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समीक्षा की कसौटी में “अर्पण”-कन्हैया लाल बारले

समीक्षा की कसौटी में “अर्पण”-कन्हैया लाल बारले

पुस्‍तक समीक्षा-

समीक्षा की कसौटी में “अर्पण”

-कन्हैया लाल बारले

समीक्षा की कसौटी में "अर्पण"
समीक्षा की कसौटी में “अर्पण”

अर्पण

शिरोमणि माथुर द्वारा विरचित अर्पण नामक किताब जैसे ही मेरे हाथ में आया ,मैंने एक ही दिन में पूरी रचना पढ़ ली। पढ़कर मेरे नयन सजल हो गए । सचमुच ही श्रीमती शिरोमणी माथुर ने इस किताब में अक्षर नहीं अपितु अपनी आंखों के अश्रुपूर्ण मोती बिखेरी है । इस किताब की कविताओं की हर पंक्तियां ममता की पुकार ,वेदना ,स्नेह ,दुलार, सूनापन ,रिक्ता से पूरित है। कवयित्री उसी प्रकार रोई है जिस प्रकार एक दुधारू गय्या अपना बछड़ा के बिछोह में बार-बार रंभाती है। उसे बछड़े के बिना चारा कोठा कुछ नहीं भाता। वह केवल रंभाती ही रहती है ।कवयित्री अपने जवान बेटे के असामयिक इंतकाल पर शोक गीत लिखी है ।अपने बेटे से जुड़ी सभी वस्तुओं, घटनाओं ,रिश्तो को तब और अब में तुलना करती हुई मानवीय मनोवृत्तियों को ह्रदय में सहेज कर उसे पुनः हृदय से उड़ेल कर लेखनी के माध्यम से अर्पण नामक पुस्तक लिखी है। वेदना भरी यह काव्य संग्रह उत्कृष्ट साहित्य की लड़ी में एक और मजबूत कड़ी जुड़ चुकी है। कवयित्री शिरोमणि माथुर अपनी कविताओं के माध्यम से बार-बार अपने बेटे को घर लौट आने की मनुहार गुहार करती है,और प्रश्न भी करती है कि तुम कौन से देश चले गए हो जहां से तुम नहीं आ सकते?

उनकी “तुम गए कौन सा देश?” कविता जगजीत सिंह द्वारा गाया गया (दुश्मन पिक्चर मे) गीत के समतुल्य है ।उस गीत में भी प्रश्न किया गया है

“चिट्ठी ना कोई संदेश ,
जाने वह कौन सा देश,
जहां तुम चले गए ?”

अपर्ण के तीन खण्‍ड-

(1)काव्य संग्रह

(2) कहानी संग्रह

(3)आलेख संग्रह

(1)काव्य संग्रह

वैसे तो तीनों खंड अपने आप में विशिष्टता लिए हुए हैं ,परंतु अपने पुत्र के वियोग में मां द्वारा लिखी यह वेदना भरी कविताएं जिससे कवयित्री अपने हृदय की अतल गहराइयों से पीड़ा को स्यही के बदले उड़ेल कर काव्य पंक्तियां रूपी पुष्प अपने दिवंगत पुत्र को भाव भेंट की है ।वह पुस्तक “अर्पण” कहलाने हेतु पर्याप्त है। कवयित्री ने कविता रूपी भाव पुष्प मात्र पुत्र को ही भेंट नहीं की है अपितु अपने जीवन साथी ,भाई ,पुत्रवधू ,साथी कलमकार ,श्रमिक बंधुओं को भी अर्पित की है ।इससे भी बड़ी बात यह है कि अर्पण नामक पुस्तक को सर्व हितार्थ लोगों के हाथों में भेंट करके अर्पण नाम को चरितार्थ करने में सफल हुई है। कोई भी रचनाकार का जीवन मात्र व्यक्तिगत तक सीमित नहीं रहता ।वह अपनी रचनाओं के माध्यम से सर्व हिताय विचार संप्रेषित कर सबके लिए सार्वजनिक हो जाता है।

उसी प्रकार कवयित्री श्रीमती शिरोमणि माथुर भी अपनी रचना धर्मिता निभाते हुए अर्पण नामक पुस्तक जनता को भेंट की है। अर्थात कवयित्री अपना जीवन समाज हित में अर्पण का धर्म निभाया है ।अतः इस पुस्तक का नाम अर्पण सोलह आने सच है।

मेरी उम्र एवं मगज उतनी नहीं कि किसी की आलोचना करूं। मैं तो अपना धर्म निष्पक्ष निभाने का प्रयास कर सकता हूं। कहते हैं कि सोने की परख कसौटी नामक पत्थर से होती है ,उसी प्रकार किसी रचना की परख समीक्षा की कसौटी से होती है ।इसलिए सर्वप्रथम हम इस कृति में दैदीप्य होते रचनाओं का भाव पक्ष व विपक्ष पर चर्चा करते हैं ।

कवयित्री देश के प्रति समर्पण की भावना व्यक्त करते हुए लिखी है-

“कहे मातृभूमि ,बहुत लाल खोए,
मुझे तो जरूरत आपकी है।”

मातृभूमि बलिदान मांगती है। भारत मां की रक्षा खातिर बहुत से बेटे अपना जीवन समर्पित कर चुके हैं। फिर भी मुझे तो और बेटों की जरूरत है और सदा रहेगी भी। इन भावों के साथ कवयित्री का देश के प्रति अनन्य लगाव परिलक्षित होता है ।

एक ओर श्रीमती माथुर खुद महिला होकर अपनी कहानी “नारी का स्वाभिमान “में नारी शक्ति की लाचारी को व्यक्त की है। वह निष्पक्ष रुप से कहना चाहती है कि नारी सभी मामलों में सबला होते हुए भी कुछ मामलों में पुरुषों के बगैर जिंदगी नहीं काट सकती ।
वह कहती है-

‘ मैं सोच रही हूं कि गालियां तो गालियां पति यदि गोलियां भी चलाएंगे तो भी अपने स्वाभिमान को बीच में नहीं आने दूंगी ,
सोचती हूं ऐसे में कितना स्थाई हो सकता है किसी नारी का स्वाभिमान ।”

इसके विपरीत वर्तमान समय में नारी की दुर्दशा पर लिखी है-

“लुटती है इज्जत मेरी बेटियों की,
पशुओं के माफिक वे बेची भी जाती ।(अग्निपरीक्षा)

“सीतायें चोरी हो जाती,
और द्रोपति आ रोती है।
अंगद पैर हटा लेते हैं ,
फिर सुलोचना रोती है ।
कुछ गंधारी बन बैठे हैं,
कुछ के खेल निराले हैं ।”

इन पंक्तियों के माध्यम से कवयित्री पुरुष प्रधान समाज में नारी जाति की स्थिति पर प्रश्नचिन्ह लगाती है ।साथ ही यह भी बताना चाहती है कि नारियों की दुर्दशा के पीछे मात्र पुरुष ही जिम्मेदार नहीं है अपितु कुछ नारियां गंधारी की तरह जानबूझकर आंखों में पट्टी बांधे हुए हैं ।और बहुएं जलाई जाती है। उस जुर्म में सास ननंद भी शामिल होती है । कुछ नारियां ओहदे प्राप्त करके अपने आप में मस्त हो जाती है ।वे दुनिया की घटनाओं से बेखबर रहती है। अर्थात कवयित्री नारी जाति की दुर्दशा के पीछे नारी एवं पुरुष दोनों को जिम्मेदार करार देती है। जो सही है ।

कवित्री अपनी उम्र के अनुरूप सारा जीवन के अनुभव का निचोड़ जीवन दर्शन के रूप में प्रस्तुत की है। वह अपनी कविताओं और लेख के माध्यम से जीवन को परिभाषित करने का प्रयास की है ।उनकी दर्शन की उच्चता इतनी है कि सांसारिक माया से परे मूल तत्व की प्राप्ति हेतु साधुत्व को प्राप्त करने की चेष्टा की है ।
कहती है –

“आना-जाना हंसना रोना ,
यह जीवन का खेला ।
मिलना जुलना और बिछड़ना,
दुनिया है एक मेला।”

“क्या हार है क्या जीत है ?
जीवन महासंग्राम है।”( गूंगा गीत)

कवित्री आत्मज्ञान बतलाती हुई कहती है-

” मैं देह नहीं हूं आत्मा हूं। हूं आज यहां कल और कहीं मैं जाऊंगी।,

अर्थात कोई जीव का असली पहचान भौतिक शरीर से नहीं की जानी चाहिए सभी का देह तो मिट्टी है। सभी प्राणियों में जो समान सार तत्व है वह है “आत्मा” जो कभी कोई देह धारण कर करती है तो कभी और दूसरा देंह। इस प्रकार की भावना कवयित्री को ऊंचा पद प्रदान करती है ।यह विचार गीता उपदेश का परिपालन के समतुल्य है ।

समाज में एक बहुत बड़े वर्ग श्रमिकों का है ।श्रमिक वर्ग शुरू से ही बेकारी गरीबी लाचारी भुखमरी और शोषित शोषण के शिकार हुए हैं ।उनकी खबर लेने वाला कोई नहीं है। सत्ता पक्ष के लोग उन्हें भी सीढ़ियों की भांति उपयोग करते हैं। और विकास के नाम में उन्हें हमेशा हाशिए पर छोड़ दिया जाता है ।किसी देश के निर्माण में श्रमिक वर्ग नींव के पत्थर के रूप में भूमिका निभाते हैं अपितु वे जीवन जीने हेतु दाने दाने के लिए मोहताज रहते हैं। किसी भी निर्माण कार्य में श्रमिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। और जब उपभोग की बारी आती है तो उन्हें ही दूध की मक्खी की तरह निकाल दिया जाता है। कवयित्री की यह पंक्ति श्रमिकों का दर्द बयां करने हेतु पर्याप्त है।

” रोटी लेने शहर गया था ,
भूखे पेट चला आया हूं।,

कवित्री श्रमिकों की नगरी दल्ली राजहरा की निवासी है। वह श्रमिकों के बीच रही है ।भला उनसे ज्यादा श्रमिकों के विषय में कौन जान सकता है। दूसरी ओर कहती है कि समाज के लोगों का संस्कार दूषित हो गया है। प्रत्येक व्यक्ति स्वार्थी हो गया है ।यहां अन्याय अत्याचार अनाचार व्यभिचार लूट शॉट कमीशन खोरी का बोलबाला है। सज्जन यहां रोते हैं ।दुर्जन मजा उड़ाते हैं। अर्थात मानवीय गुणों में निम्नता देखी जा रही है ।लगता है मानवता एनीमिया के शिकार है।
कवित्री प्रश्न करती है-

“मानवता यदि लुप्त हो गई, तो फिर से बचेगा क्या?”

इन पंक्तियों से पता चलता है कि कवित्री वर्तमान शासन व्यवस्था से संतुष्ट नहीं हैं ।

“कंश दुरशासन शासन करते ,
राम गमन करते हैं ।
न्याय मांगती न्याय व्यवस्था,
अपराधी देश चलाते हैं ।”

कवित्री का मानना है कि न्याय व्यवस्था अमीर एवं सत्ताधारी व्यक्तियों के हाथों की कठपुतली बन कर रह गई है ।चोर अपराधी लुच्चे लफंगे ही देश चला रहे हैं तो शासन व्यवस्था उन्हीं लोगों के हित में ही रहेगी। भोली-भाली जनता के हित साध्य शासन नहीं हैं ।अतः कवयित्री अच्छी शासन व्यवस्था की मांग करती है ।

काव्य खंड के अंतिम कविताओं से पता चलता है कि कवयित्री अपने बड़े पुत्र आलोक माथुर के देहावसान के पश्चात उनका पूरा परिवार शोक संतप्त हो जाता है।क्योंकि प्रारंभिक कविताओं में इन्हीं का चित्रण मिला हैं ।

अंत में जब यह घटना नियति की देन समझ ली जाती है तो अंत में आदमी हार थक्कर सब कुछ नियति अर्थात ईश्वर के ऊपर छोड़ देते हैं । उनकी सत्ता के आगे नतमस्तक हो जाते हैं। ईश्वर को सर्वशक्तिमान मानकर जीवन के उद्धार का मार्ग प्रशस्त करने हेतु अनुनय विनय किया जाता है। यहां यही काम कवयित्री ने भी अपनाई हैं ।कवयित्री कहती है-

‘तुम ही प्रकाशित कर सकते हो,
सुना मेरा जीवन पथ ।”

प्रभु !तू ना होता तो कहां जाता आदमी ?”

“ईश्वर से हटकर कुछ लिखने को बोलते हो ।
और क्या है? जिस पर लिखूं मैं ?”

कवित्री नियति के नियम को स्वीकार करती है। वह मानती है कि लोग माया में भटके हुए हैं। जबकि असली जीवन तो प्रभु भक्ति में ही है ।प्रभु इच्छा ही सर्वोपरि है इसलिए ईश्वर का गुणगान को अंतिम सत्य बताया है ।साथ ही हमें जागृत करने हेतु प्रेरणा गीत भी रची है।

(2) कहानी संग्रह

अर्पण के द्वितीय खंड में कहानियों को स्थान दिया गया है।
‘ नमक हराम” कहानीएक गद्दार दोस्त की कहानी है । जो समसामयिक है।” नारी का स्वाभिमान” में नारी शक्ति की लाचारी के साथ-साथ पुरुष प्रधान व्यवस्था को बलवान बताई है।” बड़ी भाभी” में भी वर्तमान सामाजिक रिश्ते और न्याय अन्याय के पलड़े में तैरती अंधा कानून जो सबूत के भरोसे न्याय करती है जिसमें सच झूठ के सामने हार जाती है और बेगुनाह होते हुए भी बड़ी भाभी जैसी औरत सजा पाती है ।इसमें कसूर न्याय व्यवस्था को दे या आदमी के फितरत को ?यही समझ में नहीं आती ?

उसी प्रकार “गवाही” भी कोर्ट कचहरी के कार्य व्यवस्था की कमजोरी को दर्शाती है ।सच की गुहार सुनने वाला कोई नहीं है। वह झूठ की आवाज में दब जाती है ।गवाह को इस प्रकार दिग्भ्रमित किया जाता है कि जो सच है उसे वह बोल नही पता।

कहानियों का विषय वस्तु प्रासंगिक व समसामयिक है। जिसे लेखिका ने भली-भांति प्रस्तुत करने में सफल हुई है।

(3)आलेख संग्रह

लेखिका आलेख में छोटे-छोटे विषय वस्तुओं को लेते हुए अपने मन का व्यक्तिगत विचार कहीं है। इन आलेखों में भी मानव विचार आस्था कर्मफल धर्म जाति राजनीति महिला शक्ति एवं आज का प्रजातंत्र जैसे विषयों पर अलग-अलग शीर्षक निर्धारित कर उन पर व्यक्तिगत विचार प्रतिस्थापित की है ।लेखिका का विचार सार्वभौमिकता की ओर है। वह निष्पक्ष प्रांजल विचार लोगों के बीच परोसने का प्रयास की है ।इससे कितने लोग लाभ लेते हैं यह व्यक्ति के ग्राह्य एवं विवेक शक्ति पर निर्भर है। लेखिका आलेखों के माध्यम से नेक एवं सुंदर विचार समाज तक पहुंचाने का भगीरथ प्रयास की है।

उपरोक्त सभी भाव एवं विचार उत्तम तो है किंतु सर्वोत्तम नहीं है। सर्वोत्तम होने के लिए कुछ हटकर विशिष्ट विषय वस्तु का चयन करते हुए गंभीरतापूर्वक नये प्रतिमानों को प्रतिस्थापित करने की आवश्यकता है। लगभग सभी कविताओं एवं कहानी लेखों में पुराने प्रतिमानों को उपयोग में लाए गए हैं। विषय वस्तु पुराना है। प्रस्तुतीकरण सामान्य हैं। इस साहित्य संसार में अनगिनत चमकते साहित्यिक पुस्तकें सितारों की तरह टिमटिमा रहे हैं। उस भीड़ में जब तक ज्यादा चमकने वाला सितारा नहीं उगेगा तो उस सामान्य तारा का भीड़ में कहीं खो जाने का भय बना रहता है। इसलिए उत्कृष्ट रचना हेतु सशक्त विषय वस्तु एवं नए प्रतिमानो के साथ प्रस्तुतीकरण विशिष्ट होने की कामना करता हूं। जो कि इस अर्पण पुस्तक में मुझे कहीं नहीं मिला।

कलापक्ष

कलापक्ष की दृष्टिकोण से यह अर्पण पुस्तक कुछ कमजोर है। इसमें पारंपरिक छंद विधान की अवहेलना की गई है ।काव्य हृदय की वस्तु है जो हृदय की बात मुंह तक आए और वह शौक गीत वेदना गीत दर्द गीत ममता की गुहार हो तो दूसरे को द्रविभूत करना स्वाभाविक है। इसके लिए कोई विशिष्ट छंद की आवश्यकता नहीं है ।इसी धर्म को निभाते हुए श्रीमती माथुर मुक्त शैली का अनुपालन की है ।फिर भी शब्द चयन की विशिष्टता यति गति को ध्यान में रखते हुए तुकांत विधान का पालन की है। वर्णिक और मात्रिक अनुशासन का पालन लगभग किया गया है ,जिससे उनकी रचनाएं पठनीय व गेय बन गई है ।

इस संग्रह की अधिकांश कविताएं भक्ति परख रचनाएं है। वात्सल्य रस में वेदना और शौक का परिपाक है ।इसमें शांत रस की प्रधानता है। वेदना, स्नेह, दुलार ,ममता, वियोग, पुत्र के प्रति, पुत्र वधू के प्रति, जीवन साथी के प्रति ,भाई के प्रति, व ईश्वर के प्रति देखने को मिला।
अलंकार की बात कहें तो अनुप्रास रूपक उपमा यदा-कदा दृष्टव्य है ।

मुहावरे का उपयोग भी कहीं कहीं देखने को मिला।

भाषा शैली

श्रीमती शिरोमणि माथुर की भाषा शैली देवनागरी लिपि के हिंदी भाषा की सरल सहज एवं सुबोध गम है । कहीं-कहीं छत्तीसगढ़ी अंग्रेजी उर्दू के शब्द भी उपयोग में लाए गए हैं। श्रीमती माथुर अपनी बात बिना कोई लाग लपेट के सीधा सीधा बोलना जानती है। यह उनकी सहज सरल व भोलेपन व्यक्तित्व की निशानी है। श्रीमती माथुर राजनैतिक क्षेत्र में प्रदेश में वरिष्ठ महिला कार्यकर्ता के रूप में जानी जाती है। अपितु राजनीति की छाप साहित्य पर पढ़ने नहीं दी है वह एक सजग रचना धर्मिता को निभाया है।

समीक्षक
कन्हैया लाल बारले (अध्यक्ष)
मधुर साहित्य परिषद ईकाई डौन्डी लोहारा
जिला बालोद (छत्तीसगढ़ )

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