Hindi translation of the poems of Azam Obidov-Translator Professor Ravindra Pratap Singh (अज़ाम अबीदोव की कविताओं का हिन्‍दी अनुवाद-अनुवादक प्रोफेसर रवीन्द्र प्रताप सिंह, भाग-1)

अज़ाम अबीदोव की कविताओं का हिन्‍दी अनुवाद (Hindi translation of the poems of Azam Obidov, A represntative poet of English and Uzbek fromUzbekistan)

अनुवादक प्रोफेसर रवीन्द्र प्रताप सिंह (Translator Professor Ravindra Pratap Singh)

Hindi translation of the poems of Azam Obidov-Translator Professor Ravindra Pratap Singh
Hindi translation of the poems of Azam Obidov-Translator Professor Ravindra Pratap Singh

1. कहो ख्वाब न आयें (Don’t let the dream)

मत आने दो मुझको सपने , मेरे दोस्त सुनो ,
यदि मूर्छित मैं हो जाऊं , मत कुछ यत्न करो।
इस बीते पिछले अरसे ने, मुझको पका दिया है,
मुझको तो मंतव्य तुम्हारे बस प्रेरित करने दो।
यही चाहता हूँ अब कि बाहें मेरी बने सहायक ,
जब भी तुम्हे जरूरत इनकी , निःसंदेह इन्हे चाहो।
इच्छाओं के पंखों को शुरू किया है अभी कतरना
ताकि लोग शुरू कर पाएं लम्बे लम्बे स्वप्न देखना ।

2.अपने वतन में (In my homeland)

अम्मा , कब आओगी अब दोबारा
इस बेरस से पड़े नगर में
चटपटे शहर की बातें लेकर।
कैसे हर्षित तुम्हे करूंगा
इसका मुझको भान नहीं ,
किन्तु बुला कर ले आऊँगा
इधर उधर से मीत जुटाकर।
गहन विचारों को ओढूँगा
धैर्य लिपट जायेगा ,
देखो चाह रहा वो हामी
स्याही लेप हथेली में।
एक छाप रख दो तुम माँ
उभरे पार्श्व उधर पृष्ठों से
होऊं मैं उत्पल , तुम स्थिर, माँ !
हाँ भय है उनको
एक कवि की माँ से ,
कुछ सच्चाई लगती?
माँ बोलो!
कब आओगी माँ , बोलो !
कब तक बंद रहूँ मैं बैठा
बिना तुम्हारे सिकुड़ा जकड़ा
सर्वाधिक संकुचित नगर में

3.अंतर (Difference)

मेरे दोस्त
चलो बन जाते हैं
टैक्सी चालक
सच्ची कहानी कहेंगे लोग
अपनी खुद की , और वतन की।
तुम भी ,
बस एक बदलाव के लिये
अपने दिलो- दिमाग को खोलोगे
पूछो खुद से।
अगर नहीं है विरोध
शासकों से , पर्यावरण से
और अपने अहम् से
तो आओ थोड़ा और पास
उगायें सुन्दर- सुन्दर विरोध ,विभेद
जीवन को गति देने को,
नहीं तो
मुझे कल्पना लोक से करो मुक्त
या मुझे फिर से कहने दो
क्या यह पुरस्कार
अब भी कारागृह वासी माँगता है!

4.मदीबा (Madiba)

मदीबा ,
देखा तुमने – चाँद काँपा
और मैं जान गया ,
तुम बन सकती हो –
एक सेतु
मेरे और कायनात के बीच।
हाँ जनता हूँ मैं
रंगीन स्वप्न नहीं हैं मेरे पास
एक पत्ते पर लिखे
किन्तु चमकते अधिकार अवश्य !
अच्छा बताओ :
तुम क्या बातें करोगी
चांदनी रात में
पुल पे
उस शांत दिन
तानाशाह के साथ!
मदीबा ?

5. हम जीत जायेंगे (We will win)

अमा ईर्ष्यालु
अपनी टीम में ले लो मुझे
हम जीत जायेंगे ।

6. मिट्टी हूँ मैं (I am Clay)

मिट्टी हूँ मैं
पिलपिली कमज़ोर
केने को न जुबान न मुँह!
हरेक चाहता है कुछ बनाना मुझसे
मुझे कुछ रूप देना
मिट्टी हूँ मैं
पिलपिली कमज़ोर
हाथों हाथ खिसकती हूँ
फिसल सरककर
फिसल सरककर !

7. बुढ़िया बैठी पढ़ती दिखती (A reading woman)

झुग्गी बस्ती में बैठी वो
कूड़े करकट में औरत
कूड़े कबाड़ की वो सौदागर
देखो लेकिन बैठी पढ़ती !
बोझिल है कितना अँधियारा
फीके प्रकाश में टिम -टिम डेरा
बुझती लौ में अटकी फिर भी
बुढ़िया बैठी, पढ़ती दिखती
जीवन की झरती आशायें
उस जीवन की
फिर भी !
बुढ़िया पढ़ती-आती ख्वाबों में !

8. विनती (Entreaty)

चलो उदास है भाग्य
चलो कुशल खोजी बनते
चलते रहते मददगार बन
मालूम है –
नहीं मिलेगा खुश खुश सब कुछ ।
कौन करेगा संशोधित
माथे पर जो लिख बैठा है ।
बनो कुशल अन्वेषक, मेरे उजड़े भाग्य !
सूनी नज़रों को फैलाओ
दिल को चलो दुआयें देते
बुझने से फैले मत देखो
मेरी ठोकर को !

9. छाया (shade)

छाया को ढूंढूं मैं हरपल,
बड़ा कठिन है लेकिन ये सब ।
आँखों में आकाश सुलाऊँ
क़तरा क़तरा चाँद उठाऊँ।
किन्तु क़यामत के दिन जब सब कुछ
चारागाह , खेत सूखेंगे
ईश्वर की छाया बिखरेगी
ईश्वर की छवि सी फैलेगी।

10. मन तो चलता ही है रहता (priority)

भले देख रखा है कितने
उजले, काले ,सब्ज़ दिनों को ।
वैसे कोई भी क्या खिंचता,
मन तो चलता ही है रहता ।
घास में उलझी मुर्दा चींटी
कोई हरकत क्या वो करती?
कितने कितने अनुभव लादे
चीज़ों की सदियाँ फैलाये।

कुछ और कवितायें अगले भाग में

प्रो. रवीन्द्र प्रताप सिंह

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