
लघुकथा -आँखों की चमक
दीपावली का दिन था। घर-घर दीपों की पंक्तियां जगमगा रही थी। मिठाइयों की खुशबू से वातावरण महक रहा था। मोहल्ले में बच्चे पटाखे और आतिशबाजी की तैयारी में जुटे थे। शोर-गुल, हंसी-ठिठोली और रॉकेट की आवाजें हवा में गूंज रही थी।माणिक परिवार भी उत्साह में डूबा हुआ था। आंगन में दीप सज चुके थे और मिठाई की थाल मेज पर रखी थी। लेकिन तभी छोटी बेटी शालू ने मासूमियत से कहा
“ पापा! हर साल हम ढेर सारे पटाखे जलाते हैं। उनसे थोड़ी देर मजा आता है पर फिर धुआं, कचरा और बदबू से सबका मन खराब हो जाता है। इस बार क्यों न हम पटाखों की जगह कोई और काम करें जिससे सबको खुशी मिले ? ”
उसकी बात सुनकर बड़ा भाई हंसते हुए बोला –
“ दीपावली पटाखों के बिना कैसी लगेगी, शालू ? ”
मगर मां ने गंभीरता से कहा –
“ बेटा, शालू गलत नहीं कह रही। असली दीपावली तो अंधकार को दूर करने और खुशियां बांटने का नाम है। सोचो, अगर हम बचाए हुए पैसों से किसी जरूरतमंद की मदद करें तो कितनी बड़ी दीपावली होगी। ”
माणिक जी ने भी सहमति जताई। वे बोले –
“ बिलकुल सही! रोशनी केवल पटाखों से नहीं आती बल्कि दूसरों के जीवन में मुस्कान जगाने से आती है। क्यों न इस बार हम मोहल्ले के गरीब बच्चों को मिठाई और कपड़े दें ? ”
बात परिवार के हर सदस्य को भा गई। उस रात दीपों की पंक्तियां जलाकर परिवार ने मिलकर संकल्प लिया कि वे पटाखे नहीं जलाएंगे। बचाए गए पैसों से वे पास के अनाथालय पहुंचे। वहां के बच्चे नए कपड़े और मिठाई पाकर खिलखिला उठे। उनकी आंखों की चमक किसी भी पटाखे की चिंगारी से कहीं ज्यादा उजली और टिकाऊ थी।
यह दृश्य देखकर मोहल्ले के अन्य परिवार भी प्रभावित हुए। अगले दिन कई लोग माणिक परिवार की राह पर चल पड़े। पूरे मोहल्ले ने सामूहिक रूप से निश्चय किया कि आगे से दीपावली धुआं और शोर में नहीं बल्कि सद्भाव और सेवा की रोशनी में मनाई जाएगी।
धीरे-धीरे यह परंपरा पूरे कस्बे में फैल गई। दीपावली का त्यौहार वहां परिवार की सामंजस्यता, आपसी सद्भाव और समाज को प्रेरित करने वाला उत्सव बन गया।
लघुकथा -आंगन में सजी रंगोली
दीपावली का पर्व पूरे मोहल्ले में धूमधाम से मनाया जा रहा था। हर घर में दीये जगमगा रहे थे, पटाखों की आवाज गूंज रही थी। बच्चे उत्साह से इधर-उधर भागते फिर रहे थे।
मधुरिमा अपने आंगन में रंग-बिरंगे रंगों से खूबसूरत रंगोली बना रही थी। उसने कई दिन पहले से ही तरह-तरह के डिजाइन देखे थे। आज वही कला उसके हाथों से जीवन पा रही थी। मोर, फूल, दीप और ज्योति की आकृतियां उसकी रंगोली में चमक उठी।
उधर गली के कोने में छोटी अनुराधा खड़ी थी। उसके घर में दीपावली की चहल-पहल वैसी नहीं थी। पिता मजदूरी करते थे और मां बीमार थी। अनुराधा के पास न नए कपड़े थे, न मिठाइयां। वह बस दूर खड़ी मधुरिमा की रंगोली देख रही थी, उसकी आंखों में चमक थी पर होठों पर हल्की उदासी।
मधुरिमा ने उसे देखा और मुस्कुराते हुए पुकारा
“ अनुराधा ! आओ, मेरी मदद करो। ”
अनुराधा संकोच में खड़ी रही।
मुझे रंग बिगाड़ने का डर है।
अरे, रंगोली की खूबसूरती तो रंगों के मिलने में है कोई बिगाड़ नहीं होता। मधुरिमा ने उसका हाथ थाम लिया और रंग उसके हाथों में भर दिए।
धीरे-धीरे अनुराधा भी रंग बिखेरने लगी। उसकी उंगलियों ने जैसे अपनी ही कल्पना से छोटे-छोटे दीप और फूल गढ़ दिए। मधुरिमा चकित रह गई। “ वाह ! तुम तो कितनी अच्छी रंगोली बनाती हो। ”
अनुराधा की आंखें चमक उठी। पहली बार किसी ने उसकी काबिलियत को सराहा था।
तभी मधुरिमा की मां ने दोनों को मिठाई दी और बोली-
“ दीपावली तभी पूरी होती है जब खुशियां बांटी जाए। ”
अनुराधा ने पहली बार दीपावली की मिठास महसूस की। वह बोली-
आज मुझे सच में लग रहा है कि दीये सिर्फ तेल से नहीं दिल की रोशनी से जलते हैं।
मधुरिमा ने रंगोली पर रखे दीपक को जलाया। रंगोली की चमक दीयों से कई गुना बढ़ गई। दोनों सहेलियों की हंसी से आंगन गूंज उठा।
उस रात अनुराधा जब घर लौटी तो उसका चेहरा किसी दीये से कम नहीं चमक रहा था। उसने मां से कहा-
मां ! आज मैंने भी दीपावली में रंगोली बनाई … और उसमें मेरी खुशी भी चमक रही है।
दीपावली की असली रोशनी अब सिर्फ रंगोली में नहीं अनुराधा के दिल में भी जगमगा रही थी।
– श्रीमती संध्या सुभाष मानिकपुरी
ग्राम – सिहावा
विकासखंड – नगरी
जिला – धमतरी (छ.ग.)






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