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समीक्षा-मानवीय संवेदना और सामाजिक यथार्थ की संग्रह – ये बात और है

समीक्षा-मानवीय संवेदना और सामाजिक यथार्थ की संग्रह – ये बात और है

– डुमन लाल ध्रुव

कविता समाज के मन की धड़कन होती है और जब कोई कवि अपने समय की सच्चाई, अपने जन की पीड़ा, और अपने भीतर की मानवीय करुणा को शब्दों में ढालता है तब उसकी कविता सिर्फ साहित्य नहीं रह जाती बल्कि समाज की आत्मा का दस्तावेज बन जाती है।

ऐसे ही कवि हैं श्री दिलीप कुमार कुर्रे ‘तमन्ना’ बिलासपुरी जिनका काव्य संग्रह “ ये बात और है ” आज के समाज के बदलते रंगों, रिश्तों, विसंगतियों और उम्मीदों का जीवंत चित्रण करता है।
यह संग्रह केवल कविताओं का समूह नहीं बल्कि कवि के जीवनानुभवों, सामाजिक दृष्टि, और मानवीय करुणा का संग्रह है। यहां प्रेम है, वेदना है, विद्रोह है, राष्ट्रप्रेम है और तकनीकी युग में खोती जा रही संवेदनाओं का शोक भी है।

‘ ये बात और है ’ शीर्षक स्वयं एक गहरी विडंबना और व्यंग्य का संकेत है। यह उस सत्य की ओर इंगित करता है जहां सब कुछ वैसा नहीं होता जैसा दिखता है। कवि हर कविता में एक अनकही सच्चाई को उजागर करते हैं वह चाहे सामाजिक अन्याय हो, राजनीतिक पाखंड हो, या मानवीय संवेदना का क्षरण संग्रह की कविताएं “ नव प्रभात”, “मुरझाए संबंधों के सुमन फिर हरे हो गए”, “मेरा हिंदुस्तान कहां है”, “अमर रहे बाबा भीमराव अंबेडकर”, “वो मनहूस रात”, “संविधान दिवस”, “बेरोजगारों के लिए”, “आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस”, “भारत के भाल पर दमकती बिंदी हमारी हिंदी” आदि कवि की व्यापक दृष्टि का प्रमाण है।

संग्रह की आरंभिक कविता “नव प्रभात” जीवन के नए आरंभ की घोषणा है। कवि के भीतर यह विश्वास है कि चाहे रात कितनी भी अंधेरी क्यों न हो, सुबह अवश्य होगी। यह कविता समाज के निराश नागरिक को आशा का संदेश देती है ।

सुरभित वसुंधरा में कोई बागी, जुल्म के कांटे ना बोए ।
मधुर स्वप्न की मीठी याद में, नेकी को त्याग न सोए ।।
उल्लासित जन-जीवन में, फूंक दे श्रम के प्राण।।

यह पंक्तियां कवि की आशावादी चेतना को स्पष्ट करती है।

चौबीस की सांझ सलोनी बीती ,
पच्चीस में उम्मीदों के सवेरे हो गए।
गीले- शिकवे ऐसे छिटके,
रंजो – गम सब परे हो गए ।।
कुछ इस तरह खुली,
दिल पर जमीं अहसासों की परत,
मुरझाए सम्बन्धों के सुमन फिर हरे हो गए …

यह कविता आधुनिक समाज में टूटते रिश्तों पर करुण दृष्टि डालती है। कवि का मानना है कि यदि मनुष्य अपने भीतर प्रेम और अपनापन बचाए रखे तो मुरझाए सुमन फिर हरे हो सकते हैं। इस कविता में संवेदना और विश्वास का समन्वय है । यह मानवीय संबंधों की पुनर्स्थापना का आह्वान करती है।

जब मन ही मेरा मुझे समझ ना सका,
तो दुनियां का फिर क्या कहना
जब दवा ही मुझको समझ न सकी,
तो फिर दर्द बेगाने का क्या कहना ।।
एक खंडित विश्वास हूं मैं
एक छोड़ा हुआ प्रयास हूं मैं …

आत्मचेतना की इस कविता में कवि श्री दिलीप कुमार कुर्रे आत्म-निरीक्षण करता है। वह स्वयं को एक अधूरी कोशिश, अधूरा स्वप्न, या अधूरी कविता के रूप में देखता है। यहां कवि का स्वर दार्शनिक और आत्ममंथनशील है जो जीवन में कुछ करने की कोशिश करता है परंतु परिस्थितियों से जूझता रहता है।

शौक के नाम पर लोग, कैक्टस से लेकर कुत्ते पाल लेते हैं ।
बिल्ली के साथ खाने और खरगोश के साथ
सोने की आदत डाल लेते हैं
पर भेदभाव के नाम पर,
अपने ही जैसे हाड़ – मांस वाले आदमी से
दूर-दूर जाते हैं ।
हम उनके हाथ का,
पानी पीने से कतराते हैं ।
ये बात और है,
कि उनका खून,
आंख मूंदकर पी जाते हैं ।।

यह कविता संग्रह की केंद्रीय रचना है। “ये बात और है” शब्द समूह एक गहरे व्यंग्य का निर्माण करता है। कवि यहां समाज की दोहरेपन, राजनीतिक पाखंड, और नैतिक ढोंग पर तीखा प्रहार करता है। वह कहता है कि जो दिखता है, वह सच नहीं होता यह जीवन की विडंबना है। कवि की यह कविता अपने समय का आईना है।

वे महान हैं,
आदर्शवादी हैं ,
हमारे शुभचिंतक हैं ।
हम भी उनके
अंध समर्थक हैं ।
उनके आश्वासनों से
फुलझड़ियां नहीं
फूल झड़ते हैं ।
ये बात और है
कि वे हमारे
जख्मों पर
पहले नमक छिड़कते थे ।
पर आजकल
बारूद रगड़ते हैं।।

कवि यहां उन महानों पर कटाक्ष करता है जो केवल दिखावे से महान बनते हैं।क्योंकि उन्होंने भूख देखी नहीं,
आंसू पोंछे नहीं, मगर भाषण बहुत दिए। आधुनिक समाज की बनावटी नैतिकता और नेतृत्व के खोखलेपन पर करारा व्यंग्य को चित्रित करती है।

नारी का नारीत्व लुट गया
आस्था का अस्तित्व लुट गया
गरीबों से जीने का हक छीनकर ,
मुखिया का दायित्व लुट गया
विदेशी सभ्यता से सजकर
वातावरण नहाया है
उच्च संस्कृति – उच्च सभ्यता
जाने कहां छुपाया है
सुने कहां मजबूरों की आहें
सुनवाई के कान कहां है
सोने की चिड़िया वाला वो,
मेरा हिंदुस्तान कहां है

यह कविता कवि के राष्ट्रप्रेम का दस्तावेज है जहां समानता, शांति, और प्रेम का साम्राज्य हो।

एकता – अखंडता के संवाहक
लोकतंत्र के संस्थापक
विश्व करता है,
आपके अवदानों का वन्दन।
संविधान के निर्माण पर,
कोटि-कोटि नमन ।।
बन गए मिसाल,
हर बाधा को झेलकर ।
अमर रहे ,
बाबा भीमराव अंबेडकर ।।

यह कविता डॉ. अंबेडकर के विचारों को श्रद्धांजलि है। कवि ने उन्हें केवल संविधान निर्माता नहीं बल्कि मानवता के पुनर्संरचनाकार के रूप में देखा है। कवि समाज के शोषित वर्ग की आवाज बनकर कहता है कि जब तक असमानता मिटेगी नहीं तब तक डॉ. अंबेडकर की चेतना जीवित रहेगी।

हवा के झोंके जो जिंदगी देते थे, मौत की नींद सुलाने पर तुल गये।
जहरीली गैस के रूप में यमराज के द्वार खुल गये।
जीवन दायिनी हवा भी मौत का कफन हो गयी ।।
जीते जी जीवित जिंदगी दफन हो गई
गैस फैलने की दिशा के घर और गली मौत की चपेट में आ गई ।
वो मिथाइल आइसोसाइनेट जहरीली गैस निर्दयी होकर कहर ढा गई।।

भोपाल गैस त्रासदी की स्मृति भारतीय इतिहास के सबसे दर्दनाक हादसों में से एक है का स्मरण करती है। कवि की संवेदनशील दृष्टि इस त्रासदी को मानवता की विफलता के रूप में देखती है।यह कविता मानवीय लापरवाही और पूंजीवादी क्रूरता के खिलाफ एक चेतावनी है।

समाजवादी, पंथ निरपेक्ष,
लोक तंत्रात्मक गणराज्य है। लोकोन्मुखी, संवेदनशील,
कल्याणकारी राज्य है।।
सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, न्याय, विचार का अवदान होना चाहिए।।
कवि श्री दिलीप कुर्रे जी ने भारतीय संविधान की महानता और उसके मूल्यों को रेखांकित किया है।

कवि का संदेश स्पष्ट है
संविधान केवल किताब नहीं, बल्कि जीवन जीने का आदर्श मार्ग है। वह समाज से आग्रह करता है कि संविधान को केवल मनाया न जाए बल्कि जिया जाए। कवि यहां समाज के उस हिस्से को स्वर देता है जो संघर्षरत है।

कृत्रिम बुद्धिमत्ता
पहले कंप्यूटर
फिर नेट ,और रोबोट,
अब नए अवतार में है ए.आई.
इनकी आधुनिकता हर क्षेत्र में,
सभी को रास आई।।
पर डर है कि आदमी और आदमियत के आगे,
इसका सिक्का चल न जाए।
तरक्की तो अपनी जगह ठीक है ,
पर युवा रोजगार को निगल न जाए।‌।
माना कि आदमी से ज्यादा,
दिमाग भी उसमें डाल जावोगे।
पर इंसानियत से भरा धड़कता दिल,
कहां से लगावोगे

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, ए.आई. तकनीकी युग का दार्शनिक प्रश्न की कविता है जो भविष्य की दिशा पर गहरी टिप्पणी व्यक्त करती है। कवि चिंतित है कि मशीनें जब सोचने लगेंगी तो मनुष्य का दिल कहां रहेगा। यह कविता मानवीयता के खोने का भय व्यक्त करती है और तकनीक के अंधानुकरण पर प्रश्न उठाती है।

अभिव्यक्ति की वेणी में गूंथी ,
मोंगरे के गुच्छों सी हिन्दी।
धूल- धुसरित खेलते बच्चों के
कंचों सी हिन्दी
सूफी सी हिन्दी
संतों सी हिन्दी
उर्दू की सहचरी,
कंण्ठों सी हिन्दी।।
सुनने में मिसरी सी मीठी,
अमृत रस घोलने में हिन्दी।
भारत के भाल पर, दमकती बिन्दी – हमारी हिन्दी…

यह कविता भाषा-प्रेम से ओतप्रोत है। कवि ने हिंदी को राष्ट्र की आत्मा और भारतीय अस्मिता का प्रतीक बताया है।
यह पंक्ति संग्रह की सबसे ऊर्जावान पंक्तियों में से एक है।

आज
जो कुत्ता है
वह विश्वास पात्र है
बाकी भीड़ के हाथ में तो
केवल
भिक्षा पात्र है…

‘भिक्षा पात्र’ केवल दीनता का प्रतीक नहीं बल्कि मनुष्य की अंतहीन आकांक्षा का प्रतीक बन जाता है। कवि यहां जीवन की दार्शनिक सच्चाई को सरल शब्दों में रखता है।
करोड़ निर्दोषों के खून से,
महासागर भर गया है।
फिर कौन कहता है कि
हिटलर मर गया है —

कवि बताता है कि हिटलर मरकर भी विचारों में जीवित है । जब-जब अन्याय, तानाशाही, और असमानता जन्म लेगी, हिटलर लौट आएगा। यह कविता अत्यंत सामयिक और चेतनाप्रद है।
कवि की भाषा सरल, जनजीवन से जुड़ी और प्रभावशाली है। वे कठिन शब्दावली से नहीं बल्कि सीधे अनुभव से कविता रचते हैं।

उनकी शैली में भावात्मकता, व्यंग्य, यथार्थवाद, और दार्शनिकता का अद्भुत संगम है। कहीं उनकी भाषा लोकभाषा की मिठास लिए होती है तो कहीं वह वक्तव्य की तीक्ष्णता धारण कर लेती है। कवि का शिल्प संक्षिप्त, प्रभावी और कथ्यपरक है।

कवि श्री दिलीप कुमार कुर्रे ‘तमन्ना’ बिलासपुरी की कविताओं का वैचारिक आधार मानवता, समानता, संवेदना और न्याय है।

वे किसी वाद या विचारधारा के कवि नहीं बल्कि जन के कवि हैं। उनका काव्य समाज की जड़ों में उतरता है और वहां से सच्चाई को उजागर करता है। उनकी कविताएं यह कहती है कि कविता का काम केवल सौंदर्य नहीं बल्कि सच बोलना भी है।

‘ये बात और है’ संग्रह की हर कविता एक “जीवित अनुभव” है। कवि अपने शब्दों से जीवन के हाशिए पर खड़े लोगों को केंद्र में लाते हैं। वे प्रेम की बात करते हुए भी समाज को नहीं भूलते, और समाज की बात करते हुए भी संवेदना खोने नहीं देते।

– डुमन लाल ध्रुव
मुजगहन धमतरी (छ.ग.)
पिन – 493773
मोबाइल -9424210208

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