
भारतीय संत परंपरा में 15वीं शताब्दी के अंत और 16वीं शताब्दी के प्रारंभ में वल्लभाचार्य का नाम अत्यंत श्रद्धा और आदर के साथ लिया जाता है। वे शुद्धाद्वैत दर्शन के प्रवर्तक, पुष्टिमार्ग के संस्थापक, और श्रीकृष्ण भक्ति आंदोलन के महान प्रचारक थे।
जन्म और प्रारंभिक जीवन
वल्लभाचार्य का जन्म संवत् 1535 (ई. 1479) में हुआ। उनका जन्मस्थान वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य के रायपुर ज़िले में स्थित चम्पारण (गोकुल) है। उनके पिता लक्ष्मण भट्ट और माता इलम्मा थे, जो तेलुगु ब्राह्मण परिवार से थे। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, उनका जन्म संकटकाल में हुआ था और इसलिए उन्हें “अग्नि का अवतार” कहा गया।
शैक्षणिक और दार्शनिक उत्कर्ष
वल्लभाचार्य अत्यंत मेधावी बालक थे। केवल बारह वर्ष की आयु में उन्होंने वाराणसी जाकर वेद, उपनिषद, षड्दर्शन और अष्टादश पुराणों का गहन अध्ययन पूर्ण किया। उनकी स्मरणशक्ति और तर्कशक्ति इतनी प्रखर थी कि अल्पायु में ही उन्होंने पांडित्य का लोहा मनवा लिया।
वाराणसी से उन्होंने वृंदावन की यात्रा की, जहाँ उनका हृदय भक्ति की मधुर भावनाओं से परिपूर्ण हो उठा। तत्पश्चात वे भारत-भर में तीर्थयात्राओं पर निकले और धर्म के प्रचार में जुट गए।
विजयनगर में विजय
उनकी ख्याति तब और बढ़ी जब उन्होंने विजयनगर साम्राज्य के राजा कृष्णदेव राय की सभा में शास्त्रार्थ कर वहां के विद्वानों को पराजित किया। राजा ने उनकी विद्वता से प्रसन्न होकर उन्हें “वैष्णवाचार्य” की उपाधि दी और स्वर्ण एवं वस्त्रों से सम्मानित किया।
गृहस्थ जीवन और संतत्व
वल्लभाचार्य ने बाद में वाराणसी में विवाह किया। उनकी पत्नी महालक्ष्मी थीं, और उनके दो पुत्र हुए—गोपीनाथ और विट्ठलेश्वर। परंतु सांसारिक जीवन में रहते हुए भी वे सदैव ईश्वर-भक्ति और दर्शन के प्रचार में संलग्न रहे।
दार्शनिक योगदान
वल्लभाचार्य का दर्शन “शुद्धाद्वैत वेदांत” के नाम से प्रसिद्ध है। यह अद्वैतवाद का ही एक रूप है, किंतु इसमें माया का निषेध नहीं, बल्कि उसका ईश्वर में अवस्थान माना गया है। वे कहते हैं:
“श्रीकृष्ण ही परमब्रह्म हैं, और समस्त जगत उन्हीं की लीला है।”
उनकी मुख्य कृतियाँ हैं —
- व्याससूत्र भाष्य
- जैमिनि सूत्र भाष्य
- भागवत टीका (सुबोधिनी)
- सिद्धांत रहस्य
- पुष्टि प्रवाल मर्यादा
उन्होंने संस्कृत के साथ-साथ ब्रजभाषा में भी रचनाएँ कीं, जिससे उनकी शिक्षाएँ आम जनमानस तक पहुँचीं।
पुष्टिमार्ग का सिद्धांत
वल्लभाचार्य के मत में “पुष्टि” का अर्थ है—भगवान की कृपा द्वारा जीव का पोषण। यह मार्ग कर्मकांड से रहित भक्ति मार्ग है, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं की उपासना की जाती है।
उनके अनुसार,
“ईश्वर कृपा से ही जीव को मुक्ति और ईश्वर-प्राप्ति संभव है।”
वल्लभाचार्य के अनुयायी बालकृष्ण (श्रीनाथजी) की उपासना करते हैं, जो नाथद्वारा (राजस्थान) में स्थित हैं। यही से पुष्टिमार्ग का प्रसार हुआ।
अंतिम समय और महाप्रयाण
जीवन के अंतिम दिनों में वल्लभाचार्य वाराणसी में निवास करने लगे। जब उन्हें लगा कि जीवन का उद्देश्य पूर्ण हो गया है, तो वे हनुमान घाट की ओर गंगास्नान के लिए गए।
कहा जाता है कि वहाँ उपस्थित लोगों ने देखा —
“उनका शरीर दिव्य प्रकाश में परिवर्तित होकर आकाश की ओर विलीन हो गया।”
यह घटना सन् 1531 ईस्वी में, उनकी 52 वर्ष की आयु में हुई।
दार्शनिक सार
वल्लभाचार्य का सिद्धांत केवल दर्शन नहीं, बल्कि जीवन का मार्गदर्शन है। वे कहते हैं —
“जगत मिथ्या नहीं, वह ईश्वर की सच्चिदानंद लीलामयी अभिव्यक्ति है।”
उनका दर्शन मनुष्य को कर्म, भक्ति और प्रेम के समन्वय से ईश्वर-साक्षात्कार का मार्ग दिखाता है।
🔸 निष्कर्ष
वल्लभाचार्य भारतीय भक्ति आंदोलन के उन महान संतों में से हैं जिन्होंने ज्ञान और भक्ति को एक साथ जोड़ा।
उन्होंने न केवल दर्शन का पुनरुद्धार किया, बल्कि उसे जीवन के प्रत्येक कार्य में उतारने का संदेश दिया।
उनकी शिक्षाएँ आज भी पुष्टिमार्गी वैष्णवों के हृदय में प्रज्वलित दीपक की तरह प्रकाश फैला रही हैं।







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