
जिंदगी में क्या होगा –
जिंदगी में क्या होगा
शायद कुछ नया,
या वही पुराना जो अभी तक अधूरा है।
एक नींद पूरी नहीं हुई,
एक सपना पूरा नहीं टूटा।
सुबह होगी,
आसमान थोड़ा खुला होगा,
जैसे कोई बात मन में रह गई हो।
पड़ोसी अपने आंगन में झाड़ू लगाएगा,
और मैं सोचूंगा
कितनी चीजें हैं जिन्हें रोज साफ करना पड़ता है।
पौधों में पानी डालते हुए
मिट्टी की गंध फिर वही होगी
जो बचपन में बारिश से पहले आती थी।
एक बिल्ली फिर आएगी,
कुर्सी पर बैठेगी,
और मुझे देखकर ऐसे देखेगी
जैसे कोई पुराना दोस्त कुछ कहना भूल गया हो।
रसोई से चाय की भाप उठेगी,
और मैं सोचूंगा
क्या सपनों का भी कोई स्वाद होता है ?
घड़ी टिक-टिक करती रहेगी,
जैसे समय भी अनजाने में हिचकिचा रहा हो।
कोई दरवाजा खटकेगा
पर वहां कोई नहीं होगा,
सिर्फ हवा होगी,
थोड़ी सी बेचैनी साथ लाए हुए।
मैं बैठकर सोचूंगा
जिंदगी में क्या होगा ?
शायद कुछ ऐसा,
जो अभी सोचने में भी नहीं आया।
एक किताब खुली रह जाएगी,
उसके बीच दबा एक पत्ता सूख जाएगा,
और मैं भूल जाऊंगा
किस मौसम में रखा था उसे।
बारिश होगी
जैसे आकाश को भी कुछ कहना हो।
कपड़ों पर कुछ बूंदें गिरेंगी,
और मैं उन्हें पोंछने के बजाय देखता रह जाऊंगा।
कभी लगता है,
जिंदगी रुक गई है,
फिर अचानक चलने लगती है
जैसे किसी ने धीरे से पुकारा हो।
रात को नींद आएगी,
पर सपना नहीं आएगा,
क्योंकि दिन भर के छोटे-छोटे काम
पहले ही सपना बन चुके होंगे।
और सुबह फिर वही सवाल
जिंदगी में क्या होगा ?
शायद कुछ नहीं,
या शायद सब कुछ
जैसे एक फूल बिना वजह खिल जाए,
या कोई अनजान चेहरा मुस्कुरा दे,
बिना किसी कारण के,
बस यूं ही,
जिंदगी की तरह।
पथरीली जमीन
यह जमीन पथरीली है,
यहां बीज बोने से पहले सोचते हैं।
जड़ों की जगह पत्थर है,
पानी की जगह पसीना है।
हल जब चलता है,
मिट्टी नहीं चिंगारियां उड़ती है।
किसान का चेहरा धूल नहीं,
राख से भर जाता है।
सूरज यहां रोज उगता है,
मगर हर शाम थककर गिर पड़ता है।
खेत में उगी फसल नहीं,
मेहनत की हड्डियां चमकती है।
यहां हवा भी सावधानी से चलती है,
कहीं उम्मीद टूट न जाए।
पेड़ की डाल पर नहीं बैठता पंछी,
उसे डर है कहीं जड़ न ढूंढ पाए।
तालाब में पानी नहीं,
पर बच्चे अब भी नाव बनाते हैं।
मिट्टी की नहीं, पत्थर की नाव,
जो कभी तैर नहीं पाती।
औरतें सुबह से चलती हैं,
सूरज के साथ निकलती हैं,
सांझ के साथ लौटती हैं,
उनके सिर पर घड़ा नहीं धूप होती है।
वे पथरीली जमीन पर चलती हैं,
जैसे प्रार्थना के ऊपर से गुजर रही हों।
बूढ़े की झुर्रियों में खेतों की दरारें हैं,
उसकी आंखों में सूखा सालों से टिक गया है।
वह कहता है
यह धरती भी कभी हंसती थी।
कोई पूछे तो कैसे बताऊं,
इस जमीन का दिल अब कहां है।
शायद किसी पत्थर के नीचे दबा है,
जहां फसल नहीं, दर्द उगता है।
बच्चे अब मिट्टी से खेलना भूल गए हैं,
वे पत्थरों से ही महल बनाते हैं।
हर ईंट में एक ठोकर की याद है,
हर दीवार में एक अधूरी उम्मीद।
रात यहां जल्दी उतर आती है,
जैसे कोई पर्दा खींच लिया गया हो।
तारों की जगह,
पत्थर झिलमिलाते हैं।
जब बारिश आती है,
तो जमीन नहीं भीगती,
बस कुछ बूंदें
गालों पर फिसल जाती हैं।
और कोई कहता है
देखो, धरती फिर रो पड़ी। सड़क गांव तक आई है,
मगर रुक गई है किनारे पर,
जैसे उसे यकीन न हो
कि आगे जीवन है भी या नहीं।
नेता आए थे पिछले साल,
बोले – यहां विकास होगा।
किसान ने पूछा –
क्या विकास भी पानी पीता है ?
जवाब में तालियां बजी,
पर तालाब नहीं भरा।
इस पथरीली जमीन पर
जोतना एक यज्ञ है।
हर हल एक आहुति,
हर पसीना एक मंत्र।
और फिर भी,
फसल नहीं उगती
बस धैर्य उगता है,
जो हर साल थोड़ा और छोटा हो जाता है।
पहाड़ी की चोटी पर
एक पुराना पेड़ अब भी खड़ा है,
जैसे किसी भूले हुए पहरेदार की तरह।
उसकी जड़ें पत्थरों में फंसी हैं
फिर भी वह हर बसंत
हरियाली की बात करता है।
खेतों में अब बीज नहीं बोए जाते,
योजनाएं बोई जाती हैं।सरकारी फाइलें धूप में सूखती हैं,
जैसे फसल का इंतजार कर रही हों।
गांव के बच्चे अब
खेत नहीं जाते स्कूल जाते हैं,
जहां दीवारों पर लिखा है
मेहनत से भविष्य बनाओ।
पर जब वे घर लौटते हैं,
उनके हाथ खाली होते हैं,
और आंखें अब भी भरी होती हैं।
हर घर में एक पत्थर रखा है,
पूजा की तरह,
शायद उसी में धरती का अंश है।
यहां गीत नहीं गाए जाते,
बस बोली जाती है कराहें।
जो धीरे-धीरे कविता बन जाती है ,
जैसे दर्द का कोई आखिरी शब्द हो।
फिर भी कोई है
जो हर सुबह सूरज को देखता है,
और सोचता है
आज शायद मिट्टी मुस्कुरा दे।
वह जेब में बीज रखता है,
जैसे जेब में भरोसा रखता हो।वह जानता है
पत्थर भी कभी दरकते हैं।
और जहां दरार पड़ती है,
वहीं से जीवन झांकता है।
क्योंकि यही जमीन, चाहे कितनी भी पथरीली हो
धरती है, और धरती कभी बांझ नहीं होती।
– डुमन लाल ध्रुव
मुजगहन, धमतरी (छ.ग.)
पिन – 493773
मोबाइल – 9424210208






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