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छत्‍तीसगढ़ी बालकहानी-‘मुर्रा के लाडू’

छत्‍तीसगढ़ी बालकहानी-‘मुर्रा के लाडू’

छत्‍तीसगढ़ी बालकहानी-‘मुर्रा-के-लाडू’

छत्‍तीसगढ़ी बालकहानी

घातेच दिन के बात आवय ओ जमाना म आज काल कस टीवी, सिनेमा के ताम-झाम नई रहिस । गाँव के सियान मन ह गाँव के बीच बइठ के आनी-बानी के कथा-किस्सा सुनावय । इही कहानीमन ल सुनके घर के ममादाई, ककादाई मन अपन-अपन नाती-पोता ल कहानी सुना-सुना के मनावय लईका मन घला रात-रात जाग के मजा ले के अउ-अउ कहिके कहानी सुनय ।

ओही जमाना के बात ये जब मैं छै-सात बरस के रहे होहूँ। हमन तीन भाई अउ ममा के तीन झन लईका ममादाई ले रोज सांझ होतीस तहां ले कहानी सुनाय बर पदोय लगतेंन । ममादाई पहिली खा-पिलव फेर सुते के बेर कहानी सुनहूँ कहिके मनावय । हमन मामी ले जल्दी खायबर दे कहिके चिल्लात रहेन । खातेन-पितेन अउ चुमुक ले खटिया म कथरी ओढ़ के बइठ जातेन अउ ममादाई ल जल्दी आ कहिके गोहरातेन । ममादाई ल बरोबर खटिया-पिढिया नई करन देत रहेन तभो ले ममादाई अपन काम-बुता ल करके खटिया म सुतत-सुतत कहानी सुनाय ल शुरू करय ।

नवागढ़ के हाट बजार म राजू अऊ ओखर संगी सत्तू दुनो छन लइका घूमत रहिन आनी बानी के समान बेचावत रहय । कोनो मेरा साग-भाजी, बंगाला गोल-गोल, मुरई लंबा-लंबा, रोठ-रोठ, गोलईंदा भाटा ……..कोनो मेरा नवा-नवा कपड़ा अउ का-का । ऐखर ले ओमनला का करे ला । ओमन ला थोड़े साग-भाजी लेना रहिस । ओमन तो घूमत मजा लेत रहिन । खऊ-खजाना खोजत रहिन । ये पसरा ले ओ पसरा ।


मिठईया के दुकान म सजे रहय जलेबी गोल-गोल, छड़िया मिठई सफेद-सफेद पेंसिल असन, बतासा फोटका असन । दुनो लइका के मन ललचाय लगीस । राजू मेरा एको पइसा नई रहय ओ का करतिस देखत भर रहय । सत्तू धरे रहय चार आना फेर ओखर मन का होईस काही नई लेइस । दुनो छन आगू बाड़गे आगू म केवटिन दाई मुर्रा, मुर्रा के लाडू अउ गुलगुल भजिया धरे बईठे रहय । राजू कनेखी देखय, सोचय पूरा देख परीहव ता मुँह मा पानी आ जाही । सत्तू ह गुढेर के देखय ऐला खाव के ओला । फेर सत्तू कुछु नई लेईस । चल यार घर जाबो कहिके वो हर हाट ले रेंगे लगिस । दुनो छन पसरा छोड घर के रद्दा हो लिन। रद्दा म सत्तू के शैतानी मन म कुछु विचार आइस ओ हर राजू ले कहिस चल तैं घर चल मैं आवत हव । ओ हर ऐती ओती करत फेर बाजार म आगे । राजू ल कुछ नई सुझीस का करव का नई करव फेर सोचिस चल बाजार कोती एक घा अउ घूम के आजाँव पाछू घर जाहूँ ।


राजू धीरे धीरे हाट म आगे । देख के ओखर आँखी मुदागे । सत्तू ह कागज म सुघ्घर मुर्रा के लाडू धरे-धरे कुरूम-कुरूम खावत रहय । राजू के लइकुसी मन म विचार के ज्वार भाटा उछले लगीस ।
मोर संगी………..
ओखर पइसा……….
का करव………..
टुकुर-टुकुर देखय अउ सोचय । मुँह डहर ले लार चुचवात रहय अब्बड धीरज धरे रहय फेर सहावत नई रहय । कोकड़ा जइसे मछरी ल देखत रहिथे ओइसने । ओइसनेच छप्पटा मारीस मुर्रा के लाडू म धरीस अऊ फुर्र……..


सत्तू कुछ समझे नई पाइस का होगे । हाथ म लाडू नई पाके रोय लागीस भागत राजू के कुरथा ला देख के चिन्ह डारिस । राजू लाडू लूट के भाग गे । सत्तू रोवत-रोवत आवत रहय ओतकेच बेर ओखर ममा चइतराम ओती ले आवत रहिस । भांचा ल रोवत देख अकबका गे
का होगे भांचा ?
काबर रोवत हस?
का होगे गा ?
सत्तू सुसकत-सुसकत बताइस ओखर मुर्रा के लाडू……..
राजू ह ………….
धरके भगा गे………..।
काबर गा ?

सुसकत-सुसकत सत्तू जम्मो बात ल बताईस ।
ओ हो भांचा तोरो गलती नईये ?
तोला अइसन नई करना रहिस ।
चल तोर बर अऊ मुर्रा के लाडू ले देथव । सत्तू फेर कागज म सुघ्घर मुर्रा के लाडू धरे कुरूम-कुरूम खाये लगीस ।
ओती बर राजू ह मुर्रा के लाडू धरे खुश होगे अउ खाये बर मुँह म गुप ले डारिस । जइसने मुँह मा लाडू के गुड़ ह जनाइस ओला अपन दाई के बात के सुरता आगे-
बेटा हमन गरीब आन
हमर ईमान ह सबले बड़े पूंजी आय ।
हमला अपन मेहनत के ही खाना चाही ।
दूसर के सोना कस चीज ला घला धुर्रा कस समझना चाही ।

राजू के मुँह मा लाडू धरायेच रहीगे ना वो खा सकत रहिस न उलग सकत रहिस । मुँह ह कहत हे – हमला का जी खायेले मतलब, स्वाद ले मतलब । बुद्धिकहय- नहीं दाई बने कहिथे दूसर के चीज ला ओखर दे बिना नई खाना चाही । मन अउ बुद्धि म उठापटक होय लागीस । मन जीततीस त लाडू कुरूम ले बाजय । बुद्धि जीततीस चुप साधय । अइसने चलत रहिस लाडू अधियागे ।

बुद्धि मारीस पलटी अउ मन ला दबोच लेहीस । मुँह ले मुर्रा के लाड़ू फेकागे । राजू दृढ मन ले कसम खाय लगिस -‘‘आज के बाद अइसना कभू नई करव अपन कमई के ला खाहू, दूसर के सोन कस जिनीस ल धुर्रा माटी कस मानहू, मैं अब्बड पढिहँव अऊ बड़का साहेब बनिहँव ।‘‘

सत्तू ला मुर्रा के लाडू ल वापिस करे बर ठान के राजू ह हाट के रद्दा म आगे । सत्तू सुघ्घर ममा के दे लाडू ल खात रहय । राजू अपन दुनो हाथ ल माफी मांगे के मुद्रा म सत्तू कोती लमा देइस । अब तक सत्तू ल घला कपटी स्वभाव के भान होगे रहिस । वो हर हँस के राजू के हाथ ले मुर्रा के लाडू ले के बने मया लगा के एक ठन मुर्रा के लाडू राजू के मुँह म डारिस । दुनो संगी अब हँस-हँस के संगे-संग मुर्रा के लाडू खाय लगीन कुरूम-कुरूम ।

कहानी सीरावत-सीरावत ममादाई ऊंघावत रहव । मैं पूछ परेव फेर राजू के का होइस ? दुनो छन बने रहिन नहीं । ममादाई कहिस बेटा -‘मन के जीते जीत हे, मन के हारे हार‘ जउन मन बुद्धिले सख्त होही तेन सफल होबे करही राजू आज कलेक्टर साहेब हे । तुहुँमन मन लगा के सुघ्घर बढहू चलव अभी सुत जव ।

महुँ राजू कस बनिहँव सोचत-सोचत कतका बेरा निंद परिस बिहनिया नई जानेंव ।

-रमेशकुमार सिंह चैहान
मिश्रापारा, नवागढ
जिला-बेमेतरा (छ.ग.)


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4 responses to “छत्‍तीसगढ़ी बालकहानी-‘मुर्रा के लाडू’”

  1. सत्यधर बान्धे Avatar
    सत्यधर बान्धे
    1. Ramesh kumar Chauhan Avatar

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