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समीक्षा:सांस्कृतिक आत्मसम्मान का उद्घोष छत्तीसगढ़ी काव्य संग्रह – जउन जरे हे तउने जानथे- डुमन लाल ध्रुव

समीक्षा:सांस्कृतिक आत्मसम्मान का उद्घोष छत्तीसगढ़ी काव्य संग्रह – जउन जरे हे तउने जानथे- डुमन लाल ध्रुव


छत्तीसगढ़ी काव्य परंपरा में आज जिस गहराई, संवेदना और लोक की सहजता का दर्शन होता है, वह उसके कवियों की मिट्टी से जुड़ी चेतना का परिणाम है। यह परंपरा गुरु घासीदास के सत्य-विचार, पंथी गीतों के लोकसंगीत, और माटी के गीतों से लेकर समकालीन कवियों की आवाजों तक फैली हुई है। इसी परंपरा में कवि दिलीप कुमार कुर्रे “तमन्ना बिलासपुरी” का काव्य संग्रह “जउन जरे हे तउने जानथे” एक सशक्त और भावनात्मक दस्तावेज के रूप में सामने आता है।
यह संग्रह न केवल एक कवि की आत्मा की पीड़ा है बल्कि यह उस समाज की सामूहिक व्यथा भी है जो संघर्ष, विस्थापन, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और मोहभंग के बीच भी माटी की महक को बचाए रखना चाहता है।

काव्य संग्रह का शीर्षक – “जउन जरे हे तउने जानथे” अपने आप में गहन अर्थ रखता है। यह पंक्ति एक लोकदर्शन है जो अनुभव की गहराई को प्रकट करती है।
जो जला है, वही जानता है यह पंक्ति केवल शारीरिक या सामाजिक पीड़ा की नहीं बल्कि मानसिक, भावनात्मक और अस्तित्वगत यंत्रणा की अभिव्यक्ति है। यह शीर्षक पाठक को पहले ही पंक्ति में भीतर तक झकझोर देता है।

यह कहता है कि पीड़ा का असली ज्ञान केवल उसे होता है जो उसे भोगता है। यही भाव पूरे संग्रह की आत्मा है।
कवि श्री दिलीप कुमार कुर्रे की कविताएं छत्तीसगढ़ी समाज के प्रत्येक वर्ग से संवाद करती है । किसान, मजदूर, मां, बेटी, जवान, संगी, गौरा, और यहां तक कि मिट्टी भी।
उनकी कविताओं में जीवन का ग्राम्य सौंदर्य भी है और सामाजिक यथार्थ की कराह भी। कुछ प्रमुख विषय जो इस संग्रह में बार-बार प्रकट होते हैं जैसे -माटी से मया (प्रेम) “मयारू हे माटी” स्मृति और पहचान का संकट “चिन्हारी घलो नइ हे”, संघर्ष और धैर्य “डरा झन”, “आगू कदम बढ़ाना हे”, प्रेम और विरह का लोकस्वर “तोर सुरता म…”, “मोला मार डारिस ओ”, परिवार और मातृत्व की करुणा “मोर आंखी के तारा बेटा रे…”, सामाजिक व्यंग्य और व्यवस्था की विडंबना “दुनिया के भ्रष्टाचार”, “झन मांग ए मजा उधारी म…”
इन विषयों से स्पष्ट होता है कि कवि का मन केवल भावुक नहीं बल्कि जिम्मेदार और सजग भी है।

कवि श्री कुर्रे जी की कविता में लोकभाषा की सहजता के साथ-साथ आधुनिक विचार की गूंज भी है। वे गांव की परंपराओं, लोक प्रतीकों और कहावतों का प्रयोग करते हैं लेकिन उनके माध्यम से आज के सामाजिक और नैतिक विघटन को भी उजागर करते हैं।

तोर सही बेटा मांगय दुनिया ,
गुरु भक्त उपमन्यु।
कुद दे कुरुक्षेत्र म बेटा,
बनके रे अभिमन्यु।।
अंगना – अंगना इंहा महाभारत हे,
देख – देख के लड़बे तैं।
भीषम पिता कस बान बरसाही,
तबले आगू बढ़बे तैं।।
मान ले सातो गढ़ नइ टूटही, तैं खाली झन आबे रे ।
मोर आंखी के तारा बेटा रे,तैं लाठी बन जाबे रे…

यह पंक्ति सीधी-सादी भाषा में है दूसरी ओर न ओनहा चेंदरा बर तरसाबो,न पर घर मांग के जीबो। न सुक्खा हंड़िया म संसो चुरही,न दुख आंसू म बोर के पीबो । गहरी व्यंग्यात्मक धार के साथ सामाजिक पाखंड पर प्रहार भी करती है। इसी तरह –

अतियाचार के नून घसरत हे,
गरीबी के हरियर घांव म।
साधु कस सत के कथरी ओढ़े,
भ्रष्टाचार घूमत हे मोर गांव म।।

कवि आधुनिक युग के नैतिक पतन और इंसानियत की गिरावट पर तीखा प्रश्न उठाते हैं। माटी की मया और पहचान “मयारू हे माटी” जैसी पंक्तियां केवल कविता नहीं बल्कि पहचान का घोष है।
कवि के लिए माटी कोई निर्जीव वस्तु नहीं वह जीवंत महतारी है।

ये माटी के महिमा के तुलसी,कबीर,करिन बखान।
इही माटी ले उपजिस संगी,लोहा,कोइला के खान।।
जिनगी ल सरग बनादिस भइया, मिहनत के सोहागा मढ़के।।

यह पंक्ति दर्शाती है कि कवि के लिए धरती और मनुष्य के बीच का रिश्ता रक्त से नहीं श्रम और प्रेम से बनता है।
कवि का हृदय केवल सौंदर्य का प्रेमी नहीं बल्कि समाज की पीड़ा से कंपित संवेदक है। “सुसकत हे चूल्हा”, “छानी ऊपर होरा भुजत हे”, “दुकाल …”
इन पंक्तियों में भूख, निर्धनता और असमानता की गहरी अनुभूति झलकती है। वे कहते हैं –

ए बखत म गरीब के आह म झन जरबे,
तोर तन, मन,अंतस तक ह उकल जाही।।

यहां “ उकल ” केवल शारीरिक नहीं आर्थिक, सामाजिक और मानसिक संघर्ष का रूपक है।
कवि की दृष्टि में स्त्री केवल प्रेम का विषय नहीं बल्कि संघर्ष की प्रतिमा है।
वह “बसंती” है जो “ढेंकी अस कूटत हे”, वह “गोरी” है जो “दुख के चरखा म ये जिनगी ल”। यहां स्त्री प्रतीक बन जाती है त्याग, श्रम और सहनशीलता का। कवि ने स्त्री के भीतर छिपे आत्मबल को बड़ी गहराई से उभारा है।

गांव गावय ददरिया,खार बनगे हे रागी।
फागुन के फाग ह,लगावत हे आगी।।
त धधकत हे गली, अंगना अउ खोर।
पिहा बिन तरसय,पपीहरा मन मोर।।
बिरहा म बैस बइरी, मेचका अस कूदत हे।
देखे बर नयना ह,ढेंकी अस कूटत हे।।

कवि श्री दिलीप कुमार कुर्रे की कविताओं में प्रकृति एक जीवंत पात्र है। “फूलगजरा”, “गुलमोहर अस …”, “कोयली जइसे लागे तोर बोलना”, “फागुन तोर आये बिना मजा आवय नहीं” ये पंक्तियां प्रकृति और मानवीय भावनाओं के गहरे संबंध को दर्शाती हैं।

आंखी पनियर झील असन,
माथा चमकत हे मोहर कस।
रुप के शोभा का बरने जाए,
गाल फूले गुलमोहर अस।।

प्रकृति यहां केवल दृश्य नहीं भावनात्मक परिवेश का निर्माण करती है। वह कवि के सुख-दुख की साक्षी भी है।
कवि श्री कुर्रे की भाषा शुद्ध छत्तीसगढ़ी है । माटी से निकली लोक के स्वर में बसी हुई। उनकी कविता की सबसे बड़ी शक्ति है उसकी लोकभाषिक गंध। शब्द सहज हैं लेकिन उनमें गहराई है।
वे छत्तीसगढ़ी के मुहावरे, उपमाएं और प्रतीक इतने स्वाभाविक ढंग से प्रयोग करते हैं कि कविता में कला का कृत्रिमपन नहीं जीवन का ताप दिखाई देता है। “ढेंकी अस कूटत हे ” एक साधारण ग्रामीण क्रिया को रूपक बनाकर जीवन के संघर्ष को दिखाना। “खुरसिच के पूरती…” तृप्ति और व्यंग्य का मिश्रित बिंब। उनका शिल्प प्रायः मुक्तछंदात्मक है किन्तु लयात्मकता बनी रहती है।
छंद और तुक की अपेक्षा वे भाव और गति को प्रधानता देते हैं।

कवि श्री कुर्रे की कविताओं में प्रतीक-शक्ति अद्भुत है। “माटी”, “गौरा”, “फागुन”, “ढेंकी”, “सुवा पांखी”, “चूल्हा”, “छानी”
ये सब लोकजीवन से जुड़े प्रतीक हैं पर कवि ने उन्हें दार्शनिक गहराई दी है।

माटी – जन्म, पहचान और प्रेम का प्रतीक। चूल्हा – जीवन का संघर्ष और भूख की व्यथा।
फागुन- आशा, पुनर्जन्म और उल्लास का प्रतीक। ढेंकी – श्रमशील स्त्री की आत्मशक्ति।
सुवा पांखी – सौंदर्य और संवेदना का रूपक।

यह काव्य-संग्रह करुणा से भरा है पर निराशा से नहीं।कवि का स्वर कभी टूटता नहीं वह बार-बार उठ खड़ा होता है।
प्रगति अउ समृद्धि खातिर,हर दुख के सीढ़िया चढ़ना हे।
भीषम पिता कस बान बरसाही, तब ले आगू बढ़ना हे।।

यह पंक्ति कवि की संघर्षशील चेतना का परिचायक है। वह समाज को, गांव को, जवानों को जगाने का आह्वान करता है ।

जागव रे संगी,जागव रे भइया, देश ह बीमार होगे रे।
हमर एकता के जरी म दियांर होगे रे।।
कौमी एकता के जरी म,दियांर होगे रे …

यहां कवि केवल दर्शक नहीं बल्कि प्रेरक बन जाता है।कवि की अनेक रचनाएं समकालीन राजनीति और सामाजिक भ्रष्टाचार पर तीखा प्रहार करती हैं।

दुनिया के भ्रष्टाचार कहंव के,कलजुग के एला रीत कहंव।
तुम्हीं कहव सुन – सुन के संगी, एला कइसन संगीत कहंव।।
इन पंक्तियों में वह व्यवस्था के ढोंग को उघाड़ता है।

लेकिन उसका व्यंग्य कटु नहीं वह सुधार की आकांक्षा से उपजा है। यह कवि की जवाबदेही और सामाजिक जिम्मेदारी को दर्शाता है।
कवि की संवेदना बहुआयामी है । वह कभी प्रेम में पिघलती है, कभी मातृत्व में द्रवित होती है, कभी व्यंग्य में तीखी हो जाती है। उनकी एक पंक्ति –

मोर आंखी के तारा बेटा रे,
तैं लाठी बन जाबे रे …
मोर आंखी के तारा बेटा रे,

हर पाठक के हृदय में गूंज छोड़ जाती है। यह मातृत्व की पीड़ा और ममता का संपूर्ण चित्र है।
कवि श्री दिलीप कुमार कुर्रे की दृष्टि केवल सौंदर्य की नहीं बल्कि सत्य की खोज की है। उनके लिए कविता कोई सजावट नहीं बल्कि जीवन का दस्तावेज है।
वे अपने युग, अपने समाज और अपने गांव के साक्षी है।

उनकी कविताएं बताती है कि कविता तब ही सच्ची होती है जब वह मनुष्य के भीतर के दर्द को बाहर लाती है।
यह संग्रह एकरुप नहीं है यह कई स्वर, कई भाव, कई स्थितियों का संग्रह है।

कहीं यह गीतात्मक है, कहीं कथात्मक, कहीं व्यंग्य, कहीं करुणा लेकिन इन सबको जोड़ने वाली डोर है “मया” (प्रेम) और “माटी” (पहचान)।
श्री कुर्रे की कविता छत्तीसगढ़ी भाषा को केवल अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं मानती वह इसे अस्तित्व की जड़ समझती है। उनकी पंक्ति-

दक्षिण कोसल म उपजिस बाढ़ीस,
उत्ती म हरियाइस।
महानदी बेसिन संग तरगे,
केदरी बन मुस्काइस।।
जकला आंय जउन कथंय के,
ये हर तो अनपढ़ी ए।।
अबड़ मयारु दुलौरिन बेटी,
हमर महतारी भाखा छत्तीसगढ़ी ए …

कवि श्री दिलीप कुमार कुर्रे की भाषा-प्रेम नहीं बल्कि सांस्कृतिक आत्मसम्मान का उद्घोष है।

– डुमन लाल ध्रुव
मुजगहन, धमतरी (छ.ग.)
पिन – 493773

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