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आलेख महोत्‍सव: 18. राष्ट्रीय एकता के बाधक तत्व-अनिता चन्द्राकर

आलेख महोत्‍सव: 18. राष्ट्रीय एकता के बाधक तत्व-अनिता चन्द्राकर

-आलेख महोत्‍सव-

राष्ट्रीय एकता के बाधक तत्व

आजादी के अमृत महोत्‍सव के अवसर पर ‘सुरता: साहित्‍य की धरोहर’, आलेख महोत्‍सव का आयोजन कर रही है, जिसके अंतर्गत यहां राष्‍ट्रप्रेम, राष्ट्रियहित, राष्‍ट्र की संस्‍कृति संबंधी 75 आलेख प्रकाशित किए जाएंगे । आयोजन के इस कड़ी में प्रस्‍तुत है-श्रीमती अनिता चन्‍द्राकर द्वारा लिखित आलेख ”राष्ट्रीय एकता के बाधक तत्व’।

गतांक –आलेख महोत्‍सव: 17. प्रजातंत्र बंदी है

राष्ट्रीय एकता के बाधक तत्व

-अनिता चन्द्राकर

आलेख महोत्‍सव: 18. राष्ट्रीय एकता के बाधक तत्व-अनिता चन्द्राकर
आलेख महोत्‍सव: 18. राष्ट्रीय एकता के बाधक तत्व-अनिता चन्द्राकर

राष्ट्रीय एकता के बाधक तत्व

अनेकता में एकता भारत की विशेषता-

‘अनेकता में एकता भारत की विशेषता’ भारत विविधताओं से समृद्ध देश है ,जहाँ कई भाषा, धर्म, जाति , संस्कृति और सभ्यता सदियों से फल-फूल रही हैं।इन विभिन्नताओं के बावजूद भी भारत एक राष्ट्र है और हम सभी भारतवासी एक है। कोई भी देश भूमि से नहीं बनता बल्कि किसी निश्चित भू भाग में रहने वाले एक समान सोच वाले व्यक्तियों से बनता है इस प्रकार इस विशेष भूभाग को राष्ट्रीय देश का नाम दे दिया जाता है परंतु हर काल में कोई न कोई तत्व राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधक बन कर राष्ट्रीयता के विकास को रोक देते हैं। विविधताओं को सम्मान देकर राष्ट्रवाद की भावना का पालन किया जाता है।

राष्ट्रीय एकता के बुनियादी कारक –

हमारा भारतीय समाज भावनात्मक शक्तियों द्वारा ही एकीकृत है राष्ट्रीय अखंडता में सामाजिक ,राजनीतिक धार्मिक, क्षेत्रीयता, आर्थिक, आदि है। राष्ट्रीय एकता के तीन बुनियादी कारक है संरचनात्मक अखंडता, सांस्कृतिक अखंडता, और वैचारिक अखंडता है।

राष्ट्रीय एकता के बाधक तत्व

इस अखंडता में बाधक तत्व निम्नलिखित है-

1. सांप्रदायिकता-

भारत में विभिन्न धर्म के लोग निवास करते हैं। जब लोग अपने धर्म को सर्वोपरि मानते हुये दूसरे सम्प्रदाय के लोगों से मानसिक रूप से नहीं जुड़ पाते हैं तब राष्ट्रीय एकता में बाधा उत्पन्न होती है। अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्र के लोग साम्प्रदायिक गुटों में बँटे रहते हैं और जब वे सम्प्रदाय को राष्ट्र से भी ऊपर मानने लगते हैं, तब समस्या और ज्यादा जटिल हो जाती है।

सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने साम्प्रदायिकता एवं राष्ट्रीयता के सम्बंध को स्पष्ट करते हुये लिखा है कि – आखिर धर्म क्या है?
”जो समाज को धारण करे, समाज को बनाये रखे, वहीं धर्म है। जो धर्म समाज को विभाजित करता है वह समाज में फूट डालता है, मतभेद पैदा करता है, घृणा व द्वेष फैलाता है, वह अधर्म है।’’

2. क्षेत्रीयता

सम्पूर्ण राष्ट्र पहले क्षेत्रीयता के आधार पर बँट जाता है। राष्ट्रीयता की भावना के विकास में क्षेत्रीय कट्टरता भी एक बाधक तत्व है। क्षेत्रीयता का भारत जैसे देश में प्रभाव पर डॉ. सम्पूर्णानन्दन ने टिप्पणी करते हुये लिखा कि- ‘‘आज दक्षिण भारत के लोगों के मुँह से सुनने में आता है, कि हम हिन्दुस्तान से अलग होना चाहते हैं।इस प्रकार की सोच राष्ट्रीय एकता में बाधक है।इससे राष्ट्र की शक्तियाँ कमजोर पड़ने लगती हैं।राष्ट्र टुकड़ों टुकड़ों में बँटकर कभी विकास नहीं कर सकता। क्षेत्र से बड़ा देश है।

3.जातिवाद-

राष्ट्रीय एकता में बाधक बनने वाला तीसरा प्रमुख कारण जातिवाद है। समाज का जातीय विखण्डन लोगों के हृदय को जोड़ नहीं पाया और इसने पूरे समाज को द्वेषपूर्ण बना दिया। ऊँच-नीच के भेदभाव ने हृदय को इतना कलुषित कर किया है कि जो समाज जात पात के चक्कर में किसी के सुख व दुख में साथ खड़ा नहीं हो पाता है वो राष्ट्र के लिये कैसे खड़ा होगा? भारत जैसे देश की यह सत्य कहानी है।

जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि ‘‘मैं समझता हूँ कि भारत को एक मानने में सबसे खराब चीज यहाँ की जाति प्रथा है। हम आप बहस करते हैं, कभी जनतंत्र की, प्रजातंत्र की, समाजवाद की और किस किस की। इन सबमें चाहे जो लाजमी हो पर उसमें जाति प्रथा नहीं आ सकती क्योंकि यह राष्ट्र की हर तरक्की के प्रतिकूल है। जात-पात में रहते हुये न तो हम समाजवाद को, न ही प्रजातंत्र को पा सकते हैं। यह प्रथा तो देश और समाजवाद को टुकड़े कर ऊपर नीचे और अलग-अलग भागों में बाँटती है।यह जोड़नें का नहीं तोड़ने का काम करती है।

4.भाषावाद

हमारे देश में विभिन्न भाषा भाषी लोगों का निवास है। भाषावाद की भावना राष्ट्रीय एकता के विकास में बाधक तत्व है, क्योंकि भारत देश में जब प्रदेशों का विभाजन भाषा के आधार पर हुआ तब लोगों की निष्ठा अपने भाषा के प्रति अधिक बढ़ी जिसके फलस्वरूप राष्ट्र को एकता के सूत्र में बाँधने वाली ‘हिन्दी भाषा’ जो राष्ट्र भाषा हैं, वह भी आज उपेक्षित है, और अधिकांश लोगों द्वारा प्रयोग में नहीं लायी जा रही है। अब तो यह देखने में आता है कि अहिन्दी भाषा राज्य हिन्दी का विरोध करते हुए स्वयं को अलग मानते हैं।

5.रंगभेद-

रंगभेद ने एक राष्ट्र को ही नहीं अपितु पूरे विश्व को दो खण्डों में बाँट दिया है ,एक श्वेत और दूसरा अश्वेत। कई देशों में सम्पूर्ण राजनीति इसी को आधार बनाकर की जाती है। अमेरिका, अफ्रीका आदि ऐसे ही देश है। रंगभेद के कारण लोगों का हृदय आपस में नहीं मिलता।काले रंग वालों को तिरस्कार की दृष्टि से देखना उनकी उपेक्षा करना, उन्हें समान अवसर न देना राष्ट्रीय एकता में बाधक है।

6. दूषित शिक्षा प्रणाली

राष्ट्रीयता की भावना का प्रचार-प्रसार नहीं होने में दूषित शिक्षा प्रणाली भी एक प्रमुख भूमिका निभाती है। पाठ्यक्रम में राष्ट्रीयता के विकास करने वाले तत्व कम पाये जाते हैं। भारत जैसे प्रजातंत्र में प्रजातांत्रिक मूल्यों एवं राष्ट्रीयता की भावना के विकास का दायित्व शिक्षा को ही सौंपा गया है, परन्तु शिक्षा का उचित प्रचार-प्रसार भी अभी संतोषजनक स्तर तक नहीं हो पाया है, और शिक्षा में राष्ट्रीयता के तत्वों को भी समावेशित नहीं किया गया।

आज के बालक यही नहीं जान पाते कि हमें हमारी आजादी कैसे मिली थी? नैतिक शिक्षा के अभाव में चरित्र निर्माण का कार्य नहीं हो पा रहा तथा ले-देकर सामान्य ज्ञान के सहारे शिक्षा पाठ्यक्रमों का निर्धारण किया जाता है। बालपन में ही जब राष्ट्रीय भावनाओं का संचार होगा, तभी वह अपने राष्ट के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को समझ सकेगा। शिक्षा व्यवस्था में दोष एक तरह का ही नहीं, अपितु कई तरह से आया है। गुरू-शिष्य की पारम्परिक व्यवस्था बिगड़ गई है, तो गुरूजनों के प्रति छोटों का आदर भाव वैसे ही घट गया है। 21वीं सदी की ओर दौड़ते हमारे देश को नैतिक मूल्यों की आज भी उतनी ही जरूरत है, जितना आजादी से पहले थी। माता-पिता के प्रति आदर भाव का दायरा सिमटता चला गया है तथा आदर्श जीवन व्यवस्था छिन्न-भिन्न हुई है।

7.नैतिक पतन एवं भ्रष्टाचार-

आज भारत में चारों ओर भ्रष्टाचारी और नैतिक पतन दिखाई देता है।रिश्तों का मान नहीं, झूठ ,बेईमानी पैर पसार रही है। किसी भी समाज में कर्तव्यहीनता, अनुशासनहीनता, अधिकारों का दुरुपयोग, उत्तरदायित्वों के प्रति उदासीनता, निष्ठा की कमी ,भौतिकवादी दृष्टिकोण, राष्ट्रीय एकता में बाधक तत्व है, क्योंकि नागरिकों का नैतिक उत्थान एवं सच्चरित्रता ही देश की उन्नति का आधार होती है।

8.दूषित राजनीति-

भारत की वर्तमान राजनीति में अब स्वच्छता नहीं रह गयी है, और राजनीति झूठ, फरेब, धोखा, गुमराह, भ्रष्टाचार व स्वार्थ का पर्याय बन चुकी है। राजनीतिज्ञ साम्प्रदायिकता, क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद एवं रंगभेद को ही अपनी राजनीति का आधार बनाते हैं। राजनीतिज्ञ अपने स्वार्थ पूर्ति हेतु देश को जोड़ते नहीं बल्कि तोड़ते हैं।

भारतीय राजनीति का यह एक ऐसा संक्रमण काल है, जब एक साथ अनेक चुनौतियाँ हमारी राष्ट्रीय एकता और अखण्डता के सामने दीवार की तरह आ खड़ी हुई है। हमारा लोकतांत्रिक ढ़ांचा एक ऐसे ढ़र्रे पर चल पड़ा है, निजी स्वार्थो ने अपने पाँव जमा लिए हैं तथा राजनीतिक व्यावसायिकता हावी होने लगी है। वोटों की राजनीति के खेल ने मतदाता को बाँटा है तथा राजनेता का कृत्य दोगला हो जाने से हम चरित्र की एक सही तस्वीर सामान्य जन के सामने प्रस्तुत नहीं कर सके हैं। इसी के परिणामस्वरूप आज भारतीय समाज में विघटन पनपा है तथा नैतिक मान्यताएँ एवं हमारे सांस्कृतिक आदर्श बिल्कुल मटियामेट हो गए हैं। राजनीतिक चक्र एक ऐसे मोड़ पर हमें ले आया है, जहाँ राष्ट्रीयता गौण हो गई है तथा आर्थिक सफलताएँ बढ़ गई हैं।

इस प्रकार से हम देखते हैं कि अनेक कारक राष्ट्रीय एकता के विकास में बाधक है।

निष्कर्ष –

भारत हमारा राष्ट्र है और राष्ट्र सदैव प्राणों से भी प्यारा होता है। इस प्राणों से भी प्यारे भारत के लिए प्राण उत्सर्ग करने की भावना सदैव प्रबल रहनी चाहिए, ताकि इसकी खण्डता तथा एकता को अक्षुण्ण बनाए रखा जा सके। जब देश ही नहीं होगा तो हमारे अपने अस्तित्व का अर्थ क्या है? इसलिए यह समय एक ऐसे आत्मचिन्तन का है, जब भारतीयता से जुड़े मानव मूल्यों के आधार पर हम स्वर्ग समान भारत का पुनः निर्माण कर सकें। उन लोगों को पहचान कर राष्ट्रीय हालात को जान लेना चाहिए, जिनकी वजह से देश पर विपदा के बादल टूट पड़ते हैं। माहौल अब फिर दूषित हो रहा है, उसे सँवारने के लिए भारतीय जीवन मूल्यों की स्थापना आज की पहली आवश्यकता है। जितनी भी समस्याएँ सामने आएँगी वे हमारी सिद्धान्तप्रियता तथा नैतिक मान्यताओं के सामने भला क्या टिक पायेंगी। इसलिए राष्ट्रीय एकता की चुनौती तो बड़ी है। लेकिन वह इतनी मुश्किल भी नहीं है कि उसका समाधान न हो सके।

(आलेख स्रोत -बंडेय एवं चंद्रकांता शर्मा जी के गूगल में प्रकाशित लेख से साभार।)

-अनिता चन्द्राकर
भिलाई नगर छत्तीसगढ़

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-संपादक
सुरता: साहित्‍य की धरोहर

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