलिया सेठ की सेवा करता आ रहा है। भारत में नाथ द्वारा के बाद सांवलिया मंदिर धाम वैष्णव सम्प्रराय का सबसे बड़ा तीर्थ बन गया है।

श्री कृष्ण सांवलिया सेठ धाम –

हमारे वाहन एक विशाल द्वार के सम्मुख जाकर रुक गये । द्वार के शीर्ष पर लिखा था ’जै श्री कृष्ण सांवलिया सेठ धाम’ । पटेल जी ने बेदमती को ऑटो से उतारा । हम सभी उतर कर वातावरण का जायजा लेने लगे। द्वार के भीतर एक बहुत बड़ा मैदान दिखाई दिया जिसके किनारे -किनारे सैकड़ो दुकाने बनी हुईं हैं , जिनमें पूजा,प्रसाद, खिलौने उपहार जलपान आदि की सामग्री सज चुकी थी। । सदर दरवाजे से लेकर उस भव्य मंदिर की सीढ़ियों तक हरे रंग की चटाई बिछी हुई थी। अभी तो हमें सांवलिया जी से मिलने की लगन लगी थी अतः उधर विशेष ध्यान नहीं गया।

मैंने निगाहे उठाकर उस विशाल मंदिर को देखा जिसके अन्दर संसार के सबसे बड़े सेठ हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। बाहर से मंदिर श्वेतवर्णी दिखाई देता है। यह उच्चकोटि की स्थापत्य कला का नमूना दृष्टिगोचर हो रहा था। सबसे ऊँचा गुंबद जो शायद गर्भगृह का है, उसके ऊपर केसरिया ध्वज लहरा रहा था। मंदिर में दर्शनार्थियों की भीड़ दिखाई दे रही थी। खाकी वर्दी वाले पुलिस के जवान ड्यूटी पर लगे हुए थे। मैंने अपने साथियां को पीछे छोड़ा और एक पुलिस ऑफिसर से निवेदन करके उससे ह्विलचेयर प्राप्त की । हम सभी मंदिर की सीढ़ियों के पास पहुँचे और चप्पल जूते उतार कर अन्दर प्रविष्ट हुए। हमारे सामने स्टील का बना चमचमाता हुआ महिला पुरूष के लिए पंक्ति विभाजक बना हुआ मिला । हम लोग अपनी-अपनी लाइन में बराबरी पर चल रहे थे, इस प्रकार अलग-अलग चलकर भी साथ-साथ थे।

लंबा रास्ता पार कर हम लोग एक सभा कक्ष में पहुँचे। जो चारों ओर से खुला हुआ है। चारों दीवारों की जगह ऊपर से गोलाई में कटे बिना पल्ले के दरवाजे हैं जिनमें सिमेंट छ़ड़ के ही मनोहारी झालर झूल रहे हैं संगमरमर का फर्श जिस पर पैर रखने में संकोच हो रहा था कि कहीं हमारे पैरों की धूल से मैला न हो जाय । मैं तो संभल-संभलकर आगे बढ़ रही थी। बहुत सारे भक्त स्त्री-पुरूष, बालक बालिकाएँ, बयोवृद्ध, बैठकर मंदिर की सुन्दरता निरख रहे थे। गर्भगृह के सामने भी पंक्ति विभाजक बना है ताकि दर्शन के समय महिला पुरूष एक दूसरे से पृथक रह कर मार्यादा पूर्वक दर्शन कर सकें। हम लोग भी एक किनारे बैठ कर मंदिर की शोभा रुपी अमृत का पान अपने नेत्रों से करने लगे।

हॉल में भीड़ से जरा हटकर राजस्थानी महिलाएं लहंगा कुरती पहने बालोंं की परंपरागत चोटी गुँथे, गोद में बालक लिए भजन की तर्ज पर घूम-घूम का नाच रहीं थीं। उनके चेहरे पर खेलते मृदुल हास्य को देखकर मैं अपनी सुध-बुध खोती जा रही थी। जैसे ही आगे जगह खाली हुई हम लोग लाइन में लग गये। वैसे तो हॉल में बैठे व्यक्ति को भी दर्शन सुलभ है और हम लोग अपने स्थान से भी सांवरे के रूप रस का पान कर रहे थे, परंतु पास से दर्शन करना कुछ और ही होता है।

सांवरिया सेठ का श्याम विग्रह-

थोड़ी ही देर में सांवरिया जी अपने श्याम विग्रह के साथ प्रत्यक्ष थे, उनके हाथों में सुनहरी बांसुरी शोभा दे रही थी। शीशे की मीनाकारी वाला रंग-बिरंगा प्रकाश वलय ,सुनहरे वस्त्र, सिर पर मोरपंख ,कानों में मकराकृत कुंडल, नेत्रों में अपार करुणा, होठों पर मनोहारी मुस्कान लिए सेठों के सेठ अपने भक्तों की मनोकामना पूर्ण करने के लिए विराज रहे हैं वे एक दूध जैसे सफेद रंग की गाय से टिक कर खड़े हैं। सामने एक हाथी की मूर्ति है बाकी कई गायें अपने बछड़ों के साथ चर रहीं हैं।

सांवरिया सेठ का श्याम विग्रह
सांवरिया सेठ का श्याम विग्रह

बगल में सोने का पालना झूल रहा है जिस पर गोपाल ललना लेट कर झूल रहे हैं झुलाई जाने वाली रस्सी की जगह चांदी की मोटी सी जंजीर है। जिसे हौले से खींच कर भक्त गोपाल को झूला देते हैं। उनके सामने चाँदी के चमचमाते बर्तन में पंचामृत रखा था जिसे पुजारी भक्तों की हथेलियों पर रखते जा रहे थे। हमने अपने हाथों में रखे पत्र-पुष्प पुजारी के हाथ में दे दिये। मेरे सामने ही सिक्कों और नोटों से भरी पेटी थी जिसमें प्रत्येक भक्त अपनी सामर्थ्यानुसार अभिवृद्धि करता जा रहा था। मैंने भी इस परंपरा का पालन किया। हम लोग अन्य दर्शनार्थियों के साथ परिक्रमा पथ में आ गये। गर्भ गृह के चारों ओर बना परिक्रमा पथ पर्याप्त चौड़ा भी है। दीवारों पर छेटे-छोटे मंदिर का आकर देकर श्रीकृष्ण लीला का चित्रण किया गया है।

एक और मंदिर के दर्शन हुए जिसमेंं सिंगार तो पूरा संवरिया सेठ का ही है किंतु विग्रह का वर्ण गौर है, उनके गालों पर सफेद मूंछे हैं उनके वस्त्र उतने चमकदार नहीं जितने सेठ के हैंं मैंने जानने का प्रयास अवश्य किया किंतु जान नहींं पाई हो सकता है यह विग्रह परम भक्त भोलाराम गुर्जर का हो।

बाहर आकर हमने पूरे परिसर में पंक्ति मेंं बने अनगिनत मंदिरों में स्थापित देवताओं के दर्शन एवं पूजन किये। विशाल भोजन शाला देखी, सुनने में आया कि जिन भक्तों की मनोकामना पूर्ण होती है वे अपनी हैसियत से बढ़कर चढ़ावा चढ़ाते हैं, इस प्रकार साल में कई करोड़ रूपये की आमद होती है, इन रूपयों को मंदिर के विकास एवं मानवता की भलाई के काम में खर्च किया जाता है, जैसे स्कूलों, कॉलेजों धर्मशालाओं ,गौशालाओं , भोजनालयों की स्थापना एवं संचालन । शायद इसीलिए ये सांवलिया सेठ कहलाने लगे ,वर्ना अैर कहीं तो भगवान् को सेठ कहते नहीं सुना था मैंने। सुना मैंने की सावलिया सेठ से जो मांगो वह मिलता है , मैं क्या मांगती ? मुझे तो बिना मांगे ही सब कुछ दे दिया था सबसे बड़े सेठ ने । कुछ याद नहीं आया जो मांगने लायक हो, अब सोचती हूँ कुछ नहींं तो सूरदास जी जैसी दिव्य दृष्टि ही मांग लेती सांवरिया सेठ के गुणगान करने की थोड़ी योग्यता तो आ जाती।

अभी भोजन तैयार हो रहा था, अतः हम उससे वंचित रह गये। प्रांगण में सजी दुकानों से आवश्यकतानुसार वस्तुएं क्रय कर ली गईं । जिस जुगत से आये थे उसी जुगत से अपने वाहन तक आये ।

-तुलसी देवी तिवारी

शेष अगले अंक में- भाग-10 चित्तौड़गढ़ यात्रा

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