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रासपंचाध्यायी रासलीला अध्‍याय-2 -रमेश चौहान

रासपंचाध्यायी रासलीला अध्‍याय-2 -रमेश चौहान

खण्‍ड़ काव्‍य रासपंचाध्यायी रासलीला (हिन्‍दी में)

अध्‍याय-2 श्रीकृष्‍ण विरह में गोपियों की दशा
(हिन्‍दी में)

-रमेश चौहान

खण्‍ड़ काव्‍य रास पंचाध्यायी अध्‍याय-2

खण्‍ड़ काव्‍य रास पंचाध्यायी अध्‍याय-2

गतांक-खण्‍ड़ काव्‍य रास पंचाध्यायी अध्‍याय-1 से आगे

अध्‍याय-2

/स्‍तुति/

/सोरठा/
छुपे हुये व्रजनाथ, अंतरमन से है नमन ।
मुझको करें सनाथ, भक्ति श्रद्धा मम उर भरे ।।

गोपी पति हे श्याम, करे रमेशा प्रार्थना ।
हे सुख सागर धाम, दया दृष्टि से देखिए ।।

विरह व्‍यथित हे नार, आप प्रेम हो श्‍याम के ।
मुझको निज अनुहार, प्रेमपात्र कर लीजिए ।।

श्रीकृष्‍ण विरह में गोपियों की दशा

/दोहा/
हे राजन अभिमन्‍यु सुत, शुकजी कहे विचार ।
विरह अनल से दग्‍ध हैं, विरह व्‍यथित सब नार ।।

/चौपाई/
श्‍याम दृश्‍य हिन हुये अचानक । व्‍यथा दशा तब हुई भयानक
ज्‍यों हथनी गजराज विहीना । सकल गोपियां श्‍याम विहीना

विरह अनल से सब व्रज नारी । रक्‍त तप्‍त हैं दुख के मारी
प्रेमभरी मुसकान श्‍याम की । प्रेमालाप वह मधुर तान की

चाल मदोन्‍मत गज की जैसी । चित्‍त हरण चितवन भी वैसी
श्‍याम भाव भंगिमा निराला । मीठी वाणी मधुरस प्‍याला

नाना लीला जो कृष्‍ण किए । चित्‍त गोपियों के चुरा लिए
नारी सभी प्रेम मतवाली । हुई कृष्‍णमय मुदित निराली

चाल-ढाल अरु मुख की बोली । तन चितवन अरु हँसी-ठिठोली
हुई कृष्‍ण सम उनकी बातें । गति-मति सब उन सम बलखातें

/दोहा/

कृष्‍ण रूप ही हो गईं, अपने आप बिसार ।
मैं ही तो श्री कृष्‍ण हूँ, कहन लगी सब नार ।।1।।

/चौपाई/

मिलकर सभी गोपियॉं सारी । ऊॅचे स्‍वर से कृष्‍ण पुकारी
कृष्‍ण यशगान मिलकर गातीं । कभी हँसतीं कभी बिलखातीं

कानन कानन झाड़ी झाड़ी । कभी अगाड़ी कभी पिछाड़ी
अपने प्रियतम ढूंढ रहीं हैं । पता लता से पूंछ रहीं हैं

हे पीपल हे पाकर बरगद । हे चम्‍पा हे केशर कुरबक
हे तुरुवर हे पुष्‍प लताएं । पता कृष्‍ण की हमें बताएं

हे रज पावन व्रज की माटी । नाहक ही क्‍यों हमें सताती
चरण चिन्‍ह उनके दिखलाओ । श्‍याम डगर हमको बतलाओ

प्रेम भरी मुस्कान लिए वह । छोड़ गए देकर दारुण दह
नटखट वह श्री श्‍याम सॉंवरे । मन को हर ले गए बावरे

देखे हो क्‍या श्‍याम कन्‍हाई । हमको तज जो रहे लुकाई
मोहन माधव वह नटनागर । वह नटखट नटखट से आगर

/दोहा/

लघु भ्राता बलराम का, जिनकी बिख मुस्‍कान ।
जिसके घोर प्रहार से, बचे न एक जहॉंन ।।2 क।।

ऐसे विषधर श्‍याम को, देखे हो कोई एक ।
जानत हो हमको कहो, कहॉं छुपे बल टेक ।।2 ख।।

/चवपैया छंद/
हे तुलसी बहना, कुछ ताे कह ना, तुम कोमल हिय धारी ।
हे मंगल दानी, हे कल्याणी, हो तुम जग हितकारी ।।
प्रभु पद अनुरागी, तुम बड़ भागी, प्रीत श्याम भी करते ।
माला वह तुहरी, कण्ठन पहरी, अपने हिय पर धरते ।।

भौंरा मँडराते, तब ना त्यागे, अपने उर की माला ।
श्याम प्रीत प्‍यारी, तुम अनुहारी, सहृदय भौंराला ।।
हे श्‍याम प्रिया, हमरी अगिया, तुम ताे कुछ पहचानों ।
कुछ तो बतला ना, श्याम ठिकाना, विनति हमारी मानों ।।
(भौंराला- भौरे के समान काले रंग का अर्थात श्‍याम)

हे जूँही जाती, हे मदमाती, सुमन मालती सुन रे ।
क्‍या माधव निज कर, तुमको छूकर, यहीं कहीं से गुजरे ।।
हे आम रसीले, बेल कटीले, हे कदम्‍ब मतवारी ।
हे जामुन कटहल, आक नीम दल, देखे क्‍या बनवारी ।।

हे तरुवर सारे, माधव प्‍यारे, हे यमुना तटवासी ।
है परोपकारी, देह तुहारी, फिर क्‍यों करे उदासी ।।
कह श्‍याम ठिकाना, डगर दिखाना, तुम सब हमें बचाओं ।
श्री कृष्ण विहीना, कैसे जीना, सोच-समझ बतलाओ ।।

हे देवी धरती, कृष्ण प्रेयसी, किए कौन तप भारी ।
तृण घास-लतायें, निज तन लहराये, रोमांचित हो न्यारी ।
कारण क्या भारी, जो तू न्यारी, खुशी देह पर व्यापे ।
कृष्ण चरण छूवन, या वो वामन, जो निज पग से मापे ।।

या उससे पहले, जब तुम दहले, जब हिरणाक्ष चुराये ।
वराह अवतारी, यह बनवारी, तब जब तुझे छुडा़ये ।।
वराह या वामन, तुझको पावन, किए कौन बतलाओ ।
तुम कृष्ण लखाकर, दरश करा कर, हमको भी हर्षाओ ।

/दोहा/

नानाविधि वह गोपियॉं, करती दीन पुकार ।
पूछ रहीं ओ कृष्‍ण पथ, कहां छूपे हैं प्‍यार ।।3।।

/मुक्‍तामणी छंद/
हे सखी चपल हिरनियां, देखे क्‍या बनवारी ।
जिनके अंग प्रत्यंग का, रूप सुयश मतवारी ।।
प्राण प्रिया के संग वह, क्‍या इस प्राची आये ।
अपने सहज स्‍वरूप का, दर्शन तुम्‍हें कराये ।।

देखो देखो इस दिशा, गंध मनोहर आये ।
कुलपति उस श्री कृष्ण की, कुन्‍दहार की जाये ।।
कृष्‍ण प्रेयसी अंग के, कुच कुंकुम मनभाये ।
अरी सखी हे हिरनियॉं, क्‍या यह तुम्‍हें रिझाये ।।

उनकी तुलसी हार की, ऐसी सुगन्‍ध आये ।
हे तरुवर इस गंध से, भौरे रहे लुभाये ।।
गुजरे होंगे इस दिशा, वह माधव मतवारे ।
होगा पंकज एक कर, एक प्रेयसी डारे ।

नमन किए होगे तभी, अपनी डाल झुकाये ।
उत्‍तर दिये है कि नहीं, तुमसे ऑंख मिलाये ।
हे तरुवर हमसे कहो, देखे कृष्‍ण कन्‍हाई ।
होकर के तुम मौन क्या, उनसे किए मिताई ।।

अरी सखी देखो सही, पुलकित मगन लताएं ।
पूछो इनसे तुम पता, शायद हमें बताएं ।।
जो अपने पति वृक्ष को, निज भुजपाश धरे हैं ।
कारण यही विशेष है, जो रोमांच भरे हैं ।।

नहीं नहीं ऐसा नहीं, इसके मूल कन्‍हाई ।
कृष्‍ण स्‍पर्श से ही कहीं, ये इतनी इतराई ।।
कृष्‍ण छुये नाखून से, अहा भाग्‍य है ऊँचा ।
पुलकित रोमांचित तभी, इनका देह समूचा ।।

/दोहा/
दूर नहीं थे कृष्ण वह, सुनों पार्थ के पौत्र ।
वह जड़ चेतन व्‍याप्‍य है, घोष करे है श्रौत्र ।।4।।
(श्रोत्र-वेद ज्ञान)

/चौपाई/
वहीं कहीं उनमें ही तो वह । थे व्‍यापित व्यापक समरस रह
किन्‍तु गोपियों को दिखे नहीं । ऊँपर-नीचे इधर-उधर कहीं

खोज-खोज कर वे व्रज नारी । पता पूछ कर सब से हारी
मिला नहीं जब श्‍याम कन्‍हाई । अति कातर हो गई तन्‍हाई

अभिनय करने लगीं श्‍याम के । पात्र बनीं वे कई नाम के
स्‍वांग पूतना का एक धरे । एक कृष्‍ण बन पय पान करे

कोई छकड़ा अभिनय धारा । कोई माधव बन पग मारा
एक सखी पलना पधराये । झूठ-मूठ के स्‍वांग रचाये

तृणावर्त बन कोई आये । बालकृष्‍ण को हर ले जाये
एक नार घुटने पर चलती । बालश्‍याम सम खूब मचलती

रुनझुन-रुनझुन पायल बोले । ज्‍यों माधव करधनिया डोले
कोई माधव कोई दाऊ । बाल सखा का रूप दिखाऊ

कोउ अकासुर कोउ बकासुर । स्‍वांग धरे ज्‍यों आई यदुपुर
असुर देख एकाधिक नारी । स्‍वांग किए ज्‍यों हो बनवारी

मारन लागीं लीला खेले । एक एक को रहे धकेले
गाय चराने की लीला अब । करें गोपियॉं मिलजुल कर सब

/दोहा/

बाल चरित सब कृष्‍ण के, करन लगी व्रज नार ।
दुखी व्‍यथित सब आप ही, दिखा रहीं व्‍यवहार ।।5।।

/चौपाई /

जैसे माधव कानन करते । स्‍वांग गोपियां वैसे धरते
एक बॉंसुरी मुख पर धारे । खेल-खेल में धेनु पुकारे

वाह-वाह तब कोई बोले । चरित देख यह मनुवा डोले
अपने को ही कृष्‍ण मान कर । एक नार निज हाथ तान कर

दूजे के कांधे को धारे । प्रीति कृष्‍ण सम वह व्‍यवहारे
अरे मित्रों मैं हूँ बनवारी । देखो देखो चाल हमारी

कोई गोपी बने कन्‍हाई । सबसे आगे धावत आई
ठाढ़ भई वह सबसे आगे । सकल नार से बोलन लागे

सुनों-सुनों हे सब व्रजवासी । छोड़ों तुम भय और उदासी
आंधी पानी से डरो नहीं । इसका हल मेरे पास सहीं

/दोहा/

गोपी ऐसा बोलकर, चुनरी लिये उठाय ।
ज्‍यों गोवर्धन धार कर, उनको लिये बचाय ।।6।।

/चौपाई/

एक कालिया बन फुफकारे । कान्‍हा बन दूजा ललकारे
रे दुष्‍ट छोड़ अपनी माया । दुष्ट दमन को मैं जग आया

दूर यहॉं से कहीं चला जा । व्रजवासी को तुम अब न सता
देखो ग्वालों आग लगी वन । बोल रही अब एक ग्वालन

तनिक डरो मत मैं बनवारी । नयन मूँद लो तुम भयहारी
एक ग्वालन बनी यशोदा । दूजा कान्‍हा बन मन लोभा

पुष्‍प हार से ऊखल बांधे । बनी यशोदा स्‍वांग सांधे
कृष्‍ण बनी वह प्‍यारी गोपी । भय दिखा रही कर तन रोपी

/दोहा/

कृष्‍ण पता पूछन लगी, लीला करतीं नार ।
व्रजवन के हे तरू लता, देखे क्‍या सुखकार ।।7।।

//मत्‍तगयंद सवैया//
खोजत ढ़ूढ़ंत कृष्‍ण पता तँह, देख लियो इक ने पगछापा ।
देखहु-देखहु शोर मचावत, बोल रही वह खो अपनापा ।।
दौड़त भागत वे सखियां सब, आवत ध्‍यावत ए पगछापा ।
छाप विलोकत ठॉंड भई सब, देखहुँ-देखहुँ रे सुघडापा ।।
(सुघडापा-सुंदरता)

अंबुज अंकुश वज्र बने तँह, और बने ध्‍वज की चिनहारी ।
देखत ठान लियो सब ग्‍वालन, हॉं यह राह गयो बनवारी ।।
वो पथ भाग चली सब ग्‍वालन, ज्‍यों पिपिली गुड़ के मतवारी ।
भागत जावत देख लिये तब, दूसर के चिनहा पग डारी ।।
(पिपिली-चींटी)

कृष्ण पगे पर और लगे यह, है किसकी पद की चिनहारी ।
सोचत मानत ज्‍यों सब जानत, कोय गयो वह है व्रजनारी ।।
रे सखियां उनकी भाग बड़ी बड़, संग कियो जिनको बनवारी ।
छोड़़ हमें इनको लिए वह, शायद वो उनको बड़ प्यारी ।।

धन्‍य बने रज धूसर धूमिल, वो जब श्‍यामहि के पग पाये ।
धूल वही रज है जिसको अब, शंभु रमा सब माथ लगाये ।।
ग्वालिन वो बड़ भागिन रे सखि, श्‍याम जिसे निज संग सिधाये ।।
श्‍याम धरे उनके कर को जब, ग्‍वालिन धन्यहि हो इठलाये ।

लेइ गयो हमरे व्रजवल्लभ, वो हमसे प्रिय साथ छुड़ाये ।
एक अकेल गये वन निर्जन, ओठ सुधा रस पी इतराये ।।
ए उनके पग छाप विलोकत, रे सखि अंतस शूल जगाये ।
ए पग छाप विलोकत हे सखि, दौड़ चलो निज पॉंव बढ़ाये ।।

देखहुँ देखहुँ रे इस ठौरहिं, ग्वालिन के पग छाप नसाये ।
घास कि नोक गड़े न प्रिये पद, शायद सोच यही मन लाये ।।
लागत मोहन ग्‍वालिन को अब, वे निज कांध लियो उठाये ।
है गहरे तब ना पग छापहिं, देखहुँ वो निज पॉंव धसाये ।।

/दोहा/
देखो सखि इस ठौर को, देखो पग की नाप ।
एड़ी गड़े न धूल पर, पंजे की यह छाप ।।8।।

।चौपाई।
लगता है मोहन बनवारी । अपनी प्रियतम कांध उतारी
उचक-उचक कर सुमन चुने हैं । उनके बेणी फूल बुने हैं

प्रियतम के केश सवारे हैं । निकट बिठा उसे निहारे हैं
चरण चिन्ह गोपियां निहारी । सुधबुध बिसार भइ मतवारी

चरण चिन्ह को देख देख कर । गहरी आहें छतिया भर कर
खोज रहीं सब कृष्ण कन्हाई । पर वह दिखे न कहीं दिखाई

सुनों परीक्षित बात अनोखी । संशय तज तुम धरो समोखी
उस गोपी से प्रीति कैसे । प्रीत किये क्‍यों कामी जैसे

कृष्ण पूर्ण अखण्‍ड़ अविनाशी । आत्माराम स्वयं सुखराशी
उनकी लीला विस्मयकारी । जिस पर सारा जग बलिहारी

/दोहा/
भाग्यवती जिस नार के, साथ गये थे श्याम ।
वह ग्वालन अब गर्व से, डूब रही थी काम ।।9 क।।

जिस बनवारी कृष्‍ण के, ब्रह्मा पार न पाय ।
ग्वालन उसके संग रह, निज भाग्‍यहि इठलाय ।।9 ख ।।

/चौपाई/
होकर वह ग्वालिन मतवाली । नाच रही ज्‍यों गुल की डाली
लगी नाज नखरा दिखलाने । अधिकार कृष्ण से जतलाने

वह मोहन से बोलन लागी । प्रीत मधुर वाणी में पागी
हे प्रियतम हे कृष्‍ण कन्‍हाई । चार पॉंव अब चली न जाई

कोमल पद थक गये हमारो । हे प्रियतम अब मुझको संभारो
अपने कांधे मुझे बिठाओ । इच्‍छा फिर तुम जहॉं घुमाओ

गर्व जनित यह बातें सुनकर । बनवारी मन ही मन गुनकर
बोले अच्‍छा प्‍यारी आओ । मेरे कांधे तुम चढ़ जाओ

ज्यों ही ग्वालिन चरण बढ़ाये । अन्तर्धान कृष्ण हो जाये
भाग्यवती वह ग्वालन अब तो । पछताये सिर धुन रो-रो

हा प्राण नाथ प्रियतम प्यारे । हा कृष्ण प्रीत के रखवारे
हे मोहन हे बनवारी । दीन हीन मैं अबला नारी

कहाँ छुपे हो दरश दिखाओ । हे प्रियतम मुझको न सताओ
दीन हीन मैं तुहरी दासी । दरश परस के मैं तो प्यासी

/दोहा/

हे उतरा नंदन सुनो, बोले शुक मतिधीर ।
भाग्यवती इस नार की, कही न जाये पीर ।।10।।

/चौपाई/

उधर गोपियां बाकी सारी । चरण चिन्‍ह निहारी निहारी
आ पहुँचे खोजत फिरत यहाँ । भाग्‍यवती रो रही थी जहॉं

निकट पहुँच गोपियॉं विलोकी । भाग्‍यवती वह कृष्‍ण वियोगी
बेसुध थी वह कृष्ण हराये । सब सखि मिलकर उसे जगाये

जागत ही वह कृष्‍ण पुकारे । हा प्रियतम हा प्राण सहारे
फिर देखी वह निकट सहेली । पलभर उसको लगे पहेली

फिर वह सारी बात सुनाये । कैसे उनसे कृष्‍ण गँवाये
अपनी करनी पर पछताये । अँखियों से वह जल छलकाये

चकित भई सब सुनकर वाणी । भाग्‍यवती की दुखद कहानी
फिर मिलकर सब टेर लगाये । माधव को फिर खोजन जाये

हे प्राण नाथ मोहन प्‍यारे । कहॉं छुपे हो हमें विसारे
दीन सखा अब दरश दिखाओं । हम अबला को यूँ न सताओं

ढ़ूंढ रहीं सब कृष्‍ण पुकारे । गिरत-उठत यमुना के पारे
फिर कानन पथ को वे जाये । जहँ तक तो शशि आभा पाये

आगे जंगल घोर घनेरी । देखत दिखय न हाथ-हथेरी
सब मिलकर अब सोचन लागे । उचित नहीं है जाना आगे

कृष्‍ण रीत हम सब जानत । कृष्‍ण प्रीत को अपना मानत
ज्यों-ज्‍यों हम वन अंदर जाये । त्‍यों-त्‍यों माधव घूप लुकाये

/दोहा/

कृष्ण धँसे इस घूप में, उचित नहीं है प्रीत ।
लौट चलीं सब गोपियाँ, मान समय की रीत ।।11।।

/चौपाई/

अहो परीक्षित क्‍या बतलाऊँ । उनके उर को चिर दिखलाऊँ
हे उतरा नंदन कह शुक बोले । अंत:करण के मति पट खोले

दशा गोपियों की विकट दुखारी । कृष्‍ण विहिन जग कौन सुखारी
कृष्ण नाम सब जाप रही हैं । विरह वेदना ताप रहीं हैं

मुख में केवल कृष्ण-कन्हाई । तन में उनकी प्रीत समाई
मन में कृष्णा तन में कृष्णा । कृष्‍णा बिन जाये ना तृष्‍णा

करे कृष्‍ण की बातें सारी । चेष्‍टा भी उनके अनुहारी
रोम-रोम में कृष्‍ण रमे हैं । उनकी आत्‍मा कृष्‍ण बने हैं

हैं कृष्णमय गोपियां सारी । अपनी सुध-बुध देह बिसारी
घर की यादें कौन करे है । यादों में बस कृष्‍ण भरे है

/दोहा/

फिरकर सारी गोपियां, आईं यमुना रेत ।
यशोगान श्रीकृष्‍ण का, करे टेर समवेत ।।11।।

।।इति रासपंचाध्‍यायी का द्वितीय अध्‍याय संपूर्ण।।

रासपंचाध्‍यायी रासलीला अनुक्रमणिका-

1.रासपंचाध्यायी अध्याय-1 रासलीला का आरंभ

2.रासपंचाध्यायी अध्याय-2 कृष्ण विरह में गोपियों की दशा

3.रासपंचाध्यायी अध्याय-3 गोपिका गीत

4.रासपंचाध्यायी अध्याय-4 विहल गोपियों के मध्य कृष्ण का प्रकट होना

5.रासपंचाध्यायी अध्याय-5 महारास

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