शोध आलेख:गतांक से आगे
आधुनिक हिन्दी साहित्य में राष्ट्र भक्ति
इकाई-3 राष्ट्रभक्ति के प्रणेता साहित्यकार
-तुलसी देवी तिवारी
राष्ट्रभक्ति के प्रणेता साहित्यकार
मुंशी प्रेमचंद (1880-1936) –
उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की पहली पुस्तक ’सोज़े वतन में संकलित (राष्ट्रविलाप) उनकी पहली कहानी ’ दुनिया का सबसे अनमोल रतन’ देश भक्ति की एक ऐसी रचना है जो शहीदों के बलिदान को सबसे ऊँचे स्थान पर विराजित करती है, क्योंकि देश है तो हम हैं, देश नहीं तो न हमारी अस्मिता न हम।
इस कहानी की नायिका दिलफरेब अपने प्रेमी दिलफिगार से कहती है कि यदि तू मुझसे सच्चा प्रेम करता है तो जा मेरे लिए ’ दुनिया का सबसे अनमोल रतन लाकर दे !’वह खोज में निकलता है और फाँसी पर झूलने वाले काले चोर की आँख से टपकी आँसू की एक बूंद लेकर आता है, जिसे दिलफरेब स्वीकार नहीं करती।
दूसरी बार में वह प्रेमी प्रेमिका की चिता की राख में से एक मुट्ठी लेकर आता इसे भी दिल फरेब कोई महत्त्व नहीं देती , तीसरी बार में दिलफिगार शहीद के खून का अखिरी कत़रा जो वतन की हिफाजत में गिरा था लेकर आता है, इसे संसार का सबसे अनमोल रतन मान कर दिलफरेब सिर माथे से लगाती है। जैसे ही सन् 1907 में यह कहानी ’जमाना’ में प्रकाशित हुई तहलका मच गया। नवयुवक सिर पर कफ़न बांध देश की आजादी के लिए मर मिटने को उद्यत होने लगे। ’सोजे वतन’ की सारी प्रतियाँ जप्त करके तत्कालीन अंग्रेज कलेक्टर ले जलवा दी। आगे नवाब राय को प्रेमचंद के नाम से संसार ने जाना।
गया प्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ (1883-1972) –
21 अगस्त1883 को उत्तर प्रदेश के हड़हा नामक गाँव में गया प्रसाद शुक्ल ‘सनेही, त्रिशूल, तरंग अथवा अलमस्त उपनामधारी जिस महान् कवि का जन्म हुआ उसने देश के नौजवानों के दिलों में विद्रोह की आग भरने का काम किया। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की विफलता की कहानी सुना कर भारतियों के सोये हुए शौर्य को जगाने के लिए इन्होंने वीर रस की साधना की- देखते हैं तलवार नामक कविता में शौर्यनाथ-
यह तेरी तलवार बहादुर, यह तेरी तलवार, इसमें धरा प्रलय का पानी? इसकी धाक शत्रु ने मानी, फिर तेरी हिम्मत लासानी, आया जो सम्मुख अभिमानी, उतरा इसके घाट पलक मे, उसे कर दिया पार बहादुर, यह तेरी तलवार बहादुर देख स्वदेश का उज्ज्वल करती, सदा गर्व बैरी का हरती, बिजली सी डूबती तिरती, पल भर में है पार उतरती इसकी चाल देखकर होता, कंपमान संसार बहादुर यह तेरी तलवार।
स्नेही जी द्विवेदी युगीन साहित्यकार थे, यह युग हिन्दी के परिमार्जन का था। महावीर प्रसाद द्विवेदी जी हिन्दी को साहित्य की भाषा बनाने में जी- जान से जुटे हुए थे। स्नेही जी ने कवि बनाने की पाठशाला ही खोल ली थी । इनकी प्रसिद्ध कविता जिसका प्रयोग किये बिना राष्ट्रीय पर्वों पर मेरा संचालन पूर्ण नहीं होता –
‘जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमे रसधार नही, वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।‘
इन पंक्तियों ने गुलामी काल में जनता के मन में देश प्रेम के भाव का संचार किया।
विनायक दामोदर वीर सावरकर-
28 मई 1883 को महान् वक्ता, लगातार लिखने वाले लेखक, इतिहासकार, कवि,दार्शनिक, सामाजिक कार्य कर्ता और जुझारू स्वतंत्रता सेनानी, विनायक दामोदर वीर सावरकर जी का जन्म महाराष्ट्र के नासिक के समीप भागपुर नामक गाँव में हुआ। अल्पवय में ही मातृ- पितृहीन हो जाने वाले बालक ने आगे चलकर हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीतिक विचारधारा को विकसित करने का बहुत बड़ा कार्य सम्पन्न किया। आपने अनेक पुस्तकों का सृजन किया। जिनमें हिन्दुत्व, हिन्दू कौन? हिन्दू राष्ट्र दर्शन, और सबसे श्रेष्ठ ‘1957 का भारतीय स्वातंत्र्य समर’ है । संभवतः यह विश्व की पहली पुस्तक है जो प्रकाशन पूर्व ही प्रतिबंधित हो गई।
सन्1906 में सावरकर जी कानून की पढ़ाई करने इंग्लैण्ड गये , वहाँ पंडित श्याम कृष्ण वर्मा द्वारा स्थापित इंडिया हाउस को अपनी क्रांति साधना का केन्द्र बनाया। देश की आजादी के दीवाने और भी युवकों से मिल कर एक संगठन खड़ा कर लिया। 1907 में अंग्रेज बुद्धि जीवियों ने 1857 के महासमर की घोर निंदा की और अपनी वीरता का गान किया। भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों का अपमान करते हुए 6 मई को लंदन के डेली टेली ग्राफ अखबार ने लिखा- 50 वर्ष पूर्व इसी सप्ताह हमारे शौर्य से हमारा साम्राज्य बचा था , नाटक खेल कर पेशवा नाना साहेब और झाँसी की रानी को हत्यारा करार दिया गया । भारतीय युवकों के रक्त में उबाल आना स्वाभाविक ही था। उन्होंने दस मई को विजय दिवस मना कर इसका उत्तर दिया।
सावरकर जी के मन में प्रश्नों का गुब्बार उठने लगा-सन् 1857 का यर्थाथ क्या था? क्या यह मात्र आकस्मिक सिपाही विद्रोह था? क्या इसके नेता अपने क्षुद्र स्वार्थो के लिए लड़े या भविष्य के लिए कोई प्रेरणा दायी जीवन्त यात्रा का प्रारंभ था यह? इसमें भारत की पीढ़ियों के लिए क्या संदेश था ? इन प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए आपने लंदन की लाइबे्ररियों को छाना, गहन अध्ययन करके तथ्य एकत्र किये और तब रचना प्रारंभ हुई उस पुस्तक की जिसने 1909 में हालेण्ड में छपने के बाद सन् 1857 से लेकर 1943 के बीच एक सेतु का कार्य किया।
इस पुस्तक ने ’गदर’ शब्द का अर्थ ही बदल दिया। इसने 1914 के गदर आंदोलन से लेकर 1943-45 की आजाद हिन्द फौज तक कम से कम दो पीढ़ियों को प्रभावित किया। आजाद हिन्द फौज की संकल्पना और विशेषकर झाँसी की रानी रेजिमेंट के नामकरण की प्रेरणा सावरकर की जप्त शुदा पुस्तक से ही प्राप्त हुई । इस पुस्तक की हजारों प्रतियाँ गुप्त रूप से भारत लाई गईं । एक- एक अंक को सैकड़ों लोगों ने पढ़ा, क्रान्ति की ज्वाला भड़कती चली गई।
मैथिलीशरण गुप्त –
3 अगस्त सन् 1886 में उत्तर प्रदेश के चिरगाँव में जन्में मैथिलीशरण गुप्त ने भारतेंदु जी के कार्य को आगे बढ़ाया, अपनी रचनाओं के द्वारा तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत कर देश वासियों को उस सत्य का दर्शन कराया जिसे सैकड़ों वर्षो की गुलामी के कारण वे विस्मृत कर चुके थे। सन् 1912-13 में आई उनकी महान् कृति ‘भारत- भारती’ जो भारत की प्राचीन सांस्कृतिक जीवंतता का जीवित ऐतिहासिक दस्तावेज है। इसी रचना के कारण वे राष्ट्रकवि कहलाये। ये हिन्दी साहित्य के इतिहास में खड़ी बोली के पहले कवि माने जाते है।
इसमें हमारे प्रचीन गौरव के गान के साथ ही तत्कालीन दुर्दशा का मार्मिक वर्णन है साथ ही समाधान खोजने का सफल प्रयोग भी है। यह पुस्तक देश के नव जागरण की अग्रदूत है। आचार्य राम चंद्र शुक्ल के अनुसार इसमें हिन्दी प्रेमियों का ध्यान आकृष्ट करने की शक्ति है। हम कौन थे? क्या हो गये और क्या होंगें ? का सफल दिग्दर्शन होता है। भारत- भारती के मंगलाचरण से चंद पंक्तियाँ दृष्ठव्य हैं-
मानस भवन में आर्यजन जिनकी उतारें आरती, भगवान् भारत वर्ष में गूंजे हमारी भारती। हेम प्रमोद भाषिणी,वह भारती हे भगवते, सीतापते,सीता पते,गीता मते गीता मते। इस देश को दीन बंधु आप फिर अपनाइए, भगवान् भारत वर्ष को फिर पुण्य भूमि बनाइये। जड़तुल्य जीवन आज इसका,विघ्न बाधा पूर्ण है, हेरम्ब अब अवलंब देकर विघ्नहर कहलाइये।
गुप्त जी का अनुसरण करके उनके बाद के कवियों ने भी इस भाव धारा में अवगाहन करके जन-मन में देश प्रेम की पवित्र भावना का संचार किया, ऐसे कवियों में सुभद्रा कुमारी चैहान, माखनलाल चतुर्वेदी, बाल कृष्ण शर्मा नवीन जी , रामधारी सिंह दिनकर, जय शंकर प्रसाद , निराला आदि प्रमुख हैं।
जयशंकर प्रसाद-
30 जनवरी सन् 1889 बनारस के सूंघनी साहू परिवार में जन्में जयशंकर प्रसाद ने पूर्ववर्ती कवियों से प्रेरणा ग्रहण कर ,कंकाल, तितली,आँसू, झरना, कामायनी के साथ ही राष्ट्रभक्ति से ओत- प्रोत कहानी ’पुरस्कार’ और नाटक ’अजात्शत्रु’ एवं चंद्र गुप्त का भी प्रणयन किया। वे छायावाद के आधार स्तंभ कवियों में एक थे। इन्होंने खड़ी बोली का प्रयोग कर कविता ही नहीं कहानियों में भी माधुर्य रस का सोता बहाया।
पुरस्कार राष्ट्रभक्ति की अमर मिसाल है । यह एक कालजयी रचना है। कहानी की नायिका कोसल के सेनापति सिंहमित्र की पुत्री मधुलिका कोसल के नियम के अनुसार अपने उस खेत को राज्यार्पित करने को विवश होती है जिसे पिता के शहीद होने के बाद बो जोत कर वह अपना जीवन चलाती है, वह उसका मूल्य लेने से इंकार कर देती है, लेकिन खिन्न मना वह बड़ी विपन्नता में अपना जीवन चला रही होती है , मगध का राजकुमार अरुण उसके भोले सौंदर्य पर मुग्ध होकर उसे चाहने लगता है।
तीन वर्ष बाद एक दिन अपनी टपकती झोपड़ी में बैठी मधुलिका राजकुमार के प्रेम प्रस्ताव को ठुकराने की बात याद कर पछता रही होती है, उसी समय आकर अरुण उसकी झोपड़ी में शरण मांगता है, अब वह मगध का विद्रोही और निर्वासत राजकुमार है। वह मधुलिका के मन में कोसल राज के लिए विद्रोह के भाव भड़काता है और लालच देता है कि वह उसे कोसल की राजरानी बनायेगा। वह उसकी मदद करे । मधुलिका उसके आग्रह को मानकर कोसल राज से अपने खेत के बदले दक्षिणी सीमा पर अपने खेत के बराबर भूमि मांग लेती है ।
अरुण वहाँ अपनी सैनिक छावनी बनाकर कोसल की राजधानी श्रावस्ती पर आक्रमण करने निकल पड़ता है। मधुलिका का देश प्रेम जाग पड़ता है । वह कोसल के सेनापति को आक्रमण की सूचना देती है। अरुण बंदी बना लिया जाता है, महाराज प्रसन्न होकर मधुलिका का बहुत आभार मानते हैं और पुरस्कार मांगने का आग्रह करते हैं। वह मृत्यु दण्ड पाये अरुण के पास जाकर खड़ी हो जाती है और अपने लिए भी मृत्यु दण्ड की मांग करती है। मधुलिका अपने प्रेम , और अपने जीवन दोनों को कर्तव्य की बलि वेदी पर अर्पित कर देती है।
चन्द्रगुप्त –यह जयशंकर प्रसाद का राष्ट्र को समर्पित एक ऐतिहासिक नाटक है। इसकी रचना सन् 1931 में हुई , जब देश अंगे्रजों की गुलामी से आजाद होने के लिए कसमसा रहा था। भारतीय राजनीति में गांधी जी का अभ्युदय हो चुका था। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की विफलता का कारण असंगठित कार्य योजना और अयोग्य नेतृत्व को माना गया। आगे का संधर्ष और कठिन था। विचारशील मनिषी गुप्त जी ने समाज का मार्ग दर्शन करने के उद्देश्य से इस नाटक की रचना की। इसका कथानक ईसा से 321 वर्ष पूर्व का है । इसमें चार अंक एवं 44 दृश्यो के माध्यम से इस कथा को पूर्णता प्राप्त होती हैं।
देशी राजाओं की फूट और सिकंदर के आक्रमण से व्यथित राष्ट्र भक्त आचार्य चाणक्य मगध के विलासी शासक घनानंद का नाश कर चन्द्रगुप्त मौर्य को सिंहासनारूढ़ करके भारतवर्ष को एकता के सूत्र में बांधने में सफल होते हैं। इस नाटक में गीत योजना अद्भुत् है- सिकन्दर के सेनापति सेल्युकस की पुत्री कार्नेलिया का गाया गीत शुष्क हृदय में भी देश भक्ति का सागर लहरा सकता है।
‘’अरुण यह मधुमय देश हमारा , जहाँ पहुँच अंजान क्षितिज को मिलता नया सबेरा ।‘’
दूसरा हर भारतीय का कंठहार प्रयाण गीत, जो स्वंत्रता संग्राम के दिनों में देश भक्तों में उत्साह का संचार कर देश प्रेम का अमृत पिलाया करता था, और आज भी जिसे गाने और सुनने वालों का सिर गर्व से ऊँचा हो जाता है–
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से, प्रबुद्ध शु़द्ध भारती। स्वयं प्रभा समुज्ज्वला, स्वतंत्रता पुकारती। अमत्र्य वीर पुत्र हो , दृढ़ प्रतिज्ञा सोच लो, प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो,! बढ़े चलो………!.
गुप्त जी के संकेत को समझ कर ही देश की जनता ने महात्मा गांधी को अपना नेता स्वीकारा और स्वतंत्रता संग्राम को आगे बढ़ाया।
राम नरेश त्रिपाठी- (1889-1962)-
उत्तरप्रदेश के जिला जौनपुर के ग्राम कोइरीपुर में जन्में खडी़ बोली में लिखने वाले स्वच्छंदतावादी कवि,लोक गीतों के प्रथम संग्राहक,आदर्शवादी, राष्ट्रभक्ति तथा मानव सेवा का शंख फूंकने वाले राम नरेश त्रिपाठी जी ने देश की प्राकृतिक सुंदरता का मनोमुग्धकारी वर्णन किया, ओज और माधुर्य रस मे पगी एक कविता दृष्ठव्य है—
‘शोभित है सर्वोच्च मुकुट से , जिनके दिव्य देश का मस्तक। गूंज रहीं हैं सकल दिशाएं जिनके जय गीतों से अब तक । जिनकी महिमा का है अविरल, साक्षी सत्य रूप हिम गिरिवर। उतरा करते थे विमान दल, जिनके विस्तृत वक्षस्थल पर। सागर निज छाती पर जिनके , अगनित अर्णव पोत उठाकर । पहुँचाया करता था प्रमुदित , भूमंडल के सकल तटों पर। त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है , करो प्रेम पर प्राण न्यौछावर। देश प्रेम वह पुण्य क्षेत्र है, अलग असीम त्याग से विलसित। आत्मा के विकास से जिसमें , मानवता होती है विकसित।
पद्म भूषण माखनलाल चतुर्वेदी (1889- 1968)-
4 अप्रैल 1889 में मध्यप्रदेश के होंगाबाद जिले के बाबई गाँव में जन्में श्री माखनलाल चतुर्वेदी जी पेशे से शिक्षक थे, किन्तु मन से एक पत्रकार और एक साहित्यकार थे। उनकी कविताएं देश प्रेम की भावना में पगी होती थीं । राजनैतिक संचेतना की दृष्टि से देखे तो वे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की गरम दल वाली विचार धारा के साथ दृष्टिगोचर होते हैं। 1910 में शक्ति पूजा पर लेख लिखने के कारण उन पर राजद्रोह का मुकदमा चला, अघ्यापक की नौकरी से त्यागपत्र देकर उन्होंने अपना जीवन पूर्णरूपेण साहित्य सेवा एवं देश सेवा के लिए समर्पित कर दिया। प्रभा मासिक पत्रिका और कर्मवीर से भी इनका जुड़ाव रहा।
इन्होंने माता कला का अनुवाद किया। युग चारण,समर्पण,वेणु लो गूंजे धरा,अमीर इरादे गरीब इरादे,समय के पांव,मरण ज्वर,चिंतक की लाचारी, हिमकिरीटनी,साहित्य देवता,हिम तरंगिनी,आदि लिख कर न केवल हिन्दी को समृद्ध किया वरन् अपने क्रान्तिकारी विचारों से स्वतंत्रता संग्राम की ज्वाला को और हवा दी। अमर राष्ट्र और पुष्प की अभिलाषा इनकी कालजयी कविताएं हैं।
असहयोग आंदोलन के सक्रिय कार्य कर्ता होने के कारण उन्हें सन् 1921 में दस माह की जेल हो गई । छत्तीसगढ़ के बिलासपुर सेंट्रल जेल में सजा भोगने के दौरान 28 फरवरी सन! 1922 को पुष्प की अभिलाषा के रूप में उन्होंने अपनी ही अभिलाषा प्रकट की जो प्रत्येक भारतीय का स्वर बन गई। –कुछ पंक्तियाँ दोहरा लें–
‘’चाह नहीं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊँ, चाह नहीं प्रेमी माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ। चाह नहीं सम्राटों के शव पर हे हरि डाला जाऊँ, चाह नहीं देवों के सिर पर चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ, मुझे तोड़ लेना बनमाली ,उस पथ पर देना तुम फेंक , मातृ भूमि को शीश चढ़ाने जिस पथ जायें वीर अनेक।’’
कवि कहते हैं कि संसार के सभी सौभाग्यों से बड़ा उसका यह सौभाग्य होगा कि उसका जीवन रूपी पुष्प देश की रक्षा हेतु प्राण अर्पण करने वाले सैनिकों के कदमों के नीचे बिछा रहे। उनके पवित्र चरणों से कुचल कर धन्य हो जाय।
जवानी शीर्षक से एक कविता दसवीं की पाठ्य पुस्तक मंजरी में पढ़़ा था हमने, देश के जवानों को देश के लिए बलिदान देने के लिए ललकारते हुए वे कहते हैं —
प्राण अंतर में लिए पागल जवानी, कौन कहता है तू विधवा, हुई खो आज पानी, चल रहीं घड़ियाँ चले नभ के तारे, चल रहीं नदियाँ चले हिम खंड प्यारे। चल रही है साँस फिर तू ठहर जाये? , दो सदी पीछे कि तेरी लहर जाये? पहन ले नर मुंड माला ,उठ स्वमुंड होम कर दे। भूमि सा तू पहन बाना आज धानी, प्राण तेरे साथ है उठ री जवानी। द्वार बलि का खोल चल भूडोल कर दे! ,एक हिम गिरि एक सिर का मोल कर दे! अपने इरादों सी हथेली है कि पृथ्वी गोल कर दे, रक्त है या नसों मे क्षुद्र पानी, जाँचकर तू शीश दे दे कर जवानी। वह कवि के गर्भ से फल रूप में अरमान आया। देख तो मीठा इरादा किस तरह सिर तान आया? …………
मुर्दों में भी प्राण फूंकने वाली यह कविता सुन कर देश की जवानी आजादी के लिए सिर पर कफन बांध कर निकल पड़ी थी।
शेष अगले अंक में …….
श्रीमती तुलसी तिवार, जिनकी जन्मभूमि उत्तरप्रदेश एवं कर्मभूमि छत्तीसगढ़ है, एक चिंतनशील लेखिका हैं । आप हिन्दी एवं छत्तीसगढ़ी दोनों भाषाओं में समान अधिकार रखती हैं और दोनों भाषाओं में लेखन करती हैं । आपके पिंजरा, सदर दरवाजा, परत-दर-परत, आखिर कब तक, राज लक्ष्मी, भाग गया मधुकर, शाम के पहले की स्याह, इंतजार एक औरत का आदि पुस्तकें प्रकाशित हैं ।